एक सागर के तट पर खड़े होकर देखें, कि तुफान आया है, लहरें हैं जोर की, बड़ी आंधी है…सागर तो दिखाई ही नहीं पड़ता, बस लहरों का तांडव नृत्य दिखाई पड़ता है। परन्तु इन लहरों में भी सागर है, यह लहरें भी सागर का ही रूप हैं, उस पर ही निर्मित हैं, उसका ही आकार हैं। फिर भी यह लहरें सागर नहीं है, क्योंकि सागर बिना लहरों के भी हो सकता है। जब तूफान खो जाये, आंधी चली जाये, सागर शांत हो जाये, लहरें विदा हो जायें, तब भी सागर रहता ही है। ऐसा नहीं हो सकता की सागर खो जाये और लहरें बच जायें।
सागर के बचने में लहरों के खोने से कोई बाधा नहीं पड़ सकती, परन्तु सागर खो जाये तो लहरें नहीं बच सकती। इसीलिये सागर मूल है, लहरें आती हैं और जाती हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य की चेतना सागर है और मन उस पर उठी हुई लहरें हैं, आकृतियां हैं। इसलिये मनुष्य का मन कभी शांत नहीं हो सकता, क्योकि शांत मन जैसी कोई चीज ही नहीं होती। शांत तूफान कभी होता है? क्योंकि शांत तूफान का कोई अर्थ नहीं होता। तूफान कभी शांत नहीं रहता, शांत है तो वह तूफान नहीं।
शांत मन केवल शब्द की भूल है। मन जब तक होता है तब तक अशांति होती है। जैसे कोई शांत तूफान नहीं होता, ऐसे ही कोई शांत मन नहीं होता। जहां अशांति है वहीं मन है- मन यानी अशांति।
लहरों के बिना सागर निश्चित है, परन्तु सागर के बिना लहरें असंभव है। ठीक इसी प्रकार मन के बिना चेतना हो सकती है, परन्तु मन चेतना के बिना नहीं हो सकता। मन एक ग्रंथि, एक बंधन, एक रोग, एक उपाधि है। मन चेतना की वह अवस्था होती है जिसे हम कहते हैं- विक्षुद्ध, विक्षिप्त, चंचल, लहरों से भरी। जब शांति उपलब्ध होती है तो मन खो जाता है, मन बचता ही नहीं।
जब एक रस्सी पर गांठ बांधी जाती है, तो क्या रस्सी में कुछ परिवर्तन होता है। रस्सी में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता… और फिर भी बहुत कुछ हो जाता है। रस्सी में गांठ बांधने पर न तो रस्सी में कुछ जुड़ता है और न ही कुछ घटता है। रस्सी जैसी थी वैसी ही रहती है, परन्तु फिर भी पहले जैसी नहीं, अब उसमें गांठ पड़ी है, उलझ गयी है। स्वभाव जरा भी नहीं बदलता, परन्तु उलझाव खड़ा हो जाता है बिना स्वभाव के बदले। रस्सी के गुण में, धर्म में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं पड़ता।
क्या है यह गांठ? गांठ ना तो वस्तु है, अगर वस्तु होती, तो रस्सी के बिना भी हो सकती थी। गांठ को निकालकर रस्सी से अलग नहीं किया जा सकता। इसका यह मतलब नहीं कि रस्सी को गांठ से मुक्त नहीं कर सकते। रस्सी को गांठ से मुक्त किया जा सकता है, परन्तु गांठ को रस्सी से अलग नहीं किया जा सकता। गांठ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, वह केवल आकृति है, केवल रूप है। गांठ का अस्तित्व केवल रूपगत है, गांठ का नाम भी है, रूप भी है, पहचान भी है- गांठ माया का रूप है।
मनुष्य भी एक गांठ है- जिसका नाम है, रूप है, पहचान है। अगर हम यह गांठ खोल दें तो जो बचेगा वह परमात्मा है, मनुष्य सिर्फ गांठ है, मनुष्य सिर्फ एक ग्रंथि है। अगर मनुष्य को इस गांठ से मुक्त कर दिया जाये, तो वह नामधारी, रूपधारी, जो कहता था ‘मैं’ वह नहीं बचेगा, गांठ खुलेगी तो मैं गया। इस संसार में मैं- सब गांठों का जोड़ है।
मन को गांठ इसलिये कहा गया है, क्योंकि मन तो है नहीं, यह सिर्फ आकृति है, रूप है। चेतना जब विक्षुब्ध है तो मन निर्मित हो जाता है, मन सिर्फ एक रूप है। रात को देखा हुआ सपना, जिसका अस्तित्व नहीं है, केवल रूप है और क्षण भर को जब हम आसक्त हो जाते हैं रूप से, या स्वयं को भूल जाते हैं, तब रूप बिलकुल वास्तविक हो जाता है। यह हमारे मन का खेल है। मन, जो नहीं है उसको देखने का कार्य करता है।
जो मनुष्य मन से बंधा हुआ है, वह स्वयं को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता, क्योंकि मन से बंधने की एक ही व्यवस्था है और वह है स्वयं को भूल जाना। यह दोनो काम एक साथ नहीं हो सकते, कि आप स्वयं को भी जान लें और मन को भी बचा लें। मन को बचाना है तो व्यक्ति को स्वयं को भूलना अनिवार्य है, उसे बिना भूले मन होता ही नहीं और यदि व्यक्ति को स्वयं का स्मरण करना है तो मन को खोना पड़ेगा।
स्वयं का बोध लाना है, स्वयं को जानना है, तो हमें अपनी दृष्टा को जगाना होगा। इस ग्रंथि के भीतर अगर हम दृष्टा को ला सकें तो यह ग्रंथि टूट जायेगी। दृष्टा को लाना किसी भी ग्रंथि को खोलने का उपाय है, साक्षीभाव किसी भी ग्रंथि को सुलझाने का उपाय है।
हम सब सुलझाना चाहते हैं, लेकिन साक्षी को बिना जगाये। मन से ही मन को सुलझाना चाहते हैं, यही हमारी भूल है। मन उलझाव है, इसलिये मन से कोई सुलझाव नहीं हो सकता। हम मन से ही मन को सुलझाने की कोशिश करते हैं। जैसे अपने हाथ से अपने ही उसी हाथ को पकड़ने की कोशिश करना।
मन ग्रंथि बनता है, क्योंकि मन के विस्तार में दृष्टा भूल जाता है। मन का अर्थ है…वह अवस्था जब चेतना दृष्टा को भूल जाती है, साक्षी को भूल जाती है, तभी तरंगित होकर उपाधिग्रस्त हो जाती है।
इस ग्रंथि, इस रोग-मन से मुक्त होने के लिये मनुष्य को दृष्टा को, साक्षी को जानना आवश्यक है और अगर साक्षी को जानना है तो ज्ञान की परम साधना में उतरना पड़ेगा… जहां कोई विषय न रह जाये, और सिर्फ जानने वाला ही बचे- जानने को कुछ न बचे, सिर्फ जानने वाला बच जाये। जिस दिन जानने को कुछ न हो, न ही अनुभव करने को है- जिस दिन समस्त अनुभव शून्य हो जाते हैं उस दिन मनुष्य उस दिन परमात्मा को जान पाता है। उस परमात्मा को जो नित्य साक्षी है।
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