वही जीवन सफल है, जो सर्वदा आशा की किरणों से लहलहाता रहता है, जिसमें निराशा के तमसावृत्त बादलों का कोई स्थान नहीं होता। जीवन में निराशा, हार, असफलता एवं दुखों की प्राप्ति पर घबराने से काम नहीं चलेगा, प्रत्युत आशा, विश्वास, साहस और दृढ़ता से उनका सामना करना होगा, ठोकर खाकर भी संभलते रहना होगा, भूल भी हो जाये तो पश्चाताप तथा मनोयोग से उसे सुधारने का प्रयास करना होगा, तब हार जीत में बदल जायेगी, निराशा के घने बादलों में आशा की किरण रश्मियां जगमगा उठेंगी, असफलता और दुःख की शुष्क भूमि पर सफलता एवं सुख की लता लहलहाकर जीवन को आनन्द से परिपूर्ण कर देंगी। इसे ही आत्म-विश्वास एवं साहस का चमत्कार कहा जाता है।
सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम बहुधा निराश हो अपना उत्साह एवं आत्म विश्वास खो बैठतें हैं। यदि हम असफलताओं से घबरायें नहीं, दुःख कष्टों में भी साहस का सम्बल न छोड़े, विपत्ति में भी धीरज से काम लें तो निश्चय ही हमारे जीवन का प्रवाह आनन्द-प्रसन्नता से भर जायेगा। सफलता हमारी सहचरी बन जायेगी। अव्यवस्थित चित्त से चलने वाला मनुष्य ही पराजय के गर्त में गिरता है। ठोकर खाकर संभलने की एवं गिरकर उठने की चेष्टा ही सफलता का सोपान है।
एक विद्वान के उद्गार हैं- बीते समय पर आंसू बहाना कायरों का काम है। परिस्थितियों को कोसना अपने को धोखा देना है। इस प्रकार से अपनी शक्ति अपव्यय मत कीजिये। सदा नयी आशा, दृढ़ विश्वास एवं साहस का सम्बल लेकर कार्य करते रहिये। सफलता के दीपक की ज्योति से निश्चय ही आपका जीवन जगमगा उठेगा।
यह संसार एक तीव्र बहाव वाली पथरीली नदी के समान है, जिसे उत्साह एवं मनोयोग पूर्वक कार्य करते हुये साहस एवं शक्ति से पार करने का प्रयास करते रहने पर ही विजय मिलती है। जीवन को स्वास्थ्य, ऐश्वर्य, शक्ति और ज्ञान से सम्पन्न एवं परिपूर्ण बनाकर ही हम रोग-शोक रूपी पत्थरों से बचकर संसार रूपी नदी को सुगमता से पार कर सकेंगे।
विघ्न-बाधाओं के उपस्थित होने पर हमारे हृदय में नवीन उत्साह एवं नयी उमंगों की जागृति होनी चाहिये। ये हमारे लिये अभिशाप नहीं, अपितु वरदान हैं। विघ्नों के रूप में प्रकृति हमें यह ज्ञान देती है कि जो परिस्थितियां हमारे चारों ओर उपलब्ध हैं, उनका अधिकाधिक सदुपयोग कर अपनी छिन्न- भिन्न शक्तियों को निश्चित लक्ष्य और उद्देश्य की ओर केन्द्रित करें।
सफलतायें बिना संघर्ष किये नहीं मिलतीं, कोई भी मंजिल बिना भटके प्राप्त नहीं होती, कोई भी उद्देश्य बिना परिश्रम किये पूरा नहीं होता, हमारे सतत प्रयास में ही जीवन की सफलता निहित है। सुख, शान्ति, स्वास्थ्य और सम्पन्नता, सभी परिश्रम के अधीन है। जीवन उसी का सुखमय एवं सफल है, जो सतत कार्यरत है, सदैव परिश्रम करता रहता है।
मानसिक निर्बलता से जीवन में दुःख, निराशा और शुष्कता का समावेश हो जाता है, इसलिये आत्मा की शक्ति को समझकर मन को इतना सबल बनायें कि जीवन के संघर्षों में विचलित न हो, विघ्न-बाधाओं से घबरायें नहीं, अपितु हंसते हुये उनका सामना करें। दुःखों से जूझना, लड़ना और संघर्ष करना सीखें, स्वयं के भीतर ऐसी जीवट शक्ति उत्पन्न करें, जिसके बल-बूते आप सफलता की नवीन ऊंचाईयों को हस्तगत कर सकें।
जीवन निरन्तर परिवर्तनशील है, निरंतर बदलता रहता है, जिस प्रकार दिवस, माह, वर्ष बदलता रहता है, उसी प्रकार मनुष्य के मन, विचार, भावना व देह में भी अनेक बदलाव होते रहते हैं, अनेक विकार समाप्त होते हैं तो वहीं नये विकारों की उत्पत्ति भी होती है। उम्र के साथ ही अनुभव, योग्यता व कौशल का भी विकास होता है।
