यह भृर्तहरि का श्लोक है, भृर्तहरि के श्लोक मुझे इसीलिये प्रिय हैं, क्योंकि उन्होंने जीवन के तीनों अंगों को जी भर कर जिया है, वे तीन अंग हैं- एक राज सम्मान, राज्य वैभव, धन, यश, प्रतिष्ठा और जय जय जयकार। इन सब को भृर्तहरि ने प्राप्त किया। भृर्तहरि एक राजा था और चक्रवर्ती राजा था। पूरे भू मंडल पर पूरे आर्यावर्त पर उसका शासन था और उसने जितनी कुशलता के साथ, जितनी श्रेष्ठता के साथ राज किया, नीति के साथ, न्याय और धर्म के साथ, वैसा आज तक किसी ने शायद नहीं किया, उससे पहले विक्रमादित्य ने तो किया था मगर उसके बाद कोई शासक ऐसा शासन नहीं कर पाया। उसके शासन में निरन्तर उन्नति होती रही, उसने उस राजा के जीवन को भी देखा। उसने उच्चकोटि का वैभव देखा, श्रृंगार देखा और श्रृंगार में भी वह आकंट डूबा रहा।
जब वह शिकार पर जाता तो किसी भी सुन्दर लड़की को देखता तो लाकर अपने रानी निवास में डाल देता। राजा था इसलिये ऐसा कर सकता था और आपको मालूम होना चाहिये कि भृर्तहरि के तीन हजार रानियां थीं, तीन हजार से भी अधिक रानियां थी और प्रत्येक के लिये अलग-अलग महल बनवाये भृर्तहरि ने और उनमें सारी, सुविधाये जुटाई। फिर ऐसा भी हुआ कि एक उसकी पत्नी थी हेमवती उसके साथ पांच महीने तक महल में ही रहा। बाहर निकला ही नहीं। न राज्य में गया, न दरबार में गया, न मंत्री परिषद को बुलाया न न्याय किया, न लोगों की फरियाद सुनी। महल से बाहर ही नहीं निकला।
तो भृर्तहरि ने राज्य भोग को भी पूर्णता के साथ जिया और उसके बाद उसे एक दिन चोट लगी और चोट भी भयंकर लगी।
और भृर्तहरि को जब ठोकर लगी तो उसने प्रतिक्रिया व्यक्त की और उसने वैराग्य ले लिया। वह जिस पत्नी को सबसे ज्यादा प्रेम करता था, जिसके यहां छः महीने रहा, राजकार्य भूल गया, उस स्त्री ने उसे इतना अधिक धोका दिया, इतना विश्वासघात किया जिसकी कोई कल्पना नहीं है। यह लंबी चौड़ी कहानी है मगर उसका सार यह है कि उसने गुरू के पास जाकर कहा कि मैं वैराग्य चाहता हूँ।
गुरू ने कहा, तुम राजा हो, मैं तुम्हारी प्रजा हूँ, तुम्हारे शासन में मेरा आश्रम है और तुम वैराग्य ले रहे हो तो राज कार्य कौन चलायेगा?
भृर्तहरि ने कहा- मेरे मरने के बाद कौन चलायेगा? और जो मरने के बाद चलायेगा उसे मैं जीवित ही देख लेना चाहता हूँ कि कैसे चलेगा। डूब रहा है ठीक चल रहा है, नहीं चल रहा है, गतिशील हो रहा है, नहीं हो रहा है, मुझे इसकी चिंता नहीं है, मुझे अपनी चिंता है। क्योंकि मैं भटका हुआ इन्सान हो गया हूं। मुझे पता नहीं चल रहा कि मैं किस पगडंडी पर चल रहा हूँ मैं मोहग्रस्त हो गया हूं मैं पत्नी और स्त्री और पुत्र और धन, वैभव, सम्मान, परिवार के बीच ऐसा उलझ गया हूँ कि जिसकी कोई सीमा नहीं है।
ज्यों ज्यों मैं सुलझ कर निकलना चाहता हूं कि चलो ये चार समस्याये निकल गई, अब दो रह गई तब तक छः समस्याये और आ जाती हैं। और ज्यों ज्यों सुलक्ष कर निकलना चाहता हूँ, त्यों त्यों उलझ ही जाता हूँ यों तो मैं उलझता ही रहूंगा। ऐसा तो कोई क्षण जीवन में आयेगा ही नहीं कि मैं सूलये कर वैराग्य लूं क्योंकि वैराग्य लेने के लिये कोई तारीख और तिथि निर्धारित नहीं होती।
और वैराग्य का तात्पर्य यह नहीं कि संन्यासी कपड़े पहनें। वैराग्य का तात्पर्य है कि इस राग द्वेष से दूर हो जाये। जो राग द्वेष से दूर हो जाता है वह वैरागी है। वैराग्य का अर्थ है न किसी से लेना न किसी से देना कोई कहे तो ठीक जवाब दे देना नही तो चुप रह जाना कि कुत्ते भौंकते हैं भौंकने दीजिये। कुत्तों का काम भौंकना है वे तो भौंकेंगे। मुझे तो मंथर गति से अपने पथ पर अग्रसर होते रहना है। मुझे अपने लक्ष्य का ध्यान रखना है क्योंकि सब मेरे साथ चलेंगे नहीं। चल ही नहीं सकते संभव ही नहीं है और अगर हम ऐसा समझते हैं तो यह हमारा मोह है और डूबे हुये रहेंगे। मेरे इस प्रवचन के बाद भी क्योंकि इससे पहले पच्चीस हजार गुरू यही बात कह चुके हैं। मैं पहला व्यक्ति नहीं हूँ। इसे पहले पच्चीस हजार गुरू अपने शिष्यों को यह बात कह चुके हैं कि इस संसार में कोई तुम्हारा नहीं है, तुम बेकार मोह में ग्रस्त हो, और तुम्हें राग रहित हो कर के अपने खुद के रास्ते को चुन कर के उस पर गतिशील होना चाहिये।
मगर उसके बाद भी उनके चित्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो मैं समझ रहा हूं कि मेरे कहने का भी प्रभाव मेरे शिष्यों पर या मेरी प्रजा पर नहीं पड़ेगा। फिर भी मेरा धर्म, मेरा कर्तव्य यह है कि मैं अपनी बात को दृढ़ता के साथ कहता रहूं।
