ऐसे तो स्वर्ण अनेकों रूप धारण कर सकता है, परन्तु कोई भी रूप स्वर्ण नहीं हो सकता। स्वर्ण का रूप बदला जा सकता है परन्तु उसका स्वभाव स्थिर ही रहेगा। स्वर्ण के जो गुण हैं, स्वभाव है वह बदल नहीं सकते, क्योंकि वह स्थिर है, बदलता है तो केवल उसका रूप, आकार।
जगत में जो भी दिखाई पड़ता है वह सब रूप है। जिस पर यह रूप प्रगट होता है वह रूपमुक्त होता है। उस रूपमुक्त की ही खोज को सत्य की खोज कहा गया है। उसे खोजने के लिये रूप का त्याग करना पड़ता है… सब रूपों को छोड़ना पड़ता है, सब उपाधि छोड़नी पड़ती है, सब सीमाओं को तोड़ना पड़ता है, तब ही उस असीम और अनंत और शाश्वत के निकट पहुंचा जा सकता है।
जिस प्रकार एक बीज है वह आज बीज के रूप में है, कल वह पौधे का रूप हो जायेगा। जो बीज वृक्ष हो सकता है, उस बीज में जरूर कुछ निराकार छिपा है, जो बीज का आकार भी ले लेता है, कभी वृक्ष का आकार भी ले लेता है। उस अकेले एक बीज से संसार के सारे वृक्ष पूरी पृथ्वी को भर सकते हैं। एक बीज से एक वृक्ष पैदा होता है और उस वृक्ष पर करोड़ों बीज लग जाते हैं और फिर उन करोड़ो बीज को बोने पर एक-एक बीज से करोड़ो-करोड़ो बीज उत्पन्न हो जाते हैं। एक बीज पूरी पृथ्वी को वृक्षों से भर सकता है। इतना एक बीज में छिपा होता है, तो आकार में नहीं छिपा हो सकता है। क्योंकि एक बीज अनंत बीजों को पैदा कर सकता है। तो जो बीज का आकार है वह हमारी भ्रांति है, बीज का स्वरूप तो निराकार है। जहां भी आकार दिखाई पड़ता है, वहां हमारे कारण आकार दिखाई पड़ता है।
तो वस्तुत: हम बहार जब भी खोजने जायेंगे, हमें रूप ही मिलेगा, अरूप नहीं। अगर अरूप को हमें खोजना है तो हमें भीतर जाना पड़ेगा और भीतर प्रवेश करते ही हम निराकार में प्रवेश कर जाते हैं।
सत्य तो बाहर भी है, सत्य तो भीतर भी है, परन्तु मनुष्य को पहले सत्य को भीतर ही जानना होता है। जिस दिन भीतर वह जान लेता है निराकार को, उस दिन बहार भी निराकार ही रह जाता है। उस दिन आकार सिर्फ ऊपर से बैठी हुई आकृतियां रह जाती है- जो हमारी दी हुई आकृतियां हैं।
यह जो निराकार है, यह जो सत्य है, ज्ञान है, अनंत है, आनन्द रूप है, उपाधि रहित है, शुद्ध सोने जैसा ज्ञान और चैतन्य है, ऐसा जब चैतन्य का भाव होता है, तब यह सूत्र बहुत किमती है… ऐसे चैतन्य का जब भाव होता है तब उसे ‘त्वम्’ कहकर पुकारा जाता है, ‘तू’ कहकर पुकारा जाता है, मैं कहकर नहीं- केवल तू, त्वम्।
जिस दिन किसी ऐसे निराकार सत्य का अनुभव होता है, उस दिन उसे मैं कहने का कोई उपाय नहीं रह जाता, क्योंकि मैं की तो सीमा है और जिसको हमने अब तक मैं कहा था वह तो बचता ही नहीं। मैं कहें या तू कहें। मैं नहीं कह सकते, क्योंकि मैं जब मिटता है तभी इस निराकार का अनुभव होता है। इसलिये एक ही उपाय बचता है असमर्थ भाषा के पास कि इसे तू कहें। इसलिये भक्तों ने परमात्मा को तू कहा है, उसे त्वम् कहा है।
अत: जिस व्यक्ति को ऐसे शुद्धतम निराकार, उपाधिरहित चैतन्य की जब प्राप्ति होती है, तब उसे त्वम्, तू कहा जाता है और यह तब होता है जब उसे परमात्मा का अनुभव होता है।
जहां तू केन्द्र पर होता है और मैं परिधि बन जाता है। जहां स्वयं को विसर्जित कर देने की और समर्पण कर देने की ही प्यास शेष रह जाती है- एक ही अभिलाषा रह जाती है कि तू के लिये मैं को कैसे विसर्जित करें! यह भक्त की अवस्था है, धार्मिक व्यक्ति की अवस्था है। तू रह जाता है, मैं क्षीण होता चला जाता है, मैं पतली परिधि बन जाता है, तू केन्द्र हो जाता है। यह निर्अहंकार भाव है।
त्वम् शब्द उस शिष्य के लिये उपयोग किया जाता है, जो सीखने बैठा है, जिज्ञासा करने बैठा है, जब उसे शुद्धतम चैतन्य जाना जाता है, तब उसे तू नाम दिया जाता है। यह तू शब्द प्रीतिकर भी है, सत्य के निकटतर भी है और अगर कोई व्यक्ति इस तू के आस-पास जीवन को जीने लगे, तो अत्यंत क्रांतिकारी भी।
अगर कोई व्यक्ति इतना भी स्मरण रख सके सतत श्वास लेते-छोडते कि मैं नहीं हूं तू है, तो सिर्फ कुछ ही दिनों में उसे पता लगेगा कि चित्त के सारे तनाव विसर्जित हो गये, चित्त का सारा संताप गिर गया, चिंता खो गयी, क्योंकि चिंता के लिये, संताप के लिये, तनाव के लिये मैं की खूंटी बिलकुल जरूरी है, उसी पर टंगती हैं ये चीजें, उसके बिना नहीं टंग सकती। अगर इतना ही भाव गहन होता चला जाये कि मैं नहीं हूं, तू ही है, तो एक दिन निश्चित ही आप पायेंगे कि चिंतित होना मुश्किल हो गया। करना भी चाहें तो नहीं कर सकते हैं, क्योंकि चिंता मैं की छाया है और निश्चिंत तू की छाया है। तू का भाव प्रगाढ़ हो जाये कि तू ही है, तो निश्चिंतता अपने आप फलित हो जाती है।
साधक जब अपना मैं त्याग कर, मैं के रूप में अपने अहंकार को त्याग कर, अपने इष्ट देव स्वरूप सद्गुरू में जा मिलता है, वह त्वम् ‘गुरू’ पर निर्भर हो जाता है तो उसे उक्त किसी भी व्यथा, चिंता, परेशानी जैसी किसी भी मलिन व कुस्थितियों का सामना कभी नहीं करना पड़ता। साधक को चाहिये कि वह त्वम् को अपना कर अपने सद्गुरू को समर्पित हो जाये फिर निश्चित ही परमात्मा को अनुभव करने का पात्र बन जाता है। जिसके पश्चात् जीवन में पाने को, जानने को, अनुभव करने को कुछ शेष नहीं बचता। ऐसी स्थिति को जीवन में पूर्णता प्राप्त करना कहा जाता है।
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