जीवन में कुछ पल ऐसे भी होते है, जब चित्त स्वतः ही समस्त राग-द्वेषों से मुक्त होता हुआ किसी शून्य में लीन हो जाता है।
वासनाओं के उद्वेग भूली-बिसरी बात हो जाती है, चित्त में चल रहा अनेक कामनाओं का कोलाहल शांत हो जाता है, मोह-ममता से अपने आप को मुक्त करने का कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है तथा विगत जीवन के पीड़ादायक क्षण यूं विस्मृत हो जाते है मानों उनका कभी अस्तित्व ही न रहा हो।
लेकिन बस वे पीड़ादायक क्षण यूं विस्मृत हो जाते है मानों उनका कोई अस्तित्व ही न रहा हो।
-लेकिन बस वे पीड़ादायक क्षण ही क्यों? ऐसे में तो समस्त चेतना, समस्त अस्मिता ही किसी शून्य से सन्पृक्त हो, ऐसे अद्भूत अनिवर्चनीय प्रकाश के साथ नृत्य करने लग जाती है।
जैसे प्रातः की स्वर्णिम रश्मियों का मधुरिम प्रकाश, किसी घने वृक्ष के झुरमुट से बार-बार आकर नर्तन सा करता झलक जा रहा हो। और झलक कर पता नहीं, किस इंगित को देने के लिये आतुर हुआ जा रहा हो।
और झलक कर पता नहीं, किस इंगित को देने के लिये आतुर हुआ जा रहा हो। कभी तो सहसा कुछ स्वर्णिम रश्मियों का मधुरिम प्रकाश, किसी घने वृक्ष के झुरमुट से बार-बार आकर नर्तन सा करता झलक जा रहा हो।
और झलक कर पता नहीं, किस इंगित को देने के लिये आतुर हुआ जा रहा हो। कभी तो सहसा कुछ स्वर्णिम राशि से बिखेर देती है वे कोमल किरणें।
तो कभी वे ही कुछ शीतल बन रूपहली सी आभा छलका कर कहने लग जाती है, किसी अनदेखी स्निग्धता के विषय में।
यही होती है शायद प्राणों की वह दशा, जहां से जीवन में कुछ और घटित होने लग जाता है।
बुलाने लग जाते है ऐसे क्षण, अपनी ओर कोई गूढ सा संकेत देकर वहां चलने के लिये, जहां इस जगत के वैषम्य से मुक्ति सम्भव है।
जहां पल-पल अपने आप को दबोच कर जीवन जीने की विवशता नहीं है, जहां कृत्रिम सम्बन्धों के साथ औपचारिकता के आवरण में रहने की बाध्यता नहीं है।
और न जहां पल प्रतिपल किसी आघात की आशंका है-न प्राणों पर, न चेतना पर, न स्मित पर, न जीवन के नृत्यमय आह्लाद पर।
लेकिन क्या संज्ञा दे सकते है, इन प्राणों की दशा की? प्राणगत होते हुये भी, कितनी पृथक होती है यह दशा प्राणो के उस दुःसह्य आवरण से।
उस बोझ से, जो मथ कर रख देता है चिंत्त को, जब कभी बोध हो जाये वास्तविकता का।
बोध हो जाये इस बात का, है सब कुछ अन्ततोगत्वा प्रलाप ही और इन प्रलापों के लिये इतनी अधिक वेदना? इन्हें अर्जित करने के लिये इतनी व्यर्थ की भागदौड़? क्या अथ रह जायेगा फिर जीवन का, यदि वहां तक न पहुँच सके जहां जब कुछ नित्य है? केवल नित्य ही नहीं प्रतिपल नूतन भी तो!
