स्वरूपों में भिन्नता हो सकती है, किन्तु गहन दृष्टि से देखे, तो प्रत्येक ममत्व की किसी अन्तःसलिला का प्रवाह लेकर ही गतिशील होता है, आप्लावित कर देने की चेष्टा में ही निमग्न होता है, क्योंकि ऐसा करना प्रत्येक स्त्री का मूल धर्म होता है, लेकिन इन सभी स्वरूपों से कुछ पृथक, जो स्वरूप विशिष्ट ही नहीं विशिष्टतम होता है, उसी एक स्वरूप का नाम है-योगिनी!
योगिनी एक नारी देह में आबद्ध होते हुऐ नारी मन की समस्त कोमल भावनाओं को एकत्र कर, उपस्थित होते हुये भी अन्ततोगत्वा शक्ति का एक पूंज ही होती है, जो नारी देह का आश्रय लेकर सम्मुख आती है, क्योंकि शक्ति का आश्रय स्थल सदैव से ही नारी को स्वीकार किया गया है।
केवल साधक ही नहीं, प्रत्येक सामान्य मनुष्य के जीवन में भावनाये होती है, जो उसे सहज प्रवाह दे सकती है। जीवन से यदि भावनाओं को ही निकाल दिया जाये तो मनुष्य व यंत्र में अंतर ही क्या रह जायेगा? किन्तु मनुष्य यंत्र नहीं हो सकता।
पहले ही इस युग की ‘सभ्यता ने मनुष्य को एक यंत्र बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है जिसके परिणाम की अधिक व्याख्या या वर्णन की आवश्यकता नहीं है।
जो सम्मुख है, वह है- एक यंत्रवत् जीवन। जिसमें न किसी के प्रति कोई ममत्व है, न अपनत्व, न उछाह, न वेग, न प्रेम और न ही फिर इन भावनाओं के अभाव में जीवन के प्रति कोई लक्ष्य ही।
किसी भी शक्ति से पूछ कर देखिये, कि उसके जीवन में जो आपाधापी चल रही है या जिस आपाधापी का न केवल उसने सृजन कर लिया है वरन् जिसका वह निरन्तर पोषण भी करता जा रहा है, उसका अर्थ क्या है? क्यों वह सदैव इतना उद्विग्न बना रहता है, इसके मूल्य पर उसे क्या प्राप्त हो जायेगा? किसी के पास भी इसका निश्चित उत्तर नहीं होगा, क्योंकि इन बातों का कोई निश्चित उत्तर हो भी नहीं सकता। ‘भावनाये’ जो जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि हो सकती है, जब उसी का अभाव हो गया , उसी का हनन करके कुछ निर्मित करने की चेष्टा की, तो भूल तो वहीं से प्रारम्भ ही हो गयी है।
और इसी बिन्दु पर आकर योगिनी साधना का महत्व स्वयमेव स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि योगिनी साधना अर्थ ही है- भावनाओं की साधना, अपनत्व व ममत्व की साधना, जीवन में जो कुछ विस्मृत हो चला हो, जो कुछ टूट गया हो या जो कुछ रिक्त रह गया हो, उन सभी को अर्जित कर लेने या पुनः प्राप्त कर लेने की साधना
यह तो भावनाओं का ही बल होता है, कि जीवन में कोई भी व्यक्ति वह सब कुछ कर जाता है, जो अन्यथा उसके सहज बल से सम्भव नहीं था और यहां यह ध्यान रखने की बात है, कि बल का तात्पर्य शारीरिक बल से नहीं होता है।
यह तो मानसिक बल होता है, जो एक नर को पुरूष बनने की ओर तथा पुरूष को पुरूषोत्तम बनने की ओर उत्प्रेरित करता है और इसके मूल में होती है ये भावनाये, जिनके मूल में होता है प्रेम! (यह कहना शायद पुनरोक्ति हो जायेगा, कि प्रेम का आधार होती है स्त्री)
जो अपनत्व का भाव पत्नी के रूप में अधिक स्पष्टता से सामने आता है, प्रेमिका के रूप में वहीं भाव इस रूप में किंचित परिवर्तित हो जाता है, कि वह अपने प्रिय को सभी रूपों में केवल श्रेष्ठ ही नहीं श्रेष्ठतम देखना चाहती है, क्योंकि सामाजिक शिष्टाचार के अन्तर्गत एक प्रेमिका से अधिक पत्नी को अपनी मनोभावनायें प्रकट करने की छूट होती है।
अंतर केवल सामाजिक बंधनों का ही होता है, अन्तर्मन का नहीं और यही जीवन में सर्वाधिक संतोष और संतोष से भी कहीं अधिक एक अनोखी सी तृप्ति का कारण बन जाता है।
कोई मेरे लिये चिंतायुक्त बना रहता है, कोई कहे-अनकहे रूप में मुझ पर अपना प्रेम बरसाता ही रहता है, कोई मेरे बारे में सोचता रहता है और सबसे बड़ी बात तो यह, कि कोई मेरे सारे अस्तित्व पर अपना अधिकार मानता है ।
ये तो जीवन की बड़ी अनोखी सी आश्वस्तिया होती है-जिनके ताने-माने में बुना जीवन ही सही रूप में गतिशील होता हुआ पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है।
क्योंकि ऐसी आश्वस्ति मिल जाने का अर्थ होता है, एक प्रकार का सुरक्षा बोध मिल जाना और भावनाओं के आधार पर मिली आश्वस्ति ही वास्तविक सुरक्षा बोध दे सकती है। अन्यथा व्यक्ति इसी को प्राप्त करने की चेष्टा में पता नहीं कहां-कहां भटक आता है।
जीवन एक निरपेक्ष घटना नहीं होती है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी पद, प्रतिष्ठा अथवा आर्थिक स्थिति को क्यों न हो, अपने जीवन का ताना-बाना किसी व्यक्ति या और अधिक विशद-रूप में कहें, तो किसी भावना से जोड़ कर ही बुनना चाहता है। सामान्यतः व्यक्ति अपने जीवन को या अपनी अस्मिता को अपने परिवार से जोड़ कर जीवित रखना चाहता है। इसमें कोई अनुचित बात भी नहीं है।
परिवार जैसी सामाजिक संस्था के निर्माण के पीछे उद्देश्य ही यही रहा है, किन्तु निरन्तर बढ़ते हुये आर्थिक एवं अन्याय दबावों के बाद क्या आज यह सम्भव रह गया है, कि व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से कुछ अलग हट कर, अपने जीवन को आह्लाद व मधुरता देने वाले क्षणों के विषय में चिंतन तक कर सकें?