भृर्तहरि ने तीन शतक लिखे-निति शतक, श्रृंगार शतक और वैराग्य शतक। केवल तीन सौ श्लोक लिखे। यह भी एक अलग कहानी है कि उन्होंने तीन सौ श्लोक क्यों लिखे और इन श्लोकों में क्या विशेषता है।
भृर्तहरि ने एक बहुत अच्छा श्लोक लिखा उस वैराग्य शतक में उसका नीति शतक भी है जिसमें उसने कहा-
यह एक नीति शतक का एक श्लोक है, सौ श्लोकों में एक है। और श्रृंगार शतक भी लिखा जिसका श्लोक है-
उस वैराग्य शतक में लिखा कि पुरूष और स्त्री दोनों के प्रति मोह रखना और अपने परिवार के सदस्यों के प्रति मोह रखना सबसे ज्यादा मुर्खता और अज्ञानता है। हम एक नंबर के मूर्ख हैं इसीलिये मोह रखते हैं। भृर्तहरि ने कहा मैं यह अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ, मैंने भोगा है, देखा है, अनुभव किया है, मैंने स्त्री के रूप को भी देखा है, प्रेमिका के रूप को भी देखा है और उसी स्त्री की कुटिलता को भी देखा है जिसके प्रति मैं जान दे रहा था प्राण दे रहा था। मैंने उस परिवार को भी देखा है जिसके लिये मैं रात-दिन दौड़ता था। और जब मुझे तकलीफ हुई तो एक भी मेरे पास मंडराया नहीं, आया नहीं। मेरा दुःख दूर किया नहीं। मुझे सात्वना दी ही नहीं। वे अपने राग रंग में डूबे रहे, शराब पीते रहे और घुंघरूओं की आवाज सुनते रहे।
और मैं इस बात का निश्चय कर चुका हूं, समझ चुका हूं कि वैराग्य से ऊंची कोई चीज नहीं है क्योंकि ‘वैराग्य मेवाभयं।’
उसने कहा-
सब चीजों में भय है, मैं किसी लड़की से बात करूं तो भय है, मैं कोई चीज छिपकर खा लूं तो भय है। वैराग्य में कुछ है ही नहीं, एक कुर्ता है, एक लंगोट है, और क्या है और कुर्ता धोती पहन ली तो मेरा कुछ है ही नहीं। पत्नी है तो अपनी जगह है, खुद खायेगी, पीयेगी, मौज से रहेगी मान लो, मैं बहुत पीड़ित हूँ भी तो कितनी सेवा करेगी।
मैं खुद का उदाहरण दे रहा हूँ किसी का भी उदाहरण दे सकता हूँ, मगर सत्य यह है कि हम उस मोह में फंसे हैं और फंसे रहेंगे और वैराग्य की कोई तारीख नहीं होती यह भी सत्य है। यह नहीं की पच्चास साल की उम्र के बाद वैराग्य लेना चाहिये या अस्सी साल की उम्र में वैराग्य लेना चाहिये। बल्कि जितना व्यक्ति विलंब से वैराग्य लेता है उतना ही वह समय बर्बाद करता है। ज्यों ही चेत जाता है त्योंहि वैराग्य ले लेता है। अपना काम करता रहता है, घर में भी रहता है। मगर अपने आप में वह सचेत रहता है कि जीवन का लक्ष्य यह नहीं है। वह यह जानता है कि मेरे मरने के बाद और मेरे जीवन काल में भी कोई मुझे याद नहीं करेगा और मैं सामान्य जीवन व्यतीत करके रह जाउंगा।
क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे सामने वाले मकान में कौन रहता है? तुम इतने सालों से यहां रहते हो तुम्हें मालूम है उसका नाम क्या है, उसकेबेटे का नाम क्या है, पत्नी का नाम क्या है?
आप नहीं जानते क्योंकि उस व्यक्ति ने जिंदगी में कुछ किया ही नहीं, कपड़े की एक दुकान खोली चांदनी चौक में और कपड़ा बेचता रहा, एक बेटी, एक बेटा, एक मकान जिसमें आठ कमरे हैं। तीन आदमी उन आठ कमरों में कैसे समायेंगे, बाकी पांच कमरों का क्या होगा। एक ड्राइंग रूम अलग तीन किचन अलग, आठ बाथरूम अलग। यह मकान उसके साथ जायेगा नहीं।
अब उसका नाम क्यों याद नहीं और भृर्तहरि का नाम क्यों याद है? इसलिये की यह राग युक्त है और भृर्तहरि वैराग्य युक्त, भेद बस इतना है। वह राग में पूरी तरह डूबा हुआ है कि अपने बेटे के लिये अपनी पत्नी के लिये कमा रखूं कि मैं यह करूं, मकान बना दूं, मेरा यश होगा, सम्मान होगा, मेरी प्रतिष्ठा होगी। यह सब कुछ तो होगा मगर जीवन का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पायेगा।
राजा भोज एक उच्चकोटि का राजा था, जिसके दरबार में कालीदास जैसे उच्चकोटि के रत्न थे और राजा भोज बहुत बड़ा कवि था, संस्कृत का विद्वान था। उस समय संस्कृत ही चलती थी, जैसे आजकल हिन्दी चलती है उस समय संस्कृत थी। महलों में जो झाडू लगाती थी उसे भी संस्कृत ही आती थी, भाषा ही उस समय की संस्कृत थी। इसीलिये सारे मंत्र संस्कृति में लिखे गये आज होते तो हिन्दी में लिखे जाते।
एक दिन रात्रि को भोज को नींद नहीं आई तो अपने कमरे के बाहर दालान था चांदनी रात थी वहां घूम रहा था। घूमते-घूमते, उसे नींद आ नहीं रही थी, उसके मन में उलझन थी कि मेरा जीवन क्या है, मैं क्यों जी रहा हूं? मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है, कल का दिन बीता तो मेरी उपलब्धि क्या रही?
