पहली-पहली बार जब किसी मृग शावक ने संसार में नेत्र खोला, और अंगडाई लेकर उठा, तो माता मृग ही सम्मुख आई और स्तन पान कराकर उसकी क्षुधा शांत की। संसार में आने पर माँ के ही सुखद, स्नेहिल स्पर्श से वह आनन्दित हुआ, धीरे-धीरे उसे बोध होने लगा, कि माँ के रहते उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। इस तरह जीवन में निर्भय और मुक्त होते हुये कुलांचे भरता हुआ हिरण शावक बचपन की खुशियों में खो गया।
मनुष्य का मूल स्वभाव ही है, शिशुवत् रहना। प्यार से कोई उसको बेटा कह देता है, तो कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो, मन एक बार पुलकित हो ही जाता है। इसके पीछे छुपी होती है, व्यक्ति के अन्दर वात्सल्य और प्रेम को पा लेने की, और उसमें अपने आपको सुरक्षित कर लेने की भावना। माँ के ममतामयी आंचल के तले शिशु अपने आपको निश्चिन्त महसूस करता है। उसको कोई कर्त्तव्य बोध तो होता नहीं है, तरह-तरह की शैतानियां कर के भी वह माँ की गोद में दुबक कर एकदम से निश्चिन्त हो जाता है, क्योंकि वह जानता है, कि रक्षक के रूप में माँ उसके साथ खड़ी हैं।
कुछ ऐसी ही स्थिति होती है साधक या शिष्य की भी शिष्य उस विराट सत्ता, जिसे ईश्वर या गुरू कहा गया है को भी मातृ रूप में देखने का प्रयास करता है। गुरू तत्व या ब्रह्म का तो कोई रूप होता है नहीं, जिसने जिस रूप में देखा उसे उसी प्रकार का अनुभव हुआ। साधक के अन्दर भी एक शिशु छुपा होता है, जिससे वह विराट सत्ता को मातृ रूप में देखने को आतुर होता है। उस विराट शक्ति को मातृ स्वरूप में देखा गया, तो जगदम्बा का स्वरूप समक्ष आया और महाविद्याओं का नाम आया। समस्त चराचर जिस गुरू तत्व से गतिमान है, उसी गुरू तत्व की शक्तियां ही तो हैं ये दस महाविद्यायें, जिन्हें काल, बगला, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, कमला, मातंगी, आदि के नाम से जाना जाता है।
जीवन में गुरू के महत्व से मैं विशेष रूप से परिचित तो नहीं था, परन्तु उस परम शक्ति के अस्तित्व का मुझे एहसास अवश्य होता था। मैं उस ईश्वर को माँ के स्वरूप में ही देखना पसन्द करता था, ऐसा लगता था जैसे इस संसार को बनाने वाली परम सत्ता मातृ रूप में हल पल मेरी रक्षा अदृश्य रूप से करती रहती है। यही कारण था, कि देवी स्तुति और महाविद्याओं के क्षेत्र में मेरा रूझान भी था।
जंगलों और वनों में भटकते-भटकते कई वर्ष बीत चुके थे, साधनाओं के क्षेत्र में एक स्तर भी प्राप्त किया था, परन्तु मैंने सुन रखा था, कि साधनात्मक एवं आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम बिन्दु सिद्धाश्रम पहुँचना होता है। परन्तु सिद्धाश्रम पहुँचना इतना सरल नहीं है, यह भी मुझे ज्ञात था। हिमालय में स्थित इस दिव्य पुनीत तपोस्थली से ही समस्त ब्रह्माण्ड की गतिविधियों का सूक्ष्म रूप से संचालन होता है, सिद्धाश्रम संस्पर्शित किसी योगी की कृपा हो जाये, तब सिद्धाश्रम प्रवेश के लिये कई महाविद्या साधनाये तो सिद्ध होनी ही चाहिये।
