संयम मन पर लगाम कसने के लिये जरूरी है। बिना मन को साधे इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं स्थापित किया जा सकता। काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ का त्याग जिसने कर दिया उसने मानो संसार पर विजय प्राप्त कर ली। अगर इंद्रियों पर वश है तो संसार की कोई ताकत आपको कर्तव्य पथ से नहीं डिगा सकती। संयम के साथ निस्पृह भाव से कर्तव्य का पालन करने वाला ही सफलता की ओर अग्रसर होता है। मन के हारे हार, और मन के जीते जीत अर्थात अगर इंद्रियां हमारे वश में हैं तो हमें मनचाहा काम करने में जहां सफलता मिलेगी वहीं कोई भी कठिनाई हमें आगे बढ़ने से रोक नहीं सकती।
इसके विपरीत इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं है और हम अपने मन के गुलाम हैं तो फिर हम वही काम करना चाहेंगे जो हमारा मन चाहेगा। सच्चा मनुष्य वही है जिसने कि इंद्रियों पर काबू पा लिया। मन को वश में करना आसान बात नहीं है लेकिन प्रयत्न करने में पीछे नहीं हटना चाहिये। इंद्रियों के साथ मन को वश में करने के लिये जरूरी है कि धीरज के साथ मन को परमात्मा की ओर उन्मुख करें। अपनी कमजोरियों पर विजय पाने की कोशिश करने पर एक दिन जरूर कामयाबी मिलेगी। इसके लिये मन में हताशा के भाव नहीं आने देना भी आवश्यक है क्योंकि इंद्रियों पर विजय एक ही दिन में तो नहीं पाई जा सकती।
धीरज के साथ प्रयत्न करने पर मन को साधा जा सकता है। स्वयं को प्रभु की आराधना में लीन कर देना ही भोग-विलास से दूर रहना है। गलत काम न करना और उनसे बचने का प्रयास भी इंद्रियों की विजय ही है। जब शरीर, मन और वाणी शुद्ध होंगे तभी सच्चे मन से महाशक्ति की अराधना की जा सकती है। जिस भी मनुष्य ने अपने शरीर, मन और इंद्रियों पर वश कर उन्हें शुद्ध कर लिया है वही मनुष्य स्वतंत्र है, नहीं तो मन की इच्छा का गुलाम व्यक्ति दासता का जीवन गुजारता है। जो व्यक्ति मन, शरीर और इंद्रियों की दासता स्वीकार कर मनमानी करना चाहता है वह पराधीन ही रहेगा। इसलिये आवश्यक है कि मन पर संयम किया जाये और समस्त इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित किया जाये।
मन पर संयम बनाये रखने के लिये कामनाओं पर नियंत्रण जरूरी है। संयम को ले कर बहुत से विद्वानों ने कहा है की इसका होना बहुत आवश्यक है भगवान बुद्ध ने भी संयम को लेकर कहा है की कामभोगों से लिप्त जीवन और आत्मपीड़ा प्रधान जीवन में अति का होना बहुत दुष्प्रभाव डाल सकता है। वह कहते हैं कि मनुष्य को हमेशा मध्य मार्ग को ही चुनना चाहिये। संयम जीवन को सरल करने का सबसे उचित साधन है।
संयम द्वारा बड़े से बड़ा संकट टाला जा सकता है। कष्ट एवं संशय का निषेध भी हो सकता है। एक प्रकार से संयम सुख-समृद्धि, उन्नति तथा शांति का द्वारा कहा जाता है। संयम को धैर्य का समानार्थी नहीं समझना चाहिये। यद्यपि ऐसा समझना अधिक हितकर नहीं है, क्योंकि अधिकांश लोग संयम और धैर्य की मूल भावना को ग्रहण करने में सक्षम होते हैं। जो लोग सक्षम नहीं है, उनकी बात पृथक है।
संयम एक प्राकृतिक गुण है जबकि धैर्य को नियोजित गुण कहा गया है। धैर्य और संयम का मूल अंतर उसके प्रयोग की धारणा में निहित है। जैसे कि भोजन सदैव आवश्यक वस्तु नहीं है लेकिन वायु की नित्य आवश्यकता है। इसके भेद में न पड़कर संयम के रहस्य को भली-भांति जानना श्रेयस्कर है। संयम से अनेक महायुद्ध जीते गये।
संयम से ही मानवता ने चरित्र की सर्वोत्तम कसौटी पाई। सामाजिक और पारिवारिक परिवेश में संयम का महत्व स्वतः सिद्ध है। संसार में जो भी उपलब्धियां आज दृष्टिगत हो रही हैं, वे संयम का ही परिणाम है। उत्तरोत्तर विकास की धारा का अवलंब यही है। विकासोन्मुखी मानवता का जन्म संयम से ही तो हुआ। सामान्य या असामान्य व्यवहार की अवस्थाये इससे हमेशा नियंत्रित होती रही हैं। सभी दशाओं में संयम का सर्वश्रेष्ठ योगदान निरूपित होता देखा गया।
जीव मात्र में संयम का प्राकृतिक गुण पाया जाता है। इसके लाभ उपयोगी होकर जनहित के स्त्रोत बने।
संयम में असीम शक्ति निहित है। कठिन-से-कठिन कार्य तथा समस्याये संयम के समुचित पालन से सरल बन जाती हैं। संयम से जीवन की धारा मिलती है। जीवन का प्रवाह अबाध होता है। संयम का निरन्तर अभ्यास जीवन की दिशा बदलने में सक्षम है। संयम का प्रभाव प्रत्येक प्राणी तथा परिस्थिति पर अवश्य पड़ता है। बिना विकार उत्पन्न किये संयम एक महौषधि के समान है।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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