मेरे मरने के बाद भी काल मेरे नाम को खा नहीं सके, मैं ऐसा जीवन जीना चाहता हूँ मरने के पांच हजार साल बाद भी काल मेरे नाम को नहीं खा सके। मुझे तो खा जाये पचास साल बाद, मेरी मृत्यु तो हो पर मेरी मृत्यु नहीं हो। इसके लिये क्या करूं?
उसने सोचा कि मेरे जीवन में क्या नहीं है- धन है, यश है, मान है, पद है, प्रतिष्ठा है, ऐश्वर्य है, पत्नीयां है, राज्य है, असंख्य धन दौलत है, सुंदर शरीर है सब कुछ है। उसने ये सब बात तीन लाईन में लिखी संस्कृत में-
और चौथा लाईन क्या लिखे उसका मन घूम रहा है, भटक रहा है कि श्लोक तो चार लाइन का होता है। वह बड़ी उलझन में था कि मेरे पास सब कुछ है इतना जो किसी के पास मेरे राज्य में नहीं है। यह उसने तीन लाईन में लिखा एक चोर चोरी करने आया था उसी समय और वह वहीं छुपा हुआ था कि राजा नींद ले और मैं चोरी करके भागूं वहां सोने की चीजें थी तो वह उसको लेकर भागना चाहता था। अब चार बजने को आ गये सुबह चोर ने सोचा कि अब यह नींद लेगा या स्नान करेगा और मैं पकड़ा गया तो मृत्यु दंड! अब चोर के निकलने का भी, कोई रास्ता नहीं क्योंकि सामने राजा भोज भटक रहा था और वह उस श्लोक को बार-बार बोल रहा था, तीन लाइनें बोल रहा था और अटक रहा था।
चोर से रहा नहीं गया। जब उसने चालीस बार उन तीन लाइनों को दोहराया तो चोर से रहा नहीं गया। अगर कोई नाचने वाला होता है तो ज्योंहि तबले पर थाप कोई देता है तो उसके पैर थिरकने लग जाते हैं। वह नहीं कोई और नाच रहा होता है लेकिन बैठे-बैठे उसके पैर थिरकने लग जाते हैं।
यदि बहुत अच्छे गायन का एक रसिया होगा या समझने वाला होगा तो गीत चल रहा होगा और उसका सिर झूमते हुये हिलने लग जायेगा। वह बोलेगा नहीं पर मालूम पड़ जायेगा कि गाने वाला अच्छा है या मूर्ख है।
वह चोर भी संस्कृत जानता था उससे रहा नहीं गया तो राजा ने वापस तीन लाइनें बोलीं मेरे पास धन, मान, पद, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र, वैभव, यौवन, सौन्दर्य सब कुछ है तो चोर से रहा नहीं गया और उसने कहा-
कि राजा भोज जिस दिन तेरी आँख बंद हो जायेगी उस दिन कुछ नहीं रहेगा तुम्हारे पास। यह सब कुछ बेकार चला जायेगा और राजा भोज चौंका। उसने कहा कि श्लोक पूरा हो गया मगर यह अवाज कहां से आई लाईन तो बिल्कुल सही है कि जिस दिन मेरी मृत्यु हो जायेगी, उस दिन ये रानियां, ये धन, ये दौलत कहां जायेंगे? कौन संभालेगा? क्या उपयोगिता है उसकी। फिर मरने के बाद कुछ नहीं है उसके पास।
राजा ने कहा तुम कौन हो? बाहर निकलो? चोर बोला मैं चोर हूँ आप क्षमादान करो, तो निकलूं, नहीं तो आपकी खिड़की से कूदता हूँ।
भोज ने कहा मैं क्षमादान देता हूं तू बाहर आजा।
भोज ने कहा- तुम चोर हो, चोरी करने आये हो और तुमने श्लोक बोला?