तभी से मैं इस धुन में था, कि किन्हीं ऐसे महात्मा का दर्शन हो, जो महाविद्याओं के क्षेत्र में सिद्धहस्त हो। सन्यास जीवन के बहाव में मैं काशी भी पहुँचा और गंगा के उस पार तट पर भी कुछ दिन रहा। वहां मेरी मुलाकात एक सौम्य साधु से हुई, जो कि शरीर से बिल्कुल दुबले-पतले थे, परन्तु जिनके चेहरे पर एक अपूर्व तेज चमक रहा था। तट के समीप अन्य कुटियां भी थी जिनमें कुछ सन्यासी, तपस्वी रहते थे, परन्तु इस साधु से मैं भी कुछ अधिक आकर्षित सा हो गया था, जो दिन भर कुटिया के अन्दर ही रहते थे। केवल प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में गंगा स्नान के लिये ही बाहर आते थे, क्या खाते थे और क्या पीते थे कुछ पता नहीं था, क्योंकि कुटिया तो अन्दर से एकदम खाली ही थी। एक दिन मैं बहुत हिम्मत जुटा कर कुटिया के भीतर पहुँचा, तो वे पद्मासन में समाधिस्थ थे, उनके चेहरे पर असीम शांति झलक रही थी, पिछले कई दिनों से मैं उन पर नजर रखे था, किन्तु फिर भी मुझे उनका नाम ज्ञात न हो सका था। दो घण्टे तक मैं वही उनके पास ही बैठा रहा।
आंख खोलते ही उन्होंने मेरी ओर दृष्टि की और बोले-‘‘आओं बेटा मैं तो तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था’’ वे इस तरह बोल रहे थे, जैसे मुझसे चिर-परिचित हो जबकि मैं उनसे पहली बार मिल रहा था। बेटा शब्द उन्होंने कहा था और यह सुनकर मैं यंत्रवत् सा उठकर उनके चरणों की ओर झुक गया। उन्होंने कहा-‘‘पगले तू तो मेरा भाई है, शायद तुझे ज्ञात नहीं…..’’ और फिर उन्होंने बताया, कि पूर्व जन्म में हम दोनों एक ही गुरू के शिष्य रहे है, और काफी समय तक साथ रहे है। एक सुखद रहस्य का उद्घाटन हो रहा था मेरे सामने, मन में एक सुखद अनुभूति हो रही थी, कि मेरे कोई गुरू है……अभी तक तो मैं यो ही भटकता फिर रहा था, कोई पथ स्पष्ट नहीं था। आज ‘‘पूर्व जन्म के गुरू’’ ये शब्द कान में आते ही मन हिलोरे लेने लगा था और मैं एक अजीब खुमारी में डूब गया।
कुछ दिन और उन साधु महाराज के साथ रहा, जिनका नाम चैतन्यानन्द था और वे काली के उपासक थे। उन्होंने काली तंत्र के क्षेत्र में अनेक आयाम स्थापित किये थे। यह मेरे लिये बड़े हर्ष की बात थी क्योंकि महाविद्या साधनायें सिद्ध करने के लिये मैं कब से प्रयासरत था, परन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में अभी कुछ ठोस हासिल नहीं कर पाया था।
चैतन्यानन्द जी ने बड़ी आत्मीयता से काली से सम्बन्धित गोपनीय रहस्य स्पष्ट किये और बताया कि किस तरह मातृरूप में हर पल उनकी रक्षा करती रहती हैं।
कुछ दिन उनके साथ और रहकर मैं गढवाल क्षेत्र के वन-प्रान्तरों में चला गया, वहां के सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों के मध्य मैं उसी प्रकार शांत हो गया जैसे शिशु अपनी माता के पास पहुँचकर शांत हो जाता है। पहाड़ी वृक्षों के घने झुरमुटों को पार करने पर आगे एक जलाशय था, जिसके पास एक प्राचीन मन्दिर। मन्दिर के पत्थर बरसाती पानी और मौसम के प्रतिकूल प्रभाव के कारण काले पड़ गये थे।
मन्दिर में काले पत्थर की एक तीन फुट की मूर्ति के अलावा और कुछ भी नहीं था। मूर्ति पर इतनी अधिक धूल जमी हुई थी, जिसे पहचानना मुश्किल हो रहा था, कि मूर्ति किसकी है। गर्द को साफ करने के बाद मैंने गौर किया, तो मूर्ति काली की थी, एक हाथ में मुण्ड और दूसरे हाथ में खप्पर-शव पर आरूढ़ भगवती काली ही थी। एकदम से मुझे कुछ दिन पूर्व श्री चैतन्यानन्द जी के साथ बितायें क्षणें का स्मरण हो आया और मैंने काली साधना करने का मानस बना लिया।
