जीवन की यथार्थ परिभाषा तो ये है कि जीवन में जितना शीघ्र हो सके सद्गुरूदेव जी की खोज करके उनके माध्यम से अपने जीवन का लक्ष्य समझ कर उसकी प्राप्ति में सचेष्ट हो जाना ही जीवन है। यह बात तो प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि ईश्वर में लीन हो जाना जीवन का परम लक्ष्य है किन्तु यह लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा, उस पथ पर चलने के लिये ऊर्जा कहां से प्राप्त होगी- सद्गुरूदेव जी ही व्यक्त कर सकते हैं।
मंत्र-तंत्र और यंत्रों के इस विशाल समुद्र में अवगाहन करने का प्रयोजन सिद्धि होता है। यह सिद्धि किसी को शीघ्र तथा किसी को बहुत अधिक प्रयास करने के बाद भी नहीं मिलती, वे साधनाओं को भ्रम जाल ही मान लेते हैं। परन्तु यह सत्य नहीं है, यदि किसी को मंजिल नहीं मिलती तो इसका यह अर्थ नहीं है, कि मंजिल है ही नहीं। हां यह अवश्य सत्य है, कि मंजिल तक का रास्ता लम्बा था और वहां तक पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति निराश हो गया। दैवीय कृपा अथवा हृदय भाव में देवतत्व जागरण नहीं होने के कारण ऐसी स्थितियां आती हैं। जो रास्ता मंजिल तक जाता हो, वह किसी कारण देव कृपा से बंद पड़ा हो।
वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति अपनी ऊर्जा अनुसार अपने लक्ष्यों को सिद्ध करने की दिशा में सचेष्ट रहता है, किन्तु काल या भविष्य के एक अज्ञात भय से घिरा रहने के कारण उसकी ऊर्जा का एक बहुत बड़ा भाग केवल संकल्प-विकल्प में ही निकल जाता है। इन कुस्थितियों के निवारण के लिये अपने अन्दर देव तत्व को जाग्रत करना आवश्यक है।
शिष्य के मानस में प्रतिक्षण सद्गुरूदेव जी अभिव्यक्त हो सकें, इसे ही दीक्षात्मक उपाय के रूप में देव तत्व जागरण लक्ष्य भेदन सिद्धि दीक्षा की संज्ञा दी गयी है। इस दीक्षा के फलस्वरूप देव तत्व की चेतना रोम-रोम आप्लावित होती है। जिससे साधक के पूर्व जन्मकृत दोष, पाप-संताप, बाधायें, भय आदि विषम परिस्थितियां समाप्त होती है। जिससे वह अपने जीवन के लक्ष्य के मार्ग की ओर सफलता पूर्वक अग्रसर होता है और शीघ्र ही सफलता अनुभूत होने लगती है।
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