चोर ने कहा- मुझसे रहा नहीं गया। आप दो घंटे से परेशान हो रहे थे। तो मैं रह नहीं पाया और जो बात मेरे मन में थी वह कह दी। मेरी मजबूरी है कि मैं चोरी करता हूँ मगर आज मेरी आंख खुल गयी। आपने जो तीन लाइनें बोली उनसे मेरी आंख खुल गई और मैंने जो एक लाइन बोली उससे आपकी आँख खुल गई। हम दोनों बराबर हो गये अब।
तो राजा ने उसको सम्मान दिया। यह उदाहरण मैंने आपके सामने, भोज का और भृर्तहरि का इसलिये दिया की जीवन का एक क्षण चाहे बीस साल की अवस्था में आ जाये, चाहे पांच साल की अवस्था में आ जाये प्रहलाद को पांच साल की अवस्था में आ गया। राम को चौदह साल की अवस्था में आ गया। और पराशर को अस्सी साल की उम्र में भी नहीं आया। वैराग्य की भावना का कोई निश्चित समय नहीं है कि इसी समय आयेगी। वैराग्य की भावना का अर्थ है अपने कर्तव्य करते हुये राम रहित हो जाना और सबसे बड़ा कर्तव्य यह है कि उस रास्ते पर गतिशील होना जिस रास्ते पर काल मेरे नाम को नहीं खा सके।
मैंने उदाहरण दिया की सामने इतना बड़ा मकान है और हमें नाम ही मालूम नहीं कि क्या नाम है। मुझे भी मालूम नहीं। एक बार उस घर की बहू मिलने को आई थी कि मेरी सास बहुत लड़ाई-झगड़ा करती है मैं क्या करूं। तब मैंने उससे नाम पूछा तो नाम बताया। मैंने पूछा कि घर में कौन है तो उसने कहा मैं हूँ, पति है और सास है। मैंने कहा कि कमरे कितने है तो बोली नौ।
मैंने सोचा कि तीन व्यक्ति और नौ कमरें। बाकी छः कमरे को किराये पर चढ़ा दें तो कम से कम काम तो आये लोगों के। मगर एक तृष्णा है।
जिस दिन जीवन का मूल उद्देश्य शिष्य समझ जायेगा उस दिन मेरी वाणी सार्थक हो जायेगी। उस दिन मैं समझ लूंगा कि शायद मैं एक क्षण सफलता की ओर अग्रसर हुआ। हम कार्य करें मगर इस उद्देश्य को सामने रखते हुये करें कि मुझे उस लेवल तक पहुँचना है और दो दिन में नहीं पहुँच सकते आप तुम्हारे पाप तुम्हारे बीच में आयेंगे और बीस बार आयेंगे और तुम्हें सही रास्ते से हटायेंगे और पाप कई रूपों में आयेंगे। पाप कोई व्यक्ति तो है नहीं जो सामने आकर खड़ा हो जायेगा कि मैं पाप हूँ। ऐसे तो आयेगा नहीं। वह तो अंदर की वृत्ति है जो तुम्हें भ्रमित करेगी। तुम्हारे और गुरू के बीच मतभेद पैदा करेंगे। तुम्हें गलत गाईड करेंगे। तुम्हे मोहांध करेंगे। कई रूपों में वह पाप आयेंगे। जब ऐसा कोई विचार आये तो मन में समझ लेना चाहिये कि यह पाप है जो तुझे गुमराह कर रहा है। जो मेरे और गुरू के बीच डिफरेंस पैदा कर रहा है। यह पाप मुझे गलत रास्ते की तरफ आकर्षित करने के लिये मुझे मूर्ख बना रहा है। पाप किसी भी रूप में सामने आता है। जरूर आता है और चौबीस घंटे में एक बार जरूर आता है। क्योंकि वह तो परिक्रमा करता रहता है। एक बार आयेगा ही। आपके सामने भी आयेगा, मेरे सामने भी आयेगा। उस समय फिसले तो फिसल गये।
इसलिये त्याग जीवन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जीवन की सर्वोच्च पूंजी है, उपलब्धि है। इस शरीर से त्याग, परिवार से भी त्याग, संसार से भी त्याग। मगर त्याग का यहां अर्थ है संसार से अलग रहते हुये भी संसार में रहना, जैसे की जल में कमल रहता है। कमल के ऊपर पानी की एक बूंद डाल दो तो ढुलक जायेगी, उस पर रहेगी ही नहीं दस साल भी कमल पानी में रहे तो उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। ठीक उसी प्रकार से संसार में रहने की क्रिया और निरन्तर कर्मशील रहने की क्रिया त्याग है। निरन्तर कर्मशील रहना है, इतना की शरीर शिथिल हो कर कह दे कि अब मुझे लेट जाना है।
इस बात का निश्चय कर लें कि मुझे अपने जीवन का निर्माण करना है और अगर आपको नहीं मालूम तो गुरू से पूछ लें कि मेरा लक्ष्य क्या है, मैं क्या करू? मुझे आप एक रास्ता बताइये। पांच सौ रास्ते हैं। गुरू आरती में बोलते हैं।
इस जगत में सैकड़ों पंथ हैं, अब मैं कौन से पंथ का आसरा लूं, मैं साधना करूं, सेवा करूं, करूं क्या? कौन से पंथ को अपनाऊं और सभी पंथ अपने आप में अच्छे कहलाते हैं। मुझे किस रास्ते को अपनाना है। अगर गुरू सही है तो आपको सही रास्ते पर अग्रसर कर देगा। वही गतिशील करेगा, सही रास्ता बतायेगा और वही गुरू सही है जो सही रास्ता बताये। जो अपने स्वार्थ के लिये शिष्य को भ्रमित करता है वह घोर नरक का भागीदार होता है, गुरू और जो गुरू की निंदा सुनता है या बोलता है वह भी घोर नरक का वासी होता है। मैं दोनों के लिये कह रहा हूँ मैं गुरू के लिये भी कह रहा हूं केवल शिष्य के लिये नहीं कह रहा हूं। जो अपने शिष्य को गतिशील नहीं करता, अपने स्वार्थ के लिये उसका प्रयोग करता है वह गुरू नहीं है। वह घोर नरक का वासी होता है। वह गुरू भी मरेगा ही एक दिन तो क्यों उस पाप की गठरी को अपने सिर पर बांधे? वह शिष्य को गतिशील करे। यह उसका कर्तव्य है।
यह सारा एक भ्रम है जिस भ्रम में हम जिन्दा है कि मेरी माँ है मेरी बहुत सेवा करेगी, मेरा बाप है मेरा बहुत काम करेगा, मेरी पत्नी है बहुत आज्ञाकारी रहेगी, मेरे चरणों की दासी रहेगी, यह मेरा पति है मेरा रक्षा करेगा, यह पुरूष है यह बहुत सुन्दर है, यह स्त्री है बहुत रूपवती है, यह परिवार है यह मेरे काम आयेगा, यह धन है मेरे लिये उपयोगी होगा।
जिनके पास धन नहीं है क्या वे भूके मर रहे हैं? जिनके पास करोड़ रूपये हैं क्या वे अस्सी रोटियों एक दिन में खा रहे हैं?