दो माह से ऊपर हो गया था और इन दो महिनों में चार बार असफलता मुझे प्राप्त हो चुकी थी और इस बार मैंने सोच लिया था, कि या तो साधना सफल होगी और नही तो अब मैं यहां से प्रस्थान कर जाऊंगा। आज साधना का अन्तिम दिवस था और मैं हताश था, मन में कभी चैतन्यानन्द जी के प्रति आक्रोश आ रहा था, कि पता नहीं उनकी विधि प्रामाणिक है भी या नहीं और कभी स्वयं पर क्रोध आ रहा था, कि किस धुन में मैनें इस उपक्रम को आरम्भ करने का निश्चय किया था। अन्तिम आहुति तक भी मन में कुछ आशा थी, कि शायद कुछ घटित हो जाये लेकिन इस बार भी पहले जैसा ही हुआ। निराश होकर मैं मन्दिर के बाहर चला गया और तारों को निहारता रहा।
मनो-मस्तिक में चैतन्यानन्द जी के कहे वाक्य भी कौंध रहे थे, कि ‘तुम्हारे गुरू’………..और यदि वे गुरू है, और जन्म-जन्म के गुरू है, तो क्यों नहीं सम्मुख आ रहे है और मार्गदर्शन कर रहे है, मैं नही मन बड़-बड़ा रहा था। जिस प्रकार भूख लगने पर बालक शोर मचाता है, और माँ कभी कभी मजा लेने के लिये उसकी ओर ध्यान नहीं देती तो बालक क्रोधित हो जाता है, उसी प्रकार मुझे भी क्रोध आ रहा था। मुझे क्रोध न तो चैतन्यानन्द जी पर आ रहा था, और न ही देवी काली पर बल्कि मुझ क्रोध आ रहा था अपने पूर्व जन्म के गुरू पर जो मुझे निर्देश नहीं दे रहे थे।
रात्रि के उस गहन पहर में जहां चारों ओर निःस्तब्धता छाई थी, हवा बिल्कुल रूकी हुई थी, शान्ति इतनी अधिक थी, कि दूर से झिंगुरों की आवाज भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। परन्तु मेरे अर्न्तमन में जो तूफान मचा हुआ था, उससे मैं बिल्कुल उद्वेलित हो गया था, क्रोध और खींझ के मिले-जुले आवेश में आकर में उस काली की मूर्ति को जलाशय में फेंक देने को उद्धत हुआ। मूर्ति जैसे ही जल में गिरी, एक तीव्र प्रकाश सा हुआ, जैसे सैकड़ो बम एक साथ फट पड़े हो, उस प्रकाश में से एक नारी बिम्ब बाहर निकला, हूबहू वही काली की उस मूर्ति का साकार रूप था, हाथ में खप्पर व मुण्ड, गले में मुण्ड माला धारण किये माता काली सौम्य मुखमुद्रा में मेरे सामने करीब पचास फुट की दूरी पर जलाशय के मध्य, जल सतह से कुछ ऊपर हवा में स्थिर थी। विस्फोंटों की श्रृंखला चलती रही और क्रमशः एक के बाद एक दसों देवियां सम्मुख उपस्थित होती गयी, उन सभी के वरद हस्त आशीर्वाद मुद्रा में उठे हुये थे। यह अलौकिक दृश्य देखकर विस्मय से मेरी आँख फटी जा रही थी।
पिछले दो माह से मैं ध्यान लगाकर कोई बिम्ब सामने लाने की कोशिश कर रहा था, परन्तु ध्यान में स्थिरता नहीं आ पाती थी और आज संयोग था, कि जब मैं खीझ कर मूर्ति को जल में फेंक चुका था, तब वह आलौकिक दृश्य मेरे सामने उपस्थित हो गया। कहां एक महाकाली की साधना के लिये मैं उद्धत हुआ था, और कहां दसों महाविद्याये मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दे रही थी। गुरूदेव पर आया क्रोध (शिशुवत) अब उनके प्रति प्रेम और समर्पण में परिवर्तित हो चुका था, अश्रु मेरे नेत्रों से धारा प्रवाह बह निकले, अब मन में बस यही इच्छा शेष रइ गई थी, कि मेरे गुरूदेव कैसे होंगे, कैसा होगा उनका स्वरूप और बस रूदन ही करता रहा मैं, एक शिशु की भाँति।
