एक शिष्य के लिये समय मूल्य नहीं रखता। उसके लिये तो महत्व इस बात का है कि गुरू क्या आज्ञा उसे देते हैं और वह कैसे उस आज्ञा का पालन करता है। जो गुरू कहे वह करे तो वह शिष्य है। तर्क वितर्क श्रेष्ठ शिष्य का लक्षण नहीं है।
एक शिष्य को चाहिये कि वह अपने हृदय को, मन को, इतना शुद्ध और दिव्य बना दे जिससे गुरू उसमें स्थापित हो सकें। इतना चैतन्य बना दे कि बाहर की दूषित हवायें उस पर असर नहीं कर पायें, उस पर जीवन के विकारों का कोई प्रभाव न हो।
आलस्य, द्वेष, क्रोध, असत्य भाषण ये शिष्य को समाप्त कर देते है। इनसे बचना और इन पर विजय प्राप्त करना हर शिष्य का धर्म है, कर्त्तव्य है।
दिन भर गुरू कार्य में जुटे रहना, गुरू का चिंतन करते रहना और अगर कोई गलती हो गई है तो गुरू के सामने प्रायश्चित कर देना यह शिष्य के जीवन की उच्चता है।
शिष्य की आंखे गुरू के सामने नमन हो, उसमें श्रद्धा भाव हो, उसकी आंखों में प्रेम का भाव हो और समर्पण का भाव हो।
जो फलदार वृक्ष होता है वह सबसे पहले झुकता है, जो सुखी हुई लकड़ी होती है वह ठूंठ की तरह खड़ी रहती है। शिष्य का गुरू के आगे झुकना यह प्रमाण है कि उसमें प्रेम है, श्रद्धा है, सर्मपण है।
यह आवश्यक नहीं आप मिठाई लेकर के और फूलों का हार लेकर के गुरू से मिलें। गुरू से मिलें तो आपकी आँखों में प्रेम के अश्रु हों, हृदय गद्गद् हो, कंठ अवरूद्ध हो और आपका मन गुरू के चरणों में समर्पित हो।
गुरू के पास होना शिष्य के जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य है। यह शिष्य का कर्त्तव्य है कि उन सौभाग्य के क्षणें को पहचाने और गुरू के अद्वितीय ज्ञान को प्राप्त करें, अन्यथा यह तो वैसा ही होगा कि हम समुद्र किनारे जाये और घौंघे, सिपियां उठा कर ले आयें।
केवल ‘गुरूदेव गुरूदेव!’ कहने से व्यक्ति शिष्य नहीं हो जाता। वह शिष्य होता है पूर्ण समर्पण द्वारा, गुरू सेवा द्वारा। गुरू सेवा के माध्यम से ही शिष्य का नाम गुरू के हृदय पटल पर अंकित हो जाता है।
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