चार रोटी तो कहीं भी मिल जायेगी, सड़क के किनारे बैठे हों तो भी मिल जायेगी। आप वृंदावन चल जायें तो दो सौ लोग ऐसे हैं जो अरबपति हैं और घरबार छोड़ कर दरवाजे पर बैठे हैं, गोविन्द देव जी के मन्दिर के बाहर। वहां सबसे बड़ा मन्दिर गोविन्द देव जी का है और हाथ में कटोरा लिये हुये छोटा सा। उसे मधुकरी वृत्ति कहते हैं कि जो बाहर आता है तो कोई प्रसाद डाल देता है, कोई पूरी डाल देता है, कोई सब्जी डाल देता है। वह खा लेते हैं और गोविन्द जी का भजन करते हैं। बेटे आते हैं कारों में कि पिताजी हमारी बदनामी हो रही है, आप क्या कर रहे हो, यह क्या उचित है, हम आपके लिये यहां मकान बनवा देते हैं।
वे कहते हैं तुम अपने घर रहो। वे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं। वे जानते हैं कि हमारा नाम करोड़पति होने से नहीं होगा। वह तो इस प्रकार के जीवन से पूर्ण हो पायेगा। वह एहसास करता है कि मेरे जीवन में एक संतोष है, मेरे जीवन में सुख है, मेरे जीवन में पूर्णता है, मैं पूर्णता की ओर अग्रसर हो रहा हूँ क्योंकि गुरू ने मुझे यह सलाह दी है।
मैं भी आपको यही सलाह दे रहा हूँ। शरीर इसलिये है कि हम निरन्तर इससे कार्य करते रहे हैं। मन इसलिये है कि बराबर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते रहे हैं। भावना इसलिये है कि हम अपने जीवन को उस ऊँचाई पर पहुंचा दें कि मृत्यु हमें स्पर्श नहीं कर सके।
जीवन का सार आज समझेंगे, दस साल बाद समझेंगे, पचास साल बाद समझेंगे, मृत्यु के दो मिनट पहले समझेंगे, मगर एक दिन समझेंगे जरूर। कोई बीस परसेंट लोग ही होते हैं जो मुस्कुराते हुये मरते हैं, अस्सी परसेंट होते हैं जो तड़पते हैं, बेचैन होते हैं, चार महीने बीमार रहते हैं और अंत में मुंह बंद हो जाता है, गला रूंध जाता है, आंखों में से आंसू बहते रहते हैं और बोल नहीं पाते ऐसे मरता हुआ व्यक्ति सोचता है कि मैंने जीवन में पाप किये हैं अधर्म किया है, उसको लूटा है, उससे खसोटा है, उसको धोका दिया है अब मैं कुछ नहीं, कर सकता। ये जो यहां बेटे खड़े हैं ये पैसा पाने के लिए खड़े हैं, सेवा के लिये नहीं खड़े हैं। ये सोच रहे हैं कि यह मरे और हम दाह क्रिया करें।
और वह बोल नहीं पाता और बेटे कहते हैं किन-किन से पैसा लेना बाकी है, मुझे बता दीजिये आपको सब याद है, गड़ा हुआ धन कहाँ है, आप बता दीजिये। डाक्टर सहाब ऐसे इंजेक्शन लगाइये की एक बार बोल दे कि धन कहां-कहां गड़ा हुआ है। वो डायरी कहां है जिसमें पैसों के बारे में लिखा है। बेटे ऐसा बोल रहे हैं और वह रो रहा है कि मैंने कुछ नहीं किया। आंसू उसके इसलिये बह रहे हैं और बेटे सोच रहे हैं कि हमारी याद में रो रहा है। पत्नी सोच रही है कितना प्यार करता है, आंसू बहा रहा है।
अरे, वो खुद इसलिये रो रहा है, बेचारा कि जिंदगी में कुछ नहीं किया।
राम-राम कहें उससे कुछ नहीं हो सकता। आप मन, वचन और कर्म से पूर्ण त्यागमय बनेंगे, महल में रहते हुये भी तब कुछ हो पायेगा। परन्तु यह बहुत कठिन है। महल में रहते हुये त्यागमय रहना बहुत कठिन है। अपने आपको सही रास्ते पर अग्रसर करना बहुत कठिन है क्योंकि हर व्यक्ति भ्रमित करेगा आपको। वो पाप बनकर आपके सामने खड़ा होगा। उस समय आप स्थिर रहेंगे, दृढ़ता पूर्वक खड़े रहेंगे, निश्चय कर लेंगे कि मुझे यह करना है, इस पार या उस पार हो जाना है तभी आप जीवन में सही रास्ते पर बढ जायेंगे।
ऐसी भावना की आवश्यकता है कि मेरा क्या बिगड़ेगा, नुकसान क्या होगा या तो कंगाल हो जाऊंगा तो हो जाऊंगा या पूर्णता प्राप्त कर लूंगा। अब मानसरोवर में नाव डाल दी है तो या मानसरोवर पार हो जाऊंगा या डूब जाऊंगा। मृत्यु तो एक दिन होनी ही है, हो जायेगी। बीच में होनी होगी तो हो जायेगी। मगर खेवनहार सही है तो बस सही है फिर। इसलिये निर्भय होकर बढ़ना पड़ेगा।
आप जो भी करें निर्भय होकर करिये। कोई आपकी निंदा करता है तो गाली देने की जरूरत नहीं है आप समझ लीजिये पाप है हमारा जो कि मुझे इसने गाली दी है। कोई आपको भ्रमित करता है तो समझ लीजिये कि यह महापाप है जो मेरे सामने खड़े होकर मुझे भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है। वो यह नहीं कह रहा मैं आपका गार्जियन हूँ वह आपको भ्रमित कर रहा है, और जहां आप भ्रम में पड़े तो जीवन डूबा।