जलाशय में पुनः एक विस्फोट हुआ, जिससे मेरा ध्यान उधर गया, अन्यथा मैं तो गुरूदेव के ख्यालों में महाविद्याओं को एकदम भूल ही गया था। एक-एक दसों देवियां उस प्रकाश पूँज में ही विलीन हो गयी, तब पूँज एक पुरूषाकृति में परिवर्तित हो गया- दिप-दिप करते नेत्र, उन्नत ललाट, विशाल अनावृत वक्षस्थल, सुदृढ़ बाहु, सिर पर घनी जटायें और ऊँचा गौर वर्णीय शरीर मानो पुरूषत्व का अन्तिम स्वरूप धारण कर कोई योगी इस जलाशय की सतह पर उतर आया हो।
उन्हें देख कर मेरे अन्दर एक विद्युत तरंग सी दौड़ गई, मुझे जैसे अन्दर से कोई कह रहा हो, कि यही तेरे गुरू है, जन्म-जन्म से गुरूदेव, सिद्धाश्रम के प्राणाधार परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी, जिनके दर्शन को देवता भी तरसते है। शायद मेरे मन की बात को वे समझ चुके थे, और मुस्कराते हुये जलराशि पर सामान्य रूप से चलते हुये किनारे पर आ गये। बिना एक क्षण गवायें मैंने साष्टांग मुद्रा में उन्हें प्रणाम किया और लिपट कर उनके चरणों में फफक कर रोने लगा।
अभी तक न उन्होंने मुझसे कुछ कहा था और न मैंने कुछ कहा था, ऐसा लग रहा था जैसे जन्मो-जन्मों से जो मेरे गुरू रहे है, माँ-बाप और पालनहार रहे है, आज मुझे मिल गये है और अब मैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहता था। तभी पूज्य गुरूदेव की हथेली का मुझे पीठ पर स्पर्श हुआ, वे बड़े प्यार से मेरी पीठ सहलाते रहे। उनका वात्सलय भाव पूरी तरह मेरे ऊपर बरस रहा था।
पुचकारते हुये उन्होंने मुझे उठाया और कहा, पगले! क्यों इतना विचलित हो रहा है, तुझे महाविद्या सिद्ध करनी थी न, बोल अब तो प्रसन्न है न?
प्रारम्भ में मै जिस ईश्वरी सत्ता को मातृ रूप में स्मरण करता था, अप्रत्यक्ष रूप से निकंट अनुभव करता था, उन्हीं का स्नेहित स्पर्श आज पूज्यपाद गुरूदेव के रूप में मुझे प्राप्त हो रहा था। मैं समझ चुका था, कि समस्त महाविद्याये इन्हीं में समाहित है और ये दृश्य तो कुछ क्षणों पूर्व मैं देख चुका था, कि कैसे एक-एक कर दसों देवियां गुरूदेव के भव्य शरीर में अदृश्य हो गई।
मेरे नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित होती ही जा रहीं थी। गुरूदेव ने संयत पद्मासन में बैठने का आदेश दिया नेत्रों को अर्द्ध निमीलित कर मैं बैठ गया, दो क्षण उपरान्त पूज्य गुरूदेव के अंगुष्ठ का स्पर्श मुझे मस्तक पर अनुभव हुआ। शरीर मुझे एकदम हल्का सा लगने लगा और मैं बिल्कुल ध्यानस्थ हो गया।
जब मेरी समाधि टूटी तो सूर्य नारायण उदित होने जा रहे थे। मैं पुलकित हो रहा था, रात्रि की बीती घटनाओं को स्मरण कर समस्त महाविद्याओं के पूंजीभूत परमहंस निखिलेश्वरानन्द जी को गुरूदेव रूप में प्राप्त कर मैं धन्य-धन्य हो गया था।
इस साधना को किसी भी गुरूवार, किसी भी महाविद्या जयंती से अथवा नवरात्रि पर्व के समय प्रारम्भ किया जा सकता है। यह रात्रि के समय ही सम्पन्न की जाने वाली साधना है। यदि रात्रि में इसे सम्पन्न न करें, तो इसे ब्रह्म मुहुर्त में सूर्योदय के पूर्व भी सम्पन्न किया जा सकता है।
पूर्व की ओर मुख कर बैठें। सामने चौकी पर गुरू चित्र स्थापित करें, अगरबती, धूप-दीप जलाकर अपनी दाई और रखें। साधना हेतु ‘विजय सिद्धि माला’, दस महाविद्या यंत्र एवं ‘गुरू गुटिका’ प्राप्त कर ले। गुरू चित्र का पूजन करें।
