समस्त भेद और समस्त विकल्पों का मूल चित्त है। अगर चित्त न हो तो कोई भेद नहीं। चित्त जीवन की अनिवार्यता है। चित्त का अर्थ है, विचारों का प्रवाह। पूरे समय आपके भीतर चित्त बह रहा है।
चित्त कोई वस्तु नहीं है, वह तो एक प्रवाह है। जिस प्रकार से एक पत्थर पड़ा होता है, वह एक वस्तु है। एक झरना बह रहा है, वह एक प्रवाह है। जो चीज पड़ी है, वह स्थिर है, जो बह रही है, वह प्रतिपल बदल रही है। इसलिये चित्त को प्रवाह कहा गया है क्योंकि वह भी प्रतिपल बदल रहा है। एक क्षण भी वह नहीं है, जो क्षण भर पहले था।
इसी बहती धारा (हमारा चित्त) के पीछे खड़े होकर हम जो देख रहे हैं वह जगत है। यह संसार है जो निरन्तर चलायमान है, यह कभी स्थिर नहीं हो सकता । इसलिये हम इस प्रवाह को जान पाते हैं, इस जगत में भेद कर पाते हैं। क्योंकि चित्त के द्वारा उसे ही जान सकते हैं जो बदलता है, बदलती हुई चीज के माध्यम से हम जो भी जानेंगे वह भी बदलता हुआ ही दिखाई पड़ेगा।
मनुष्य का मन भी प्रतिपल बदलता रहता है। इसी कारण मन से हम केवल उसी को जान सकते हैं, जो बदल रहा है, मन से उसे नहीं जान सकते, जो कभी नहीं बदलता है और इस जीवन का जो परम गुह्य सत्य है, वह अपरिवर्तनीय है, वह शाश्वत है, वह कभी बदलता नहीं। इसलिये चित्त उसे जानने का मार्ग नहीं है।
जगत की जो पदार्थ सत्ता है, वह बदलती है, वह मन की तरह बदलती है। इसलिये मन से जगत के पदार्थ को जाना जा सकता है। यह संभव है। लेकिन मन से इस जगत में छिपे परमात्मा को नहीं जाना जा सकता। यह असंभव है।
जैसे विज्ञान मन का उपयोग करता है, चित्त का उपयोग करता है खोज के लिये। विज्ञान मन के ही माध्यम से जगत की खोज करता है। और इसीलिये विज्ञान कभी भी नहीं कह पायेगा कि ईश्वर है। विज्ञान सदा ही कहेगा, पदार्थ है। परमात्मा की कोई प्रतीति विज्ञान में उपलब्ध नहीं होगी। इसलिये नहीं कि परमात्मा नहीं है, बल्कि इसलिये कि विज्ञान जिस माध्यम का उपयोग करता है, वह माध्यम केवल परिवर्तनशील को ही जान सकता है, वह माध्यम अपरिर्वतनीय को नहीं जान पायेगा।
इसलिये जो लोग मन से ही परमात्मा की खोज पर निकलते है, वे आज नहीं कल, नास्तिक हो जाते हैं। मन से चलने वाला व्यक्ति आस्तिक हो ही नहीं सकता। उसकी आस्तिकता वैसी ही झूठी है, जैसे बहरा व्यक्ति कहे कि मैंने आंख से संगीत सुना है, या अंधा व्यक्ति कहे कि मैंने कान से रूप देखा है, प्रकाश का अनुभव किया। ये सब बातें संभव ही नहीं है।
इसलिये संसार में इतने आस्तिक हैं, लेकिन सच्चा आस्तिक खोजना मुश्किल है। आप भी अगर आस्था लाते हैं तो मन से ही लाते हैं, सोच-विचार करके लाते हैं। सोच-विचार से कोई कभी आस्तिक नहीं होता और हो, तो झूठा आस्तिक होता है।
इस संसार में आस्तिक कहे जाने वाले लोग निन्यानबे प्रतिशत छिपे हुये नास्तिक हैं, उनकी आस्तिकता में कोई बल नहीं है। जरा सी चोट लगी की नहीं और उनकी आस्तिकता टूट जाती है, उसके भीतर कोई मजबूत जड़ नहीं है। आस्तिक तो तभी होता है कोई, जब मन को हटा कर जगत को देखता है। तो फिर जगत नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि मन के हटते ही जो परिवर्तनशील है फिर वह दिखाई नहीं पड़ सकता। मन के हटते ही, चेतना जब देखती है जगत को, तो चेतना का संबंध उसी से हो सकता है, जो परिवर्तनशील नहीं है।