भ्रम कहते हैं उस जाल को, भ्रम कहते हैं उस तूफान के चक्रवात को, अब उस समय आप कितने सतर्क हैं, कितने सावधान हैं आपके जीवन का क्या लक्ष्य है, क्या आप अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं इस पर निर्भर करता है कि आप दृढ़ रह पायेंगे या नहीं।
बढ़े आप इस रास्ते पर और गुरू तुम्हारे साथ में है, कोई मेरा नाम नहीं है गुरू मेरे भी गुरू हैं, मैं भी उनके चरणों में बैठने का इच्छुक रहता हूँ और बैठता हूँ। मेरे लिये वो सबसे ज्यादा सुखदायक क्षण होते हैं, चाहे पांच मिनट हो, चाहे पंद्रह मिनट हो।
जीवन की इच्छा नहीं है मेरी। मेरी इच्छा यह है कि मैं कुछ करूं कोई ग्रंथ लिखूं। अपने जीवन के जो अनुभव है, जो साधनाये हैं, वो तो अंदर ही रह जायेंगी, लकडियों के साथ जल जायेंगी, उनको कैसे कागजों पर उतारूं। जीवन का लक्ष्य यह है, मैं उसके लिये प्रयत्नशील हूँ, मगर एटमास्फियर मुझे मिले तब ऐसा कर पाऊंगा। ऐसी स्थिति बने तब मेरे जीवन का लक्ष्य पूरा हो पायेगा कि वह ज्ञान कागजों पर उतरे और इस पृथ्वी पर जीवित रहे। रामायण जीवित है, रामचरित मानस जीवित है, भृर्तहरि का नीति शतक जीवित है, उपनिषद जीवित है। वे ऋषि मर गये पर उनके ग्रंथ जीवित हैं और वे ऋषि भी जीवित हैं क्योंकि हमें उनका नाम मालूम है। इसलिये ऐसा कहा है क्योंकि उन्होंने त्याग किया था राजपाट छोड़ दिया। सिद्धार्थ ने छोड़ दिया तो बुद्ध कहलाये। महावीर ने छोड़ दिया, ईसा मसीह ने छोड़ दिया, राजा भोज ने छोड़ दिया, राम ने छोड़ दिया, कृष्ण ने छोड़ दिया। ये सब राजा थे, राजपाट छोड़ कर सन्यासी बने थे। जिनके पास है वह छोड़ सकता है। अब किसी के पास दो रूपये है नहीं और कहें- हमने छोड़ दिया बच्चे अब हम कुछ नहीं रखेंगे, पांच रूपये भी जेब में नहीं रखेंगे। अब उसके पास है ही नहीं तो छोड़गा कहाँ से?
लोग कहते हैं कि आप गंगा किनारे आये तो छोड़ियें, तो आप कहते हैं कि अच्छा क्रोंच बीज खाना छोड़ देंगे। अब क्रोंच बीज बनता ही नहीं बस जम्मू के आस-पास बनता है तो क्रोंच बीज छोड़ने से कुछ फायदा नहीं। अब छोड़ना है तो मिठाई छोड़ो, जलेबी छोडो, नहीं क्रोंच बीज छोड़ देंगे। अब वहां भी आप चालाकी बरत रहे हैं। आदमी चालाक है और चालाकी ही बरतता है। अगर मिठाई खाना छोड़ देगा तो मुश्किल हो जायेगी तो क्रोंच बीज छोड़ देते हैं। अब वह पंडित बेचारा क्या कहे।
यह त्याग नहीं है यह छल है अपने आप से जीवन को समझने की जरूरत है, जीवन को सेवा में लगाने की जरूरत है। निरन्तर जीवन में क्रियाशील होने की जरूरत है और जो लक्ष्य निश्चित कर लिया उसे प्राप्त करने की जरूरत है। चाहे चौबीस घंटे एक टांग पर खड़ा रहना पड़े, एक बार निश्चय कर लिया तो कर लिया। देखा जायेगा उसके बाद माँ-बाप, भाई-बहन कुछ नहीं कर सकते, समाज आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह मेरा अनुभव है।
मैं एक रास्ते पर चला वो समाज मेरा कुछ बिगाड़ नहीं पाया, मैंने कोई अच्छा काम किया तो समाज ने मुझे कोई यश, सम्मान देकर ऊंचा नहीं उठाया, यह मेरा उदाहरण है। कोई समाज किसी को ऊंचा नहीं उठाता है, कोई परिवार किसी को ऊंचा नहीं उठाता है।
मैं आपको एक आसन सिखाता हूँ, आप बेहोश होकर देखिये कि लोग क्या कहते हैं। हाय-हाय कहेंगे और फिर कहेंगे इसे जल्दी जलाओ, फूर्ति करो, इसको उठाओ। अब तुम्हारा बेटा उसे रखे, बर्फ की सिल्लियां लगाओ। नहीं वे कहते हैं उठाओ इसे, जलाओ जल्दी। आप सोचिये कितना मोह! एक दिन आप ऐसे बेहोश होकर देखिये तो सही। बेहोश ऐसे कि आपकी श्वास और धड़कन बंद हो। शवासन आपको आना चाहिये। आप करके देखिये।
विक्रमादित्य ने ऐसा किया था। उसके महल में सोने का खंबा था और उसे शवासन आता था। एक दिन गुरू ने कहा कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी नहीं है। उसने कहा- मेरी पत्नी तो मेरे बिना पानी भी नहीं पीती। जब मैं दोपहर को राज कार्य निबटाकर महल में जाता हूँ तो वह रोती है, आँखों में आंसू बहते हैं कि आप इतनी देर से आयें, मैं भूखी प्यासी हूँ, चलो खाना खालें। वह मुझे खाना परोसती है और पंखा झेलती है। वह मेरे बिना नहीं रह सकती।