इसीलिये उचित परिवर्तन अपने भीतर उतारने के लिये आपको साक्षी भूत होना पड़ेगा, उस ऊर्जा शक्ति, सम्बन्ध, दीक्षा से जो आपके साथ जन्म-जन्मातर से बना हुआ है। इस जगत में जन्म लेते ही अनेक रिश्ते जुड़ जाते हैं, नूतन रिश्ते बनते रहतें है, लेकिन गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जन्म-जन्मातर तक चलता रहता है और सही मायने में यही एकमात्र ऐसा सम्बन्ध है, जो जीवन को तृप्ति दे सकेगा और ऐसे ही सम्बन्ध में नित्य प्रतिपल जो आत्मीयता की सरिता मूक ध्वनि, अनहद के साथ प्रवाहित होती रहती है, वही वास्तव में किसी भी उत्सव की आधार भूमि होती है। इसीलिये गुरु व शिष्य के बीच नित्य नूतन उत्सव सृजित होते रहते हैं।
गुरु शब्द जीवन का सर्वश्रेष्ठ आभूषण है, जो जीवन को सभी तरह के अलंकारों से विभूषित कर देता है, जिसका तात्पर्य तन-मन और जीवन के अन्धकार को दूर कर साधक के जीवन को प्रकाशमय बनाना होता है।
भारतीय शास्त्रों में तीन महान देवता बताये जाते हैं- ब्रह्मा, विष्णु, महेश। इसी प्रकार सांसारिक जगत के भी तीन महान देवता हैं- जिन्हें माता-पिता व गुरु कहा गया है। भगवान ब्रह्मा रचना करते हैं अर्थात् जन्म प्रदान करते हैं, इसलिये माता को ब्रह्म स्वरूपा कहा गया है, भगवान विष्णु पालन-पोषण कर्ता हैं, इसलिये पिता को विष्णु की संज्ञा दी जाती है, भगवान शिव को सभी देवों में सर्वश्रेष्ठ महादेव कहा जाता है, सांसारिक जगत में गुरु को महादेव ही माना गया है, क्योंकि गुरु साधक के आत्मा का सृजन करते हैं, सही शब्दों में कहा जाये तो उसको पूर्णता प्रदान करते हैं।
माता-पिता केवल शरीर को जन्म देते हैं और उसका पालन-पोषण करते हैं। जबकि गुरु उसकी आत्मा का सृजन करता है, उसे संस्कार-कुसंस्कार, पवित्रता-अपवित्रता, सफलता, असफलता और जीवन जीने की कला का ज्ञान गुरु से ही प्राप्त होता है और इसी ज्ञान के आधार पर उसके जीवन का निर्माण होता है।
और यह ज्ञान शिष्य में गुरु अपनी चेतना शक्ति द्वारा प्रतिपादित करता है, जीवन के असंस्कारी तत्व दूर करता है, जिससे शिष्य का जीवन चैतन्य तथा निर्मल बन जाता है। जब उसका मन इन संस्कारों से शुद्ध और पवित्र हो जाता है, गुरु की चेतना को अपने अन्दर आत्मसात कर लेता है, तब वह नर से नारायण की यात्रा पर अग्रसर होने लगता है। साधक के जीवन का, उसकी आत्मा का विकास होने लगता है, उसके द्वारा किये मंत्र सिद्ध होने लगते हैं और वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।
नववर्ष पर्व पर कैलाश गुरुदेव के आर्शीवचनों के माध्यम से सद्गुरुदेव भगवान के विराट ज्ञान, चिन्तन को अपने अन्दर आत्मसात करने की क्रिया शिष्य-साधक दृढ़ भावना के माध्यम से प्राप्त कर सकेंगे।
जीवन व अध्यात्म का लक्ष्य निःसंदेश उसी अर्थवान आनन्द की प्राप्ति है, जिसे कही परमानन्द तो कहीं ब्रह्मानन्द अथवा कहीं दर्शन के रूप में वर्णित किया गया है। गुरुदेव द्वारा शक्तिपात की क्रिया शिष्य के लिये स्नेह स्पर्श होता है और उसी क्रिया के माध्यम से वह देव दुर्लभ क्रिया सम्पन्न होती है, जिसे शास्त्रकारों ने दीक्षा कहा है। इस नववर्ष पर होने वाली यह दीक्षायें नित्य घटित होने वाली कोई सामान्य सी क्रिया नहीं अपितु राज योग पूर्णता प्राप्ति दीक्षा से शिष्य के जीवन में व्याप्त अशुभ, अमंगल, असफलता, निराशा, शुष्कता को पूर्णरूपेण समाप्त करने की क्रिया है। जिसे आत्मसात कर निश्चित रूप से जीवन सभी सुमंगलमय चेतनाओं से आप्लावित हो सकेगा।
शि- स्थलः त्रिवेणी भवन, व्यापार विहार रेलवे स्टेशन व नये बस स्टैण्ड से 2 किमी की दूरी पर बिलासपुर छ-ग
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