पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋषि कश्यप व उनकी दैत्य पत्नी दिति के दो जुड़वा संतानें थी हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष। कहा जाता है कि उनके जन्म के समय पृथ्वी कांप उठी थी, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठने लगी, भीषण हवाएं चलने लगी, मानो प्रलय आ गई हो। वे दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए और अन्य प्राणियों पर अत्याचार करने लगे। दोनों ही अत्यन्त बलवान थे किन्तु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे और अधिक शक्तिशाली बनकर संसार में अजेय अमरता को प्राप्त करना चाहते थे। इसलिए इन दोनों भाईयों ने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। जब ब्रह्मा जी प्रकट हुए तो वरदान में इन्होंने ऐसा वर मांगा जिसमें उन्हें कोई युद्ध में न तो पराजित कर सके और न ही कोई मार सके। भगवान ब्रह्मा से अजेय-अमरता का वरदान प्राप्त कर हिरण्याक्ष और अधिक दंभी, स्वेच्छादारी और उद्यंड हो गया। वह इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने अकेले ने समस्त देवताओं को पराजित कर दिया। एक बार उसने अपने पराक्रम के बल पर पृथ्वी को पकड़ लिया तथा समुद्र में जल (भवसागर) में गहराई में डूबो दिया, इससे चारों ओर हाहाकार मच गई तथा पृथ्वी जलमग्न हो गई।
हिरण्याक्ष के इस कृत्य से भयभीत होकर समस्त देवता भगवान ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा जी ने इस समस्या के समाधान, पृथ्वी को बचाने तथा धर्म की पुनर्स्थापना हेतु भगवान विष्णु का ध्यान किया। इसके पश्चात् भगवान विष्णु ने सूक्ष्म रूप में भगवान ब्रह्मा की नासिका से जन्म लिया तथा देखते ही देखते अपना आकार अत्यन्त विशाल कर लिया। उनका मुख एक भयानक जंगली सुअर के रूप में था और दो बड़े-बड़े दांत निकले हुए थे। वे अत्यन्त क्रोध में फंफकार भर रहे थे।
भगवान ब्रह्मा की नासिका से उत्पन्न होने के कारण उनकी सूंघने की शक्ति अत्यन्त प्रबल थी। इसके पश्चात् उन्होंने भवसागर में पृथ्वी को ढूंढना शुरू किया तथा अंत में सूंघकर उसका पता लगा लिया। वे समुद्र की गहराई तक गए तथा अपने दांतों की सहायता से उसे जल से बाहर ले आये।
ठीक उसी समय हिरण्याक्ष ने वरूण देव को युद्ध के लिए ललकारा, इन्द्रलोक पर अपना राज स्थापित करने के पश्चात् दैत्य हिरण्याक्ष वरूण नगरी को भी युद्ध में जीतना चाहता था। वरूण देव ने कहा कि अब उनके अंदर युद्ध करने की इच्छा और सामर्थ्य नहीं है, उन्होने हिरण्याक्ष को भगवान विष्णु से युद्ध करने को कहा।
यह सुनकर हिरणयाक्ष युद्ध के लिये भगवान विष्णु को ढूंढने लगा। इसके लिये उसने देवर्षि नारद से उनका स्थान पूछा, जहां जाकर के विष्णु जी को युद्ध के लिये ललकार सके देवर्षि नारद ने बताया कि भगवान विष्णु इस समय वराह के रूप में पृथ्वी को गहरे समुद्र से निकाल रहे है। यह सुनकर हिरण्याक्ष तुरंत उसी स्थान की ओर निकल पड़ा क्योंकि ये कृत्य उसी का था। पहुंचने पर उसने देखा कि श्री विष्णु वराह अवतार में पृथ्वी को ले जा रहे हैं। हिरण्याक्ष ने भगवान वराह को युद्ध के लिये ललकारा और उनके बीच भीषण युद्ध भी हुआ। वराह रूप में भगवान ने अपने दांतों एवं जबड़ों से हिरण्याक्ष का पेट चीर दिया और पृथ्वी को फिर से अपने स्थान पर सुरक्षित स्थापित कर दिया और एक नये कल्प की शुरूआत की।
इस वर्ष वराह जयंती 17 सितम्बर को है। यदि किसी को डरावने स्वप्न आते हो या प्रेत बाधा या तंत्र दोष हो तो भगवान विष्णु की इस रूप में पूजा, वराह कथा, वराह स्तोत्र का पाठ, वराह कवच धारण करने से, उनका ध्यान करने से इन समस्याओं का अंत होता है। साथ ही शत्रुओं पर विजय व पिछले जन्म के पाप-दोषों से मुक्ति मिलती है व आगे का जीवन सुखी व सम्पन्नता युक्त व्यतीत होता है।
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