गुरू ने कहा- तुम मुर्ख हो! तुम मोहांध हो।
उसने कहा- मैं मोहांध कहां हूं, मैं तो देख रहा हूँ। आपकी पत्नी है नहीं इसलिये मुझे मोहांध कह रहे हैं। मेरी पत्नी है इसलिये मुझे मालूम है मुझे कितना प्यार करती है।
गुरू ने कहा- मैं तुम्हें शवासन सिखाता हूँ, शवासन में हृदय बंद हो जाता है, नाड़ी बंद हो जाती है और जिंदा रहता है आदमी। ऐसा नहीं कि आँख बंद कर पड़ा हो। वह शवासन नहीं कहलाता। अगर डॉक्टर से जांच कराओ तो वह कहेगा कि यह मर गया।
और आप मरे नहीं होंगे आप सुन रहे होंगे सब कुछ क्योंकि आप उस प्राणमय उस ऊर्जामय कोष में चले गये, मगर आप सुन सकेंगे सब और आप वापस आ सकेंगे।
वो गुरू ने कहा- मैं तुम्हें शवासन सिखाता हूँ और महीने भर बाद तुम को बता दूंगा कि सत्य क्या है।
विक्रमादित्य ने कहा- महीने भर बाद क्या दस महीने बाद भी कुछ नहीं सिद्ध होगा क्योंकि मैं अपन पत्नी को जानता हूँ। वह पानी भी नहीं पीती। जब मैं जाता हूँ तो पहले मुझे खाना खिलाती है तब पानी पीती है और फिर रोटी का कौरा खाती है।
गुरू ने कहा- तुम सही कह रहे हो, पर मैं भी सही कह रहा हूँ, मैं उस गुरूओं की लहर से आया हुआ हूँ जो आज से पांच हजार साल पहले से धारा आ रहा है वह धारा मेरे अंदर है, वह ज्ञान की धारा मेरे अंदर है, खाली गुरू नहीं हूँ। तुम्हारे महल के ठीक बीच में एक सोने का खंबा है जिस पर महल की छत टिकी हुई है। आप उस पर लपेट कर के उलटे होकर शवासन में चले जाना।
विक्रमादित्य ने कहा- उससे क्या होगा?
तुम बस पंद्रह-बीस मिनट शवासन में लेटे रहना।
विक्रमादित्य ने कहा- उससे लाभ
गुरू ने कहा- लाभ तो बाद में पता पडेगा ना। तुम बस इतना ही करना।
विक्रमादित्य ने कहा- आप मुझे शवासन सिखा दो, मैं कर लूंगा।
गुरू ने शवासन सिखा दिया। तो विक्रमादित्य सोने के खंबे पर पांव की अंकुड़ी दे कर के धड़ाम से पड़ गया।
पत्नी चिल्लाई क्या हुआ क्या हुआ?
वैद्य आया, उसने नाड़ी देखी,
अब नाड़ी तो है ही नहीं। उसने कहा- राजा सहाब तो चले गये।
हाहाकार मंच गया कि राजा सहाब मर गये। रानियां चीखने लगीं, रोने लगीं, आधे घंटे तक हल्ला मचा रहा।
और मरते ही आदमी अकड़ जाता है। मरते ही पांच मिनट में अकड़ जाता है। जिस भी स्थिति में हो शरीर, लेटा हुआ या बैठा हुआ वह अकड़ जाता है। जो संन्यासी होते हैं वे पालती मारकर प्राण त्याग करते हैं। हम तो लेटे-लेटे जाते हैं उनकी पालथी में मृत्यु होती है। कोई मरता है तो कहते हैं इसे नीचे लिटा दो। और वैरागी साधु को लिटाते नहीं है। मरने से पहले पालथी लगा लेते हैं और जैसा होता है वैसा ही मर जाता है। तो मरते ही व्यक्ति अकड़ जाता है, आप उसे खींचे भी अगर जोर से तो उसे खींच नहीं सकते, दस आदमी भी खींचे तो खींच नहीं सकते। मरते वक्त पांव टेढा है तो मरने के कुछ समय बाद आप कितना ही खींचो सीधा कर ही नहीं सकते आप। कुत्ते की पूंछ सीधी कर ही नहीं सकते आप, आप दस साल तक कुत्ते की पूंछ को लकड़ी से बांध कर रखिये और खोलोगे तो वैसी ही टेढ़ी। दस साल के बाद भी सीधी हो ही नहीं सकती।
तो विक्रमादित्य खंबे पर बांध कर लेट गया और शवासन में चला गया।
अब आधा घंटा हो गया, तो लोगों ने कहा इसके पैर तो खोलो। अब चार आदमी जुटे लेकिन पैर अकड़े हुये बिल्कुल खंबे के चारों तरफ पैर खुले ही नहीं। तो किसी ने सुझाव दिया- जल्दी करो, खंबे को काट दो और पैर निकाल दो।
रानी ने कहा- नहीं नहीं, नहीं खंबे को नहीं काटो, दिमाग खराब है क्या? महल गिर जायेगा और सारी छत गिर जायेगी। अब मरे हुये आदमी को क्या फरक पड़ता है, इनके पैर ही काट दो। खंबे को क्यों काट रहे हो।
वह रानी जो एक मिनट भी उसके बिना जिन्दा नहीं रह सकती वह कह रही है इसके पैरों को काट दो और विक्रमादित्य पड़ा-पड़ा सुन रहा है।
लोगों ने कहा- राजा सहाब के पैर कैसे काटें ये तो राजा सहाब हैं। मरे हुये आदमी के टुकडों को कैसे जलायेंगे, लोग क्या कहेंगे और खंबा तो फिर से बना देंगे। अभी टेक लगा देंगे लकड़ी की और फिर वापस दूसरा खंबा सोने का बना देंगे। आपके यहां सोने की कमी नहीं है महारानी जी। पैर काटने का क्या मतलब हुआ।
