पद्मपुराण के अनुसार- ‘गायत्री देवी सांख्यायन गोत्र में उत्पन्न हुई हैं, तीनों लोक उनके चरण हैं, पृथ्वी उनके उदर में स्थित है, और पैर से मस्तक तक शरीर के चौबीस स्थानों में गायत्री के चौबीस अक्षरों का न्यास करके साधक ब्रह्म लोक को प्राप्त होता है, तथा प्रत्येक अक्षर के देवता का ज्ञान प्राप्त करने से उसे विष्णु का सायुज्य मिलता है।’
भारतीय परम्परा में गायत्री परम उपास्या रही हैं और सुबुद्धि एवं सद्विचारों की प्रदात्री के रूप में उपादेय हैं। इस साधना पद्धति से बुद्धि का विकास, आत्मिक भक्तियों को बढ़ाने का यह साधना सरलतम सोपान माना गया है, इसीलिये गायत्री उपासना का अधिकाधिक, वेदों में उल्लेख पाया जाता है, अतः इसे ‘वेद माता’ की संज्ञा भी दी गई है।
गायत्री मंत्र मन को सबल बनाने का अमोघ अस्त्र कहा गया है। इस मंत्रशक्ति के द्वारा ही बड़े-बड़े महात्मा, ऋषि, महर्षि से लेकर गृहस्थ साधक भी अपने जीवन को ऊंचा उठाने में समर्थ हुये हैं। पुराणों में उल्लेख है कि ‘यह मंत्र किसी के द्वारा रचित नहीं है, अपितु स्व निर्मित है। ब्रह्मा जी को यह स्पष्ट निर्देश हुआ था, कि गायत्री साधना से ही सृष्टि निर्माण की क्षमता प्राप्त होगी, इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने स्वयं इस कठिन गायत्री साधना को सम्पन्न कर, उससे शक्ति उपार्जित की और वे सृष्टि-निर्माण में समर्थ हुये।’
गायत्री देवी का वर्ण भाक्ल, मुख, अग्नि तथा ऋषि विश्वामित्र है, इसी साधना के बल पर विश्वामित्र ने इन्द्र को परास्त कर एक नई सृष्टि का निर्माण किया था।
वैज्ञानिक दृष्टि से यह गायत्री साधना अत्यंत ही कल्याणकारी सिद्ध हुई है। गायत्री मंत्र में जिन चौबीस अक्षरों का समावेश है, उन्हें दिव्य शक्तियों का समूह माना गया है, तथा इन्हें दिव्य भक्तियों का स्थिति-स्थान भी कहा गया है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में पांच कर्मेन्द्रियां, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच प्राण, पांच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) तथा मन, बुद्धि, चित्त, एवं अहंकार- ये चौबीस तत्व भी इन्हीं में समाहित हैं। ये चौबीस भक्तियां इसी से उत्पन्न मानी गई हैं। गायत्री के चौबीस अक्षरों में क्रमशः निम्न चौबीस देवताओं का निवास माना गया है-
गायत्री साधना के माध्यम से साधक के शरीर में विद्यमान इन चौबीस देवताओं के साथ सम्बन्ध बनता है, तथा बाद में इन चौबीस अक्षरों के भक्ति कम्पन ‘ईथर’ के द्वारा सारे विश्व में फैल जाते हैं, तब ब्रह्माण्ड स्थित सभी देवताओं से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। साधक का ब्रह्माण्ड की इन दिव्य भक्तियों से सम्बन्ध बनने पर वह अनन्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है, केवल और केवल गायत्री मंत्र में ही वह ऊर्जा विद्यमान है, जो भक्तियों को एक साथ जाग्रत कर देती है, इसीलिये शास्त्रों में गायत्री मंत्र को ‘मंत्रराज’ भी कहा गया है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने गायत्री छन्द समाहम कहा है, अर्थात् सभी मंत्रों में मैं गायत्री मंत्र हूं। इसके अतिरिक्त गायत्री सावित्री, ब्रह्म विद्या, वेदमाता आदि अनेक नाम वेदों तथा उपनिषदों में वर्णित हैं।