-यही प्रतिपल नूतन होना ही, तो सिद्धाश्रम का वास्तविक परिचय है। जहां काल अपने क्रुर पंजों को फैला नहीं सकता है।
अन्यथा इस जगत में तो नूतनता यदि दैववश उपस्थित हो भी जाये, तो विषमताओं के ताप में छटपटा कर क्षणांश में अपना अस्तित्व त्याग, जीवन की एक बोझिलता बन जाती है और यही कारण बन जाता है मन के सारे असंतोष का, कटुताओं व प्राणहीनता का।
जिस जीवन में कोई नूतनता न हो, वह जीवन स्पन्दित हो सकता है तो कैसे? वह तो एक दिनचर्या से अधिक कुछ रह ही नहीं जाता है।
इसी कारणवश सिद्धाश्रम की धारणा केवल अब एक तपः स्थली के रूप में स्वीकार करना अपर्याप्त होगा, और अपर्याप्त ही होगा यह धारणा निर्मित कर लेना, कि सिद्धाश्रम का साक्षात् सीधे साधनाओं के माध्यम से हो जाना सम्भव है।
वस्तुत एक सिद्धाश्रम पहले साधक के हृदय में आकर उतर जाता है और उसकी उपस्थिति में, उसकी उपस्थिति के प्रकाश में ही आगे का मार्ग स्वतः प्रशस्त होने लग जाता है। एक तपोभूमि होते हुये भी सिद्धाश्रम, तो प्रारम्भिक चरणों में भावगत व प्राणगत स्थिति ही है।
यदि हृदय में वह भावभूमि ही नहीं निर्मित हो सकी, कि उसके आधार पर यह जाना जा सके कि सिद्धाश्रम का परिचय क्या है, तो आगे कहां तक की यात्रा के लिये मन में कोई आग्रह निर्मित हो सकेगा?
केवल अध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं इस दैनिक जीवन में भी, जिससे परिचय ही न हो, क्या उसके प्रति मन में कोई आग्रह उमड़ सकता है?
इसी मूलभूत तथ्य को ध्यान में रख कर इस वर्ष दिनांक २१ मई को सिद्धाश्रम जयंती के अवसर पर सिद्धाश्रम प्राप्ति से सम्बन्ध्ति एक विशिष्ट साधना प्रस्तुत की जा रही है, जिसे साधना से अधिक परिचय कहना ही अधिक उचित होगा।
वस्तुतः सिद्धाश्रम के विषय में कोई सम्पूर्ण साधना क्रम प्रस्तुत कर पाना गुरू परम्परा में गोपनीय होने के कारण अत्यन्त दुष्कर ही रहा है। जिसके पीछे कारण मात्र इतना ही है, कि ऐसा विशिष्ट ज्ञान हल्के और ओछे व्यक्तियों के समीप जाकर अपना अर्थवता न खो दे, उपहास की विषय वस्तु न बनने लग जाये।
इसके उपरान्त भी गुरू के चिंतन मर्यादाबद्ध तो हो सकते है, किसी परिसीमा में आबद्ध नहीं और सम्भवतः यहीं कारण है इस सिद्धाश्रम जयंती के अवसर पर पूज्यपाद गुरूदेव द्वारा कृपापूर्वक यह साधना रहस्य प्रदान करने का।
इस प्रकार की उच्चकोटि की साधना में प्रविष्ट होने वाले साधक के पास ताम्रपत्र पर अंकित सिद्धाश्रम गुरू मंत्र एवं सिद्धप्रदा माला आवश्यक उपकरण के रूप में होनी अनिवार्य होती है, जिसका पहले किसी साधना में प्रयोग न किया गया हो।
उपरोक्त दिवस पर इन्हें लकड़ी के बाजोट पर सफेद वस्त्र बिछा कर, सम्मान पूर्वक स्थापित करें एवं स्वयं भी सफेद धोती को पहने, गुरू पीताम्बर ओढ़ कर, सफेद रंग के सूती आसन पर बैठें। इस साधना को प्रातः 5 से 6 बजे के मध्य अथवा रात्रि में दस बजे के पश्चात् सम्पन्न करना चाहिये।
यंत्र व माला का दैनिक साधना विधि पुस्तक के अनुसार पूजन करने के पश्चात् गुरू मंत्र की पांच माला मंत्र जप करके निम्न मंत्र की भी पांच माला जप सम्पन्न करें-
साधना के पश्चात्, अगले दिन यंत्र व माला को विसर्जित कर दें।
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