पत्नी ने कहा- नहीं नहीं खंबे को नहीं काटना हैं मैं आज्ञा दे रही हूँ। राजा मर गया तो अब अधिपति मैं हूं, अब मैं सम्राट हूँ, इसलिये मैं आज्ञा दे रही हूँ की खंबा नहीं कटेगा, पैर काट लो।
अब रानी की आज्ञा माननी पड़ेगी, तो लाये वे तलवार, राजा ने सोचा अब तो पैर काट ही देंगे, अब मैं अगर नहीं जागा तो गये मेरे पैर।
तो वह उठकर खड़ा हो गया।
अरे राजा साहब जीवित हो गये, राजा सहाब जीवित हो गये।
लेकिन राजा उठे, अपना गमशा डाला कंधे पर और सीधा संन्यास की ओर रवाना हो गये।
उसने कहा कि जिस पत्नी को इतना प्यार करता था, उसके लिये दीवाना था, जो मेरी दीवानी होने का नाटक कर रही थी, वह केवल नाटक था। वह प्यार था कहां। एक खंबे के लिये मेरे पैर काटने के लिये तैयार हो गई वह मेरी कहाँ से होगी।
आपका कोई नहीं है मेरा भी कोई नहीं है। न पत्नी है, न पुत्र है, न बंधु है, न बांधव है, न सखा है, न मित्र है- यह गारंटी है। अकेला आया हूँ और जब आया था तो पहने हुये कुछ नहीं था, बिल्कुल नंगा था और जब मरूंगा लेटूंगा चिता पर तब भी नंगा ही होऊंगा और ऐसे ही जालयेंगे। एक कुर्ता क्या रूमाल भी पास में नहीं रखेंगे। तो जैसा आया वैसा का वैसा मुझे जाना है फिर बीस कपड़ो का मुझे क्या करना है?
इसलिये जीवन में मन, वचन और कर्म से पवित्र होते हुये गुरू से पूछ करके अपना लक्ष्य निर्धारित करते हुये गतिशील होने की क्रिया को मनुष्यता कहते हैं, देवत्व कहते हैं, पूर्णत्व कहते हैं।
और जब तक वह पूर्णता प्राप्त नहीं होती तब तक जीवन व्यर्थ है अधूरा है, इस जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, इस जीवन की कोई सफलता नहीं है, यह जीवन एक पशु के जीवन के समान है और पशु के समान जीवन बिताना मनुष्य जीवन की हीनता है। इसलिये शास्त्रों में कहा गया है कि जीवन को सभी दृष्टियों से परिपूर्ण होना चाहिये।
अब प्रश्न उठता है कि परिपूर्णता का तात्पर्य क्या है?
परिपूर्णता का तात्पर्य शास्त्रों में यह बताया गया है कि केवल गुरू के समीप होने, गुरू के अंदर प्रवेश करने और गुरू के अंदर एकाकार होने की क्रिया को ही पूर्णता कहते हैं।
ज्ञानियों ने यही तथ्य कहा है कि गुरू और शिष्य में केवल एक अंतर माया की दीवार है, माया है तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा पति, तुम्हारा पुत्र, बंधु-बांधव, सखा, स्वजन, लोभ, मोह, लालच, क्रोध, अहंकार और ज्योंहि माया की जो रेखा है इसे गुरू तोडता है तो दोनों एकाकार हो जाते हैं।
मैंने आपको समझाया कि ये सब पाप है जो तुम्हारे सामने आते हैं और जो गुरू से मिलने नहीं देते और जब तक ये पाप समाप्त नहीं हो जायेंगे तब तक तुम जीवन में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते। जिस दिन यह बीच की दीवार टूट जायेगी तो फूटा कुंभ जल जल ही समाना तो गुरू शिष्य में और शिष्य गुरू में समा जायेगा और अपने आप में वह पूर्णता प्राप्त हो जायेगी जिसे शास्त्रों में पूर्णमद पूर्णमिदं कहा गया है।
यह परिवार एक ढोंग है, एक ढकोसला है, यह स्त्री, यह पति, यह पत्नी, पुत्र केवल स्वार्थमय संबंध है और जितना इन स्वार्थमय संबंधों से आप परे रहेंगे इतना ही आप गुरू तत्व के नजदीक, एक ज्ञान के नजदीक, एक चेतना के नजदीक, एक पूर्णता के नजदीक पहुंचेगे।
वाल्मीकि अपने आप में एक बहुत बड़ा डाकू था और रोज हत्याये करता या लोगों को लूटता या स्त्रियों के गहने छीन लेता था और घर जाकर पत्नी को गहने देता, धन देता और पत्नी बहुत प्रसन्न होती। मां को स्वादिष्ट भोजन देता तो माँ प्रसन्न होती और उसने समझ रखा था कि यही जीवन का सत्य है। मगर एक दिन घूमते घामते नारद उधर से गुजरे, दोपहर हो गई थी, कोई राहगीर मिला ही नहीं था, तो डाकू वाल्मीकि ने उसे नारद को पकड़ लिया। नारद ने कहा तुम मुझे क्यों पकड़ रहे हो, तुम डाकू हो, तुम मुझे क्यों पकड़ रहे हो, मेरे पास एक वीणा है जिससे में नारायण, नारायण की ध्वनि करता रहता हूं। न धन है, न दौलत है- मेरे पास कुछ है ही नहीं।
उसने कहा- नहीं आज का दिन खाली जा रहा है, यह वीणा ही दे दे, यह वीणा बेंच कर पांच दस रूपये कमा ही लूंगा।