दोनों हाथ जोड़कर पूज्य गुरूदेव का ध्यान करें-
निम्न मंत्र पढ़ते हुये दाहिने हाथ से अंगों का स्पर्श करें-
ऊँ अं आं कं खं गं घं डं इं ई हृदयाय नमः
ऊँ परम् उं ऊं चं छं जं झं त्रं ऋं शिरसे स्वाहा।
ऊँ तत्वाय टं ठं डं ढं णं लृं लृं शिखाये वषट्
ऊँ नारायणाय एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुम्
ऊँ गुरूभ्यो आं पं फं बं भं मं ओं नेत्र नत्राय वौषट्
ऊँ नमः अं यं रं लं वं शं सं सं हंलं क्षं अः अस्त्राय फट्
श्रीमद् गुरूं निखिलेश्वरम् आवाहयामि पूजयामि नमः।
पुष्पासनं दद्यात् पाद्य, अर्घ्यं, स्नानं समर्पयामि नमः
तिलकं समर्पयामि नमः, धूपं दीपं, नैवेद्यं, च समर्पयामि नमः
सर्वप्रथम गुरू आवाहन कर गुरू चित्र के नीचे पुष्प आसन दें जल अर्पण करें तथा अगरबती दीपक स्थापित कर नैवेद्य अर्पित करें।
फिर एक माला गुरू मंत्र का जप सम्पन्न करें। तत्पश्चात् गुरू चित्र के सामने किसी प्लेट पर ‘दस महाविद्या यंत्र’ को जो कि दिव्य मंत्रो से प्राण प्रतिष्ठित हो स्थापित करें-
निम्न मंत्र बोलते हुये सभी दिशाओं में अक्षत फेंके-
ऊँ गुरूभ्यो महाकाली मां पूर्वतो पातु
ऊँ गुरूभ्यो भगवती तारा आग्नेय मां पातुं।
ऊँ गुरूभ्यों षोडशी दक्षिणे मां पातु।
ऊँ गुरूभ्यो भैरवी नैऋत्ये मां पातु।
ऊँ गुरूभ्यो छिन्नमस्ता वायव्ये मां पातु।
ऊँ गुरूभ्यो मातंगी उतरे मां पातु।
ऊँ गुरूभ्यो धूमावती ऐशान्ये मां पातु।
ऊँ गुरूभ्यो बगलामुखी ऊर्ध्वे मां पातु।
ऊ गुरूभ्यो कमलात्मिका भूमौ मां पातु।
फिर यंत्र को शुद्ध जल से स्नान करावें, तिलक, अक्षत, दीप, पुष्प से पूजन करें, फिर अक्षत को कुंकुंम में मिलाकर निम्न मंत्र को बोलते हुये यंत्र पर चढ़ावें।
ऊँ महाकाल्यै नमः – महाकालीं स्थापयामि नमः
ऊँ तारायै नमः – तारां स्थापयामि नमः
ऊँ षोडश्यै नमः – षोडशीं स्थापयामि नमः
ऊँ त्रिपुर भैरव्यै नमः – भैरवीं स्थापयामि नमः
ऊँ भुवनेश्वरायै नमः – भुवनेश्वरीं स्थापयामि नमः
ऊँ छिन्नशिरायै नमः – छिन्नमस्तकां स्थापयामि नमः
ऊँ मातंग्यै नमः – मातंगी स्थापयामि नमः
ऊँ धूमावत्यै नमः – धूमावतीं स्थापयामि नमः
ऊँ बगलायै नमः – बगलां स्थापयामि नमः
ऊँ कमलायै नमः – स्थापयामि नमः
इसमें गुरू गुटिका को यंत्र के बायीं ओर चावल की ढेरी बनाकर स्थापित करें, फिर पंचोपचार पूजन करें, फिर दोनों हाथ में पुष्प लेकर यंत्र पर निम्न मंत्र बोलकर चढ़ावें।
फिर ‘विजय सिद्धि माला’ से निम्न मंत्र का 7 माला जप नित्य 11 दिन तक सम्पन्न करें-
11 दिन बाद यंत्र को जल में प्रवाहित कर दें, गुटिका को लाल कपडे में बाँध कर पूजा स्थान में रखें तथा माला को धारण कर लें। छः माह की अवधि में नित्य मात्र एक बार इस साधना के मंत्र का उच्चारण कर लिया करें।
इस साधना को सम्पन्न करते समय कई प्रकार के बिम्ब नेत्रों के समक्ष दिखाई देते है, इस स्थिति में विचलित होने की आवश्यकता नहीं है, गुरू सायुज्य महाविद्या साधना मातृस्वरूपा साधना है और जिस प्रकार मां अपने बालक का हर प्रकार से ध्यान रखती है, उसी प्रकार उस साधना में गुरू अपने शिष्य का हर प्रकार से ध्यान रखते हैं।
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