जीवन में ऐसी स्थिति आ जाने पर जिस प्रवाह की आवश्यकता होती है, वह किसी गणित की अपेक्षा केवल साधनाओं से ही उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक साधना स्वयं में शक्ति का एक-एक अजस्व प्रवाह ही तो होती है। और यही तथ्य योगिनी साधना के विषय में भी पूर्णत्यः सत्य है।
आज समाज में योगिनी शब्द को लेकर क्या धारणा है, इसको कदाचित विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं। अनेक व्यक्तियों की दृष्टि में भैरवी व योगिनी के मध्य भी कोई भेद नहीं होता। यूं भैरवी की प्रस्तुति ही कहा प्रासंगिक रूप में सम्भव हो पायी है?
किन्तु योगिनी इतना हल्का शब्द नहीं होता। योगिनी स्वयं में शक्ति तत्व की एक विशिष्ट प्रस्तुति व स्वरूप होती है, जिसकी साधना सम्पन्न करना प्राण तत्व को सचेतन करने का एक उपाय होता है।
यह सत्य है, कि योगिनी की प्रस्तुति एक प्रेमिका रूप में होती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं, कि प्रेमिका शब्द से सदैव वासनात्मक अर्थ ही अभिप्रेत हो। क्या प्रेमिका शब्द से एक महिला मित्र का अर्थ अभिप्रेत नहीं हो सकता?
वस्तुतः योगिनी का वर्णन ‘प्रेमिका’ रूप में होने के पीछे जो कारण है, वह मात्र इतना ही है, कि भारतीय समाज की मान्यताओं में महिला मित्र की कभी कोई अवधारणा ही नहीं रही, लेकिन जो भावगत तात्पर्य है वह सदैव से यही रहा है।
साथ ही प्रेमिका का तात्पर्य होता है, एक ऐसी स्त्री जो अपने प्रिय पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने में ही अपना सुख मानती हो और न केवल विलक्षण सौन्दर्य के रूप में वरन् इस रूप में भी योगिनी की समकक्षता कोई भी स्त्री करने में असमर्थ ही होगी।
जीवन को भावनाओं के आधार पर पुनः निर्मित करने व योगिनी के रूप में एक वास्तविक प्रेमिका प्राप्त करने के इच्छुक साधकों हेतु, इस वर्ष दिनांक 14 जून को घटित होने वाली ‘योगिनी एकादशी’ के अवसर पर एक विशिष्ट साधना पद्धति प्रस्तुत की जा रही है, जिसे सम्पन्न कर वे अपने भावनाशून्य हो रहे जीवन में हास्य, विनोद, व मधुरता जैसे कुछ नये पृष्ठ जोड़ पाने में समर्थ हो सकते है।
इस साधना में प्रवृत होने वाले साधकों के लिये आवश्यक है, कि वे ताम्रपत्र पर अंकित ‘योगिनी यंत्र’ व सफेद हकीक की माला को साधनात्मक उपकरण के रूप में प्राप्त कर लें।
यह साधना उपरोक्त दिवस (योगिनी एकादशी) के अतिरिक्त किसी भी शुक्रवार को सम्पन्न की जा सकती है।
साधना में वस्त्र आदि का रंग श्वेत होना चाहिये तथा दिशा उत्तर मुख होनी चाहिये। इस साधना में किसी विशेष विधि-विधान को सम्पन्न करने की आवश्यकता नहीं है। यंत्र व माला का सामान्य पूजन करने के पश्चात् दत्तचित भाव से निम्न मंत्र की ग्यारह माला जप सम्पन्न करें-
यह एक दिवसीय साधना है तथा साधना सम्पन्न करने के दूसरे दिन यंत्र व माला को किसी स्वच्छ जलाशय में या निर्जन स्थान पर विसर्जित कर देना चाहिये।
जैसा कि प्रारम्भ में कहा, योगिनी शक्ति तत्व का ही एक विशिष्ट प्रस्तुतिकरण होती है, अतः यह स्वाभाविक ही है, कि इसे मनोयोग पूर्वक सम्पन्न करने वाले साधक को, जीवन के प्रत्येक पक्ष में अनुकूलता मिलने की क्रिया स्वयंमेव प्रारम्भ हो जाये, चाहे वह धन संबंधी पक्ष हो, स्वास्थ्य की समस्या हो, सौन्दर्य प्राप्ति की कामना हो या गृहस्थ जीवन के किसी भी पक्ष को स्पर्श करता कोई भी पक्ष क्यों न हो।
प्रस्तुत साधना की एक अन्य गुढ विशेषता यह भी है, कि यह प्रबल पौरूष प्राप्ति की साधना भी है। साधना सम्पन्न करने के उपरान्त अपने अनुभवों को गोपनीय ही रखें।
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