श्राद्ध का अर्थ है- श्रद्धापूर्वक कुछ देना या श्रद्धा व्यक्त करना। अपने मृत पूर्वजों के लिये कृतज्ञता ज्ञापन करना ही श्राद्ध है, क्योंकि भारतीय मान्यता के अनुसार मृत जीवात्मा विभिन्न लोकों में भटकती हुई दुःखदायी योनियों में प्रविष्ट होती है, तथा अनन्त दुःखों को भोगती है….शास्त्रीय परम्परानुसार श्राद्ध के माध्यम से मृतात्मा को शांति प्राप्त होती है।
श्राद्ध केवल मृत व्यक्ति के लिये ही किया गया कर्म नहीं है अपितु श्रद्धा पूर्वक जो भी विशेष धार्मिक कार्य किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिये जो संस्कार कर्म किया जाता है वह पित्रेश्वर श्राद्ध कहलाता है।
सृष्टि का क्रम जिस प्रकार एक निर्धारित समयानुसार सम्पन्न होता है, उसी प्रकार मनुष्य के जीवन का निर्धारण भी विभिन्न क्रमों से गुजरता हुआ जन्म से मृत्यु और मृत्यु से जन्म की ओर गतिशील होता है।
विश्वनियन्ता के इस निर्धारित क्रम के अनुसार ही हमारे ऋषियों-महर्षियों ने सम्पूर्ण जीवन को, अर्थात गर्भ में आगमन से लेकर जन्म और फिर मृत्यु तक, पूर्ण काल चक्र को विभिन्न खण्डों में विभाजित कर दिया है। उन्होंने ऐसा इसलिये किया, जिससे मनुष्य एक अनुशासित और सुव्यवस्थित तरीके से अपने जीवन को व्यतीत करे और साथ ही प्रत्येक कार्य के साथ वे कार्य, जो मानव जीवन को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं, उनके हेतु परम पिता परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर, उनकी प्रसन्नता और आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। सनातन धर्म में इस निर्धारित कार्य को संस्कार के नाम से सम्बोधित किया गया है। संस्कारों के इस कर्म में बालक के गर्भ में आगमन के समय पुंसवन संस्कार सम्पन्न किया जाता है, तो जन्म लेने के उपरान्त नामकरण चूड़ामणि संस्कार सम्पन्न किया जाता है। जब बालक थोड़ा बड़ा होता है, अर्थात पांच से पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक उसका उपनयन संस्कार कर, उसे शुद्र से द्विज बनाकर पूर्ण विद्यार्जन का अधिकार प्रदान किया जाता है।
यौवन का पदार्पण होने पर विवाह संस्कार किया जाता है और इस प्रकार विभिन्न संस्कारों से गुजरता हुआ व्यक्ति जब वृद्धावस्था को प्राप्त कर अपने जर्जर और रोगग्रस्त शरीर का त्याग कर किसी अन्य शरीर को धारण करने के लिये प्रस्थान करता है, तो उसके द्वारा त्यागे गये शरीर को हिन्दू धर्मानुसार अग्नि को समर्पित कर कपाल क्रिया संस्कार सम्पन्न किया जाता है।
अत्यधिक व्यवस्थित है हमारी सनातन धर्म की संस्कृति और अत्यधिक उदार व सहृदय भी। मृत्यु के बाद भी हमारा रिश्ता उस मृतात्मा से जुड़ा रहता है, समाप्त नहीं होता, और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने तथा उसकी मुक्ति के लिये ही बनाया गया है श्राद्ध संस्कार।
श्राद्ध का महत्त्व सर्वविदित है, इसके बारे में कोई आवश्यक नहीं है कि विस्तृत विवेचन किया जाये, किन्तु यह बहुत ही कम लोगों को ज्ञात होगा, कि श्राद्ध बारह प्रकार के होते हैः-
