गोरखनाथ जी ने नेपाल और भारत की सीमा पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपातट में तपस्या की थी। उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई। भारत में गोरखनाथ का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को यवनों और मुगलों ने कई बार ध्वस्त किया लेकिन इसका हर बार पुननिर्माण कराया गया। 9वीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार किया गया था लेकिन इसे 13वीं सदी में फिर मुस्लिम आक्रांताओं ने ढहा दिया था। बाद में फिर इस मंदिर को पुनः स्थापित कर साधुओं का एक सैन्यबल बनाकर इसकी रक्षा करने का कार्य किया गया। इस मंदिर के उपपीठ बांग्लादेश और नेपाल में भी स्थित है।
गोरखनाथ का जन्मः गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। इनका जन्मकाल 845 ई- की 13वीं सदी माना जाता है। गुरु गोरखनाथ के जन्म के विषय में प्रचलित है कि एक बार भिक्षाटन क्रम में गुरु मत्स्येन्द्रनाथ किसी गांव में गये। किसी एक घर में भिक्षा के लिये आवाज लगाने पर गृह स्वामिनी ने भिक्षा देकर आशीर्वाद स्वरूप पुत्र की याचना की, गुरु मत्स्येन्द्रनाथ सिद्ध तो थे ही। अतः गृह स्वामिनी की याचना स्वीकार करते हुये उन्होंने एक चुटकी भर भभूत देते हुये कहा कि सेवन करने के बाद यथा समय वे माता बनेंगी। उनको एक महान तेजस्वी पुत्र होगा, जिसकी ख्याति चारों और फैलेगी।
आशीर्वाद देकर गुरु मत्स्येन्द्रनाथ अपने भ्रमण क्रम में आगे बढ़ गये। बारह वर्ष बीतने के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी ग्राम में पुनः आये। कुछ भी नहीं बदला था। गांव वैसा ही था। गुरु का भिक्षाटन का क्रम अब भी जारी था। जिस गृह स्वामिनी को अपनी पिछली यात्रा में उन्होंने आशीर्वाद दिया था, उसके घर के पास आने पर गुरु को बालक का स्मरण हो आया। उन्होंने घर में आवाज लगाई। वही गृह स्वामिनी पुनः भिक्षा देने के लिये प्रस्तुत हुई। गुरु ने बालक के विषय में पूछा।
गृह स्वामिनी कुछ देर तो चुप रही, परन्तु सच बताने के अलावा कोई उपाय न था। उसने तनिक लज्जा, थोड़े संकोच के साथ सब कुछ सच-सच बतला दिया। उसने कहा कि आप से भभूत लेने के बाद पास-पड़ोस की स्त्रियों ने राह चलते ऐसे किसी साधु पर विश्वास करने के लिये उसकी खूब खिल्ली उड़ाई। उनकी बातों में आकर मैंने वह भभूत को पास के गोबर से भरे गड्डे में फेंक दिया था।
गुरु मत्स्येन्द्रनाथ तो सिद्ध महात्मा थे। उन्होंने अपने ध्यानबल से देखा और वे तुरंत ही गोबर के गड्डे के पास गये और उन्होंने बालक को पुकारा। उनके बुलावे पर एक बारह वर्ष का तीखे नाक नक्श, उच्च ललाट एवं आकर्षण की प्रतिमूर्ति स्वस्थ बच्चा गुरु के सामने आ खड़ा हुआ। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ बच्चे को लेकर चले गये। यही बच्चा आगे चलकर गुरु गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे।
कौन थे मत्स्येन्द्र नाथः नाथ सम्प्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य मत्स्येन्द्रनाथ का है, जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुये। कौल ज्ञान निर्णय के अनुसार मत्स्येन्द्रनाथ ही कौलमार्ग के प्रथम प्रवर्तक थे। कुल का अर्थ है, शक्ति और अकुल का अर्थ शिव। मत्स्येन्द्र के गुरु दत्तात्रेय थे। मत्स्येन्द्रनाथ हठयोग के परम गुरु माने गये हैं। इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि मछिन्द्रनाथ की समाधि मछीन्द्रगढ़ में है, जो महाराष्ट्र के जिला सावरगांव के ग्राम मायंबा के निकट है। इतिहास मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं।
महायोगी गोरखनाथः माना जाता है कि जितने भी देवी-देवताओं के साबर मंत्र है, उन सभी के जन्मदाता श्री गोरखनाथ ही है। नवनाथ की परम्परा की शुरुआत गुरु गोरखनाथ के कारण ही शुरु हुई थी। शंकराचार्य के बाद गुरु गोरखनाथ को भारत का सबसे बड़ा संत माना जाता है। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नये-नये प्रयोग करते थे। उन्होंने योग के कई नये आसन विकसित किये थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आई। जब भी कोई उल्टै-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिये। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहां परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी प्रकृति को चुनौदी देकर प्रकृति के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है।
नवनाथ परम्पराः गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वालो सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। गोरखनाथ की परम्पराः नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। भारत में नाथ योगियों की परम्परा बहुत ही प्राचीन रही है। नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है।
इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और 84 नाथ सिद्धों की परम्परा शुरु हुई। नौ नाथों की परम्परा से 84 नाथ हुये। नौ नाथों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। सभी नाथ साधुओं का मुख्य स्थान हिमालय की गुफाओं में है। नागा बाबा, नाथ बाबा और कमंडल, चिमटा धारण किये हुये जटाधारी बाबा शैव और शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। लेकिन गुरु दत्तात्रेय के काल में वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदाओं का समन्वय किया गया था। नाथ सम्प्रदाय की एक शाखा जैन धर्म में है, तो दूसरी शाखा बौद्ध धर्म में भी मिल जायेगी। यदि गोर से देखा जाये तो इन्हीं के कारण इस्लाम में सूफीवाद की शुरुआत हुई।
इस पंथ के साधक लोगो को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। गुरु और शिष्य दोनों ही को 84 सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रूप में जाना जाता है।
नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किन्तु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस सम्प्रदाय का विस्तार असम और उसके आस-पास के क्षेत्रों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुये।
भारत के 84 सिद्धों की परम्परा में से एक थे गुरु गोरखनाथ जिनका नेपाल से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। नेपाल नरेश महेन्द्रदेव उनके शिष्य थे। उस काल में नेपाल के एक समूचे क्षेत्र को गोरखा राज्य इसलिये कहा जाता था कि गोरखनाथ वहां डेरा डाले हुये थे। वहीं की जनता आगे चलकर गोरखा जाति से प्रचलित हुई। यहीं से गोरखनाथ के हजारों शिष्यों ने विश्व भर में घूम-घूम कर धूना स्थान निर्मित किया। इन्हीं शिष्यों से नाथों की अनेकानेक शाखायें हो गईं।
नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते हैं। विभिन्न पुराणों में इससे सम्बन्धित कथायें मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारम्परिक कथायें और किंवदतियां भी समाज में प्रसारित हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिन्ध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथायें प्रचलित हैं।
काबुल, गांधार, सिन्धु बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रातों में यहां तक कि मक्का-मदीना तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी और नाथ परम्परा को विस्तार दिया।
गोरखनाथ का साहित्यः गोरखनाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुये। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया।
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