नाग अथवा सर्प की पूजा का स्वरूप पूरे भारतवर्ष में मिलता है, प्रत्येक गांव में ऐसा स्थान अवश्य होता है, जिसमें नाग देव की प्रतिमा बनी होती है और उसका पूजन किया जाता है। नागपंचमी के दिन को तो एक उत्सव रूप में मनाया जाता है, इसके पीछे ठोस आधार है, कारण है। समय के अनुसार मूल स्वरूप को अवश्य भुला दिया गया है।
जिस प्रकार मनुष्य योनि होती है, उसी प्रकार नाग योनि भी होती है। पहले नागों का स्वरूप मनुष्य की भांति होता था, लेकिन नागों को विष्णु की अनन्य भक्ति के कारण वरदान प्राप्त होने से इनका स्वरूप बदल गया और इनका स्थान विष्णु की शय्या के रूप में हो गया। नाग ही ऐसे देव हैं, जिन्हें विष्णु का साथ हर समय मिलता है, भगवान शंकर के गले में शोभा पाते हैं, सूर्य के रथ के अश्व नाग का ही स्वरूप हैं।
भय एक ऐसा भाव है, जो कि बली से बली व्यक्ति, बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति की शक्ति को भी नष्ट कर देता है, कोई अपने शत्रुओं से भय खाता है, कोई अपने अधिकारी से भय खाता है, कोई भूत- प्रेतों से भयभीत रहता है। भयभीत व्यक्ति उन्नति की राह पर कदम नहीं बढ़ा सकता है, भय का नाश, भय पर विजय प्राप्त करने से ही संभव है और नाग देवता, सर्प देवता भय के प्रतीक हैं, इसीलिये इनकी पूजा का विधान हर जगह मिलता है।
आज कल नागपचंमी को स्त्रियों का पर्व ही माना जाता है, जो कि बिल्कुल गलत है, नाग वास्तविक रूप में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप हैं। इस विशेष पर्व पर छोटा सा प्रयोग कर व्यक्ति किसी भी प्रकार की भय बाधा को दूर कर सकता है, इसका विधान भी अत्यन्त सरल है।
नागपंचमी के दिन प्रातः जल्दी उठ कर सूर्योदय के साथ सबसे पहले शिव पूजन सम्पन्न करना चाहिये, शिव पूजा का विधान यदि मालूम न हो तो शिवजी का ध्यान कर शिवलिंग पर दूध मिश्रित जल चढ़ाये और एक माला ‘ऊँ नमः शिवाय’ मंत्र जप अवश्य करें।
नाग पूजा में साधक अपने स्थान पर भी पूजा कर सकता है और किसी देवालय अथवा अपने गांव के स्थान पर भी पूजा सम्पन्न कर सकता है। एक सफेद कागज पर नाग देव का चित्र बनाये, उस चित्र में विशेष बात यह होनी चाहिये कि नाग देव के मस्तक पर दो आंखें तथा तिलक अवश्य बनायें, जीभ दो हिस्ंसों में बंटी हो, इसे अपने पूजा स्थन में स्थापित कर सामने सिन्दूर से रंगे चावलों पर ‘नागराज मुद्रिका’ स्थापित करें, और एक पात्र में दूध नैवेद्य स्वरूप रखें।
सर्वप्रथम अपने गुरु का ध्यान कर, अपनी भय-पीड़ा की शांति हेतु प्रार्थना करें, तत्पश्चत् नाग देव का ध्यान करें, कि –
‘ हे नाग देव! मेरे समस्त भय, मेरी समस्त पीड़ाओं का नाश करो, मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा रूपी विष को दूर करो, मेरे शरीर में व्याप्त विष मेरी रक्षा का कारण बने, न कि मेरी ही क्षति का।’
इसके पश्चात् नागदेव के चित्र पर सिन्दूर का लेप करें, तथा इसी सिन्दूर से अपने स्वयं के तिलक लगायें, तथा सिन्दूर का लेप ‘नागराज मुद्रिका’ पर भी करें, इसके पश्चात् दोनों हाथ जोड़ कर निम्न मंत्र का 21 बार जप करें-
जब यह मंत्र जप पूर्ण हो जाये तो नागराज मुद्रिका को अपने दांयें हाथ में धारण कर लें और थोड़ी देर शांत होकर बैठ जाये तथा गुरु मंत्र का जप करते रहें, इसमें भय का नाश होता है और बड़ी से बड़ी बाधा से लड़ने की शक्ति प्राप्त होती है।
पूजन के पश्चात नाग देव के सम्मुख रखे दूध को प्रसाद स्वरूप स्वयं ग्रहण करें, यदि यह दूध किसी अस्वस्थ व्यक्ति को पिलाया जाय, तो उसके स्वास्थ्य में दिन – प्रतिदिन अनुकूलता प्राप्त होती है।
यदि स्वयं भी किसी पुरानी बीमारी को दूर करना है अथवा परिवार के किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में उपाय करना है, तो यह प्रयोग 7 दिन तक करें, लेकिन पूजन से पहले अस्वस्थ व्यक्ति के नाम से संकल्प अवश्य लें।
नागराज मुद्रिका का प्रभाव इतना अधिक तीव्र रहता है, कि यदि आप प्रबल से प्रबल शत्रु के पास भी यह मुद्रिका धारण कर चले जाते हैं, तो वह शत्रु आपसे अच्छा व्यवहार ही करेगा, हानि देने की तो बात ही दूर रहती है, किसी विशेष कार्य पर जाते समय नाग देव का ध्यान कर, मुद्रिका अपने ललाट के मध्य भाग पर तीन बार स्पर्श कर धारण कर रवाना हों तो कार्य सिद्धि निश्चित रूप से प्राप्त होती है।
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