1- नित्य श्राद्ध
जो श्राद्ध प्रतिदिन किया जाय, वह नित्य श्राद्ध है। तिल, धान्य, जल, दूध, फल, मूल, शाक आदि से पितरों की संतुष्टि के लिये प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये।
2- नैमित्तिक श्राद्ध
एकोद्दिष्ट श्राद्ध के नाम से भी इसे जाना जाता है। इसे विधिपूर्व सम्पन्न कर विषम संख्या 1,3,5 में ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये।
3- काम्य श्राद्ध
जो श्राद्ध कामना युक्त होता है, उसे काम्य श्राद्ध कहते हैं।
4- वृद्धि श्राद्ध
यह श्राद्ध धन-धान्य तथा वंश वृद्धि के लिये किया जाता है, इसे उपनयन संस्कार सम्पन्न व्यक्ति को ही करना चाहिये।
5- सपिण्डन श्राद्ध
इस श्राद्ध को सम्पन्न करने के लिये चार शुद्ध पात्र लेकर उनमें गन्ध, जल और तिल मिलाकर रखा जाता है, फिर प्रेत पात्र का जल पितृ पात्र में छोड़ा जाता है। चारों पात्र प्रतीक होते हैं, – प्रेतात्मा, पितृात्मा, देवात्मा और उन अज्ञात आत्माओं के, जिनके बारे में हमें ज्ञात नहीं है।
6- पार्वण श्राद्ध
अमावस्या अथवा किसी पर्व विशेष पर किया गया श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहा जाता है।
7- गोष्ठ श्राद्ध
गौओं के लिये किया जाने वाला श्राद्ध कर्म गोष्ठ श्राद्ध कहलाता है।
8- शुद्धयर्थ श्राद्ध
विद्वानों की संतुष्टि, पितरों की तृप्ति, सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति निमित्त ब्राह्मणों द्वारा कराया जाने वाला कर्म शुद्धयर्थ श्राद्ध है।
9- कर्मांग श्राद्ध
यह श्राद्ध कर्म गर्भाधान, सीमान्तोन्नयन तथा पुंसवन संस्कार के समय सम्पन्न होता है।
10- दैविक श्राद्ध
देवताओं के निमित घी से किया गया हवनादि कार्य, जो यात्रादि के दिन सम्पन्न किया जाता है, उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।
11- औपचारिक श्राद्ध
यह श्राद्ध शरीर की वृद्धि और पुष्टि के लिये सम्पन्न किया जाता है।
12- सांवत्सारिक श्राद्ध
यह श्राद्ध सभी श्राद्धों में श्रेष्ठ है और इसे मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर सम्पन्न किया जाता है। इसके महत्व का आभास भविष्य पुराण में वर्णित इस बात से हो जाता है, जब भगवान सूर्य स्वयं कहते हैं-
जो व्यक्ति सांवत्सरिक श्राद्ध नहीं करता है, उसकी पूजा न तो मैं स्वीकार करता हूँ, न ही विष्णु, रूद्र और अन्य देवगण ही ग्रहण करते हैं। अतः व्यक्ति को प्रयत्न करके प्रति वर्ष मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर इस श्राद्ध को सम्पन्न करना ही चाहिये।
जो व्यक्ति माता-पिता का वार्षिक श्राद्ध नहीं करता है उसे घोर नरक की प्राप्ति होती है, और अन्त में उसका जन्म शुकर योनि में होता है।
कुछ व्यक्तियों के सम्मुख यह प्रश्न होगा, कि उन्हें तो अपनी माता या पिता के मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं है, तो वे किस दिन श्राद्ध कर्म सम्पन्न करें ?