हमारे सूक्ष्म शरीर में ऐसी कई ग्रन्थियां तथा चक्र है, जहाँ अनन्त भक्ति पूंज विद्यमान होते हुये भी वे सुप्तावस्था में हैं, किन्तु गायत्री मंत्र की संरचना इस क्रम से हुई है कि उनके उच्चारण से उन ग्र्रन्थियों या चक्रों पर आघात लगता है और वे चक्र स्वतः ही जाग्रत हो जाते हैं।
इस साधना के बारे में प्रायः लोगों का यह मत है, कि गायत्री मंत्र मूल रूप से एक आध्यात्मिक मंत्र है, अतः इस मंत्र का जप करने से आत्मा की उन्नति और आध्यात्मिक प्रगति अवश्य होती है, परन्तु इससे आर्थिक उन्नति या गृहस्थ से सम्बन्धित बाधाओं को दूर करने में सहायता नहीं मिल पाती, यह बात सर्वथा सही है, किन्तु गायत्री मंत्र यदि विशिष्ट बीजाक्षरी मंत्रों से निर्मित हो, तो उसके द्वारा गृहस्थ की समस्त बाधाओं को भी दूर किया जा सकता है, यह बात भी सर्वथा सही है।
यहां कुछ ऐसे प्रयोग दिये जा रहे हैं, जिससे साधक अपने गृहस्थ जीवन की समस्याओं को दूर कर सकते हैं। ये निश्चित रूप से सरलतम और सटीक प्रयोग हैं, जो इस प्रकार हैं-
सामग्री- गायत्री मंत्र से संस्कारित दिव्य शंख एवं चैतन्य माला।
समय- किसी भी रविवार अथवा शुक्रवार को प्रातः 5 से 8 बजे के मध्य।
प्रातः स्नानादि के बाद साधक को चाहिये कि वह पूर्व की ओर मुख करके पीले आसन पर, पीली धोती पहन कर बैठ जायें, तथा सामने चौकी पर पीला कपड़ा बिछा लें, फिर पीले चावलों की एक ढेरी बनाकर उस पर एक पानी वाला नारियल स्थापित कर दें तथा मौली (कलावा) बांध कर उस पर कुंकुम लगा दें, और उसके दाहिने ओर लाल फूल की पंखुड़ियों के ऊपर ‘दिव्य शंख’ को स्थापित कर, उसका भी अक्षत, पुष्प व धूप से पूजन करें, फिर दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प करें, कि मैं अमुक व्यक्ति (नाम, गोत्र) इस मनोकामना पूर्ति हेतु यह साधना सम्पन्न कर रहा हूँ ऐसा बोलकर जल को भूमि पर छोड़ दें, फिर आसन पर खड़े होकर निम्न गायत्री मंत्र का ‘चैतन्य माला’ से एक माला जप करें।
साधक जप समाप्ति के बाद यंत्र को अपने पूजा स्थान में स्थापित कर दें तथा माला को पहने रहें। यह अद्भुतप्रयोग शीघ्र ही सफलता देने वाला है।
रोग जब इतना असाध्य हो जाये कि डॉक्टर तथा वैद्यों को भी समझ में न आ रहा हो, तो उस समय यह प्रयोग रोगी स्वयं कर सकता है या रोगी के नाम का संकल्प लेकर अन्य व्यक्ति भी इस प्रयोग को सम्पन्न कर सकता है।
किसी भी शनिवार की रात्रि को 9:00 बजे के बाद अपने सामने एक छोटी चौकी पर लाल कपड़ा बिछा लें तथा लाल आसन पर दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर बैठ जाये। चौकी पर किसी प्लेट में कुछ चावल बिछाकर, उसमें एक ‘तांत्रोक्त मूंगा’ रख दें, उसका कुंकुम, अक्षत, धूप से पूजन करके, उसे लाल हकीक माला पहना दें, फिर दायें हाथ में जल लेकर संकल्प करें, कि मैं अमुक व्यक्ति ( नाम, गोत्र) इस रोग की निवृत्ति हेतु यह रोग सम्पन्न कर रहा हूँ ऐसा कहकर जल भूमि पर छोड़ दें, फिर बिना माला के एक घंटा निरन्तर निम्न मंत्र का जप करें।
मंत्र जप के बाद साधक समस्त सामग्री को जल में प्रवाहित कर दें।
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