उसकी दृष्टि के समक्ष जो कुछ होता है और जहां तक उसकी स्मृति उसका साथ देती है, वह एक छोटा-सा फलक होता है, जबकि जन्म की घटना तो इस जन्म से भी पीछे और दूर-दूर तक, कई जन्मों तक जाकर फैली होती है, उसको हम नकार नहीं सकते। इसका सीधा सा उदाहरण है कि व्यक्ति को अपने जीवन के प्रारम्भ के चार-पांच वर्षों की स्मृति नहीं होती, बचपन की यादें धुंधली सी होती हैं या नहीं होती हैं तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि हमारा बचपन ही नहीं था? उसी प्रकार यदि पूर्व जन्म की स्मृति नहीं है तो इस आधार पर पूर्व जन्म का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता।
अनेक जन्म की तृषणाएं-वासनाएं कर्म पाप राशि, पुण्य कार्य मिलकर एक नये जन्म का आधार बनते हैं और केवल व्यक्ति के अपने कर्म ही नहीं, साथ में पूर्वजों के कर्म भी उसके साथ जुड़े होते हैं, इसी से जीवन में और साधनाओं में व्यक्ति को अनेक प्रकार की बाधाएं- असफलताएं और अड़चनें देखने की बाध्यता होती है।
पूर्व जीवन के कार्यो का प्रभाव तो निश्चित रूप से पड़ता ही है और उसी के आधार पर हमें आने वाले जीवन में पाप-पुण्यों को भोगना पड़ता है, क्योंकि पिछले जीवन के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए ही इस जीवन का सृजन होता है।
मृत्यु जीवन का अंत नहीं है अपितु नये जीवन का निर्माण है, फलस्वरूप मनुष्य को मृत्यु के बाद भी छुटकारा नहीं मिलता उसे अधूरे जीवन को पूर्ण करने के लिए हर बार जन्म लेना ही पड़ता है और इस प्रकार मनुष्य जन्म-मरण के इस चक्रव्यूह से कभी निकल ही नहीं पाता, अपितु और ज्यादा उसमें उलझता ही चला जाता है।
यह मानव-जीवन प्राप्त होना ही बहुत बडे़ सौभाग्य की बात होती है क्योंकि यह मानव-जीवन पुण्य कर्मों के आधार पर ही प्राप्त होता है, इसे यूं ही गंवा देना तो अज्ञानता ही कही जा सकती है।
चौरासी लाख योनियों में भटकने के उपरांत ही मनुष्य को यह जीवन प्राप्त होता है और वह भी आधा-अधूरा अपूर्ण रह जाय तो फिर जीवन का अर्थ ही क्या रह जायेगा। समय रहते व्यक्ति एक गहरी निद्रा में सोया रहता है, उसे अपने खाने-पीने रहने, उठने-बैठने के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता, वह सारा समय व्यर्थ के कामों में ही व्यतीत कर देता है और उसी को जीवन कह देता है, क्योंकि उसे इस बात का कोई महत्व कोई चिन्तन कोई विचार है ही नहीं कि जीवन के आने वाले समय में क्या करना है?
व्यक्ति अपनी निद्रावस्था में ही चलता रहता है और अपने पूरे जीवन को उसने नींद में ही स्थापित कर दिया है, इसलिए वह अपने जीवन को व्यर्थ के प्रयोजन में ढो रहा है, जिसका कोई लक्ष्य, कोई मर्म है ही नहीं।
अब प्रश्न यह उठता है, कि क्या हमारा लक्ष्य इस पूरे जीवन को यूं नींद में ही व्यतीत कर देना है? क्या यही वास्तविक रूप में जीवन है? नहीं वह व्यक्ति तो मृतवत ही है जो अपने कंधों पर अपनी ही लाश को ढोये जा रहा है और दुःख विषाद, मलीनता को ही जीवन मान बैठा है, ऐसा जीवन तो कोई भी जी लेगा इसीलिए किसी सन्त ने कहा हैं-
यह मनुष्य-शरीर जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। भगवान की कृपा से ही जीव मनुष्य-शरीर धारण करता है। आज तक जितने भी महान पुरुष हुए हैं, वे सब मानव देहधारी ही तो हैं। यह मानव शरीर विशिष्ट हेतु से ही प्राप्त होता है और जो उस हेतु को समझ लेता है वह जन्म-मरण के चक्रव्यूह को तोड़ कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है क्योंकि वह भली-भांति समझ लेता है, कि मनुष्य रत्न-विषय-भोगों को भोगने के लिए है ही नहीं।