चेतना शाश्वत है, अपरिवर्तनशील है। चेतना का संगीत उसी से सधता है जो शाश्वत है। मन के हटते ही जो दिखाई पड़ता है, वह परमात्मा है, मन के लाते ही जो दिखाई पड़ता है, वह संसार है।
मन को छोड़ते ही हम उस जगत में प्रवेश करते हैं, जो शाश्वत है, सनातन है, जहां कभी कुछ बदलता नहीं है, जहां सब अपरिवर्तित है। ये सत्य सदा ही सत्य रहेगा।
भारत की मौलिक खोज यही है कि अस्तित्व को मन के बिना भी जाना जा सकता है। धर्म और विज्ञान का यह फर्क है। विज्ञान कहता है, जो भी जाना जा सकता है, मन से जाना जा सकता है। धर्म कहता है, मन से जो भी जाना जाता है, वह कामचलाऊ है। मन के पार जो माना जाता है, वही सत्य है और मन के पार ही वास्तविक जानना संभव होता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस चित्त को कैसे शून्य किया जाये? इस चित्त को कैसे शांत करा जाये?
जिसका सूत्र यह कहता है कि इसे एकाग्र कर दें तो यह शांत हो जायेगा।
परन्तु चित्त का स्वभाव है कि एकाग्र न होना। आप एक क्षण भी चित्त को एकाग्र करें, वह एकाग्र नहीं होगा, उसमें भी वह प्रवाह खोज लेगा। अगर आप भगवान राम पर चित्त को एकाग्र करेंगे, तो पूरी रामलीला आपके भीतर आने लगेगी।
चित्त का स्वभाव है प्रवाह। इसलिये आप कुछ भी करें, चित्त उसमें से प्रवाह निकाल ही लेगा और चिंतन करने लगेगा। ध्यान और चिंतन का यही फर्क है। ध्यान का अर्थ है, चिंतन का ठहर जाना, प्रवाह का रूक जाना। वही एकाग्रता का अर्थ है, एक ही रह जाये, उसके संबंध में कोई चिंतन न रहे।
जब आप एकाग्र होते हैं, तो मन होता ही नहीं, जब तक मन होता है, तब तक एकाग्र नहीं होते। एकाग्र का मतलब है ठहर जाना, रूक जाना, प्रवाह का बंद हो जाना, समय का समाप्त हो जाना, सब गति का खो जाना- यही एकाग्रता है।
अगर आप एकाग्र करने की चेष्टा करते गये, करते गये, करते गये, न माने मन की और सजग रहे कि मन कोई तरकीब तो नहीं खोज रहा है जिससे प्रवाह पैदा हो जाये, तो एक दिन वह घड़ी आ जाती है कि एकाग्र करने की चेष्टा से मन का नाश हो जाता है, मन शांत हो जाता है, मन विलीन हो हो जाता है। जब आप मानते ही नहीं और एकाग्र करने के ही प्रयास में लगे रहते हैं, तो मन बैठ जाता है। मन का ना हो जाना एकाग्र होना है।
चित्त को एकाग्र करना बड़ा सवाल है। किसी भी चीज पर कर दें। कल्पित चीज पर भी करें तो भी काम हो जायेगा। इसलिये यह सवाल नहीं है कि कोई वास्तविक चीज पर ही करेंगे तो ही हल होगा। इसलिये यह सूत्र यह नहीं कहता कि पहले परमात्मा को खोजो और फिर चित्त को एकाग्र करो। यह कहता है, कि अगर तुम्हें लगता है कि परमात्मा काल्पनिक है, तो भी कोई चिंता नहीं। काल्पनिक बिंदु पर भी अगर चित्त एकाग्र हो जाये, तो मन खो जायेगा और मन के खोते ही उस शाश्वत सत्य- परमात्मा का दर्शन शुरू हो जायेगा जो वास्तविक है।
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