ऐसे व्यक्ति को श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिये, नवमी के दिन अपने मृत मां, दादी, परदादी इत्यादि का श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिये।
श्राद्ध कर्म केवल मृत माता-पिता के लिये ही सम्पन्न किया जाता है, ऐसी बात नहीं है। यह कर्म तो मृत पूर्वजों के प्रति आदर का सूचक है, और उनके आशीर्वाद को प्राप्त करने का सुअवसर है, अतः श्राद्ध कर्म प्रत्येक साधक और पाठक को सम्पन्न करना ही चाहिये।
जब तक व्यक्ति पितृ ऋण से उऋण नहीं होता है, तब तक किसी कार्य में पूर्णता से उसका फल नहीं प्राप्त कर सकता। जब ऐसा सुअवसर उपस्थित हो रहा है, कि व्यक्ति अपने जीवन में उपस्थित होने वाली बाधाओं का निराकरण कर सके, तो फिर कोई भी ऐसा अवसर चूकना नहीं चाहेगा। इतर योनियों के पूजन का विधान लगभग प्रत्येक स्थान पर देखने को मिलता है, इतर योनियां एक प्रकार से हमारे पूर्वज ही है, जिनका हमारे ऊपर किसी न किसी रूप में ऋण है ये इतर योनियां उतनी ही पुष्ट और शक्ति समृद्ध होती हैं, जितनी कि देव योनि या अन्य योनियां।
यदि वे पूर्ण रूप से सन्तुष्ट न हों, तो वे अपने पुत्र-पौत्रों के जीवन में हस्तक्षेप करने लगती हैं और हस्तक्षेप के पीछे उनकी इच्छा इतनी ही होती है, कि उनके पुत्र तर्पण आदि कर उन्हें इस योनि से मुक्ति दिला दें। इस हस्तक्षेप से घर में बाधायें कष्ट, तकलीफ, बीमारी व राज्य भय के साथ-साथ लक्ष्मी का नाश होने लग जाता है। व्यक्ति समझ नहीं पाता, कि-
और इन प्रश्नों के उत्तर में वे विभिन्न प्रकार के कारण अनुभव करते हैं। ऐसा एक या दो के साथ नहीं वरन पूरे समाज के साथ ही हो रहा है।
इतर योनियों को उनका अंश नहीं देने के कारण जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। कई बार तो व्यक्ति उनका पूजन आदि कर्म भी सम्पन्न करता है, लेकिन न्यूनता रह जाने के कारण वे पूर्णरूप से सन्तुष्ट नहीं होते हैं ओर अतृप्त बने रहते हैं, वे अतृप्ति के कारण किसी न किसी प्रकार से पुनः स्वयं के लिये अपने पुत्रों द्वारा मुक्ति की कामना करने लगते हैं।
जब पितृ पूर्ण रूप से सन्तुष्ट न हों, तो व्यक्ति को चाहिये, कि श्राद्ध दिवस के अंतिम दिवस सर्वपितृ अमावस्या के दिन उनका पूजन अवश्य करे। अमावास्या के दिन पित्र्येश्वरों का पूजन करने से उनको मुक्ति प्राप्त होगी ही और व्यक्ति अपने दुर्भाग्य को भी समाप्त कर सकने में सक्षम होगा। इस अवसर पर उनका पूजन करने पर वे अपना अंश ग्रहण कर अपने पुत्रों के जीवन की सभी बाधाओं का निराकरण करते हैं तथा उन्हें पूर्णता का आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
साधना विधान
इस विधि से श्राद्ध करने की विशेषता यह है, कि जिस मृतात्मा के निमित यह साधना सम्पन्न की जाती है, उसे पूर्ण शांति प्राप्त होती है, चाहे वह प्रेत योनि या अन्य किसी भी तुच्छ योनि में हो, उसे मुक्ति प्राप्त होती ही है और निकट भविष्य में ही वह मृतात्मा किसी अच्छे गृह में जन्म भी ले लेती है। इस प्रकार इस साधना विधान द्वारा पितृात्मा की मुक्ति के साथ ही साथ उसकी विशेष कृपा भी साधक को प्राप्त होती है, जिसके कारण उसके घर में सुख-शांति बनी रहती है।
इस साधना में आवश्यक सामग्री ‘‘सर्व पितृ बाधा निवारण यंत्र’’, ‘‘पितृ शक्ति जीवट ’’ तथा ‘‘पितृ शांति माला’’ है।
मंत्र समाप्त होने पर इतर योनियों को सम्पूर्ण थाली में परोसा हुआ भोजन भोग लगायें।
सर्व पितृ अमावस्या को यंत्र, पितृ जीवट व माला नदी में प्रवाहित कर दें।
साधना प्रारम्भ करने से पूर्व यह संकल्प अवश्य लें, कि मैं यह साधना अपने पितरों की शांति एवं मुक्ति के लिये सम्पन्न कर रहा हूं। यहां पर यह बात अत्यधिक ध्यान रखने योग्य है, कि माता और पिता दोनों के लिये अलग-अलग साधना पैकेट होना आवश्यक है क्योंकि दोनों के पूर्वज अलग’अलग होते है।
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