आज का मानव यही सोचकर बैठा है, कि सुख आज नहीं तो कल प्राप्त हो जायेगा— और इस तरह अपने कई जन्मों को गंवा दिया फलस्वरूप हर बार नया जन्म लेना पड़ता है और यह आवागमन का चक्र भी यूं ही चलता रहता है, क्योंकि उसने सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ रखा है। जबकि जीवन में बार-बार बाधायें आये, कार्य होते-होते रूक जाये, शत्रु बार-बार उग्र हो जायें, घर में बीमारी पीछा न छोड़े, तो यह पूर्व जन्म के दोषों का प्रभाव हैं। पूर्वजन्मों के अनन्त कर्म, जो संचित और प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं, जो हमारे जीवन के पाथेय को भ्रष्ट कर देते हैं, उन दोषों को पूर्णतया नष्ट करने के लिए यह अति आवश्यक एवं अनुपम उपाय है, जो अपने-आप में नवीनतम एवं बेजोड़ है। पापांकुशा दीक्षा- पापांकुशा का तात्पर्य है, इस जीवन के साथ-साथ पूर्व जन्म के पाप कर्मों को समाप्त कर देना, उन पर अंकुश लगा देना, जीवन के अधूरेपन को अंधकारपूर्ण क्षणों को दुःख और दारिद्रय से अनुपीडि़त दुर्भाग्य से दूषित रेखा को सौभाग्य में बदल देना तथा पथ में आये विघ्नोत्पादक अवरोधों को समाप्त कर देना और जब ऐसा हो जायेगा, तो सफलता स्वयं आपके कदम चूमेगी फिर कोई दुःख जीवन में कैसे रह सकता है, फिर दरिद्रता, निर्धनता कैसे रह सकती है? फिर कोई अभाव रहेगा ही नहीं।
जाने-अनजाने में पूर्व जन्मों में हमसे किसी जीव को अथवा किसी मनुष्य को कष्ट पहुंचता है या उसके साथ दुर्व्यवहार होता है तो उसकी आत्मा का वह शाप निरन्तर हमारा पीछा करता ही रहता है और समय आने पर वह पाप वह अभिशाप हमारे मार्ग में एक दैत्य की तरह आ खड़ा होता है और हमें विवश हो जाना पड़ता हैं, विधि के विधान के आगे।
हमारे ही कर्म, हमारे ही दोष हमारे मार्ग में रूकावट बन कर खड़े हो जाते हैं और पूर्वजन्म स्मरण न होने के कारण हम अपने उस कर्म से अनभिज्ञ रहते हुए इन रूकावटों को ईश्वर के ऊपर थोपते रहते हैं, जिसके जिम्मेदार प्रायः हम स्वयं ही हुआ करते हैं। पापांकुशा दीक्षा तो एक तरह से सभी साधकों के लिए अनिवार्य ही है क्योंकि बिना पूर्वजन्म के शापों का पापों का शमन किए, जीवन की आनन्दमय स्थितियों को प्राप्त करना असंभव है। अतः जब सद्गुरू के शक्तिपात से कर्म दोषों का भस्मीकरण होता है तभी जीवन में सौभाग्य का उदय होता है, तथा फिर व्यक्ति जिस भी दिशा में प्रयास करता है, उसे दैवीय कृपा, पितृ कृपा, गुरू कृपा, कुटुम्ब कृपा सभी का सहयोग प्राप्त होता ही है और वह अल्प प्रयास से ही वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है, जो उसकी आकांक्षा होती है। पूर्व जन्मकृत दोष इतने अधिक होते हैं, जिसके निवारण के लिए पुनः-पुनः दीक्षा लेते ही रहनी चाहिए। ऐसी दीक्षा जो देव दुर्लभ है। दीक्षा प्राप्त होते ही शिष्य के सुविचार व सुचिंतनों गति के फलस्वरूप जीवन में सफलता प्राप्त होनी प्रारम्भ हो जाती है और वह अपने आपको स्वतंत्र अनुभव करने लगता है साथ ही अवरोधों को हटाता हुआ प्रगति के पथ एवं सिद्धि के पथ पर गतिशील हो जाता है।
आप सभी साधाकों-शिष्यों से विनम्र आग्रह है कि आप शक्तिपात दीक्षा व साधाना सामग्री से सम्बन्धित जानकारी व साधना सामग्री आर्डर के साथ कौन सी साधना, किस अंक में प्रकाशित हुई, वर्ष, पृष्ठ संख्या का विवरण जोधापुर कार्यालय में अवश्य नोट करायें, जिससे आपको प्राण प्रतिष्ठित साधना सामग्री विधि-विधान सहित भेजी जा सके।
कैलाश सिद्धाश्रम-जोधपर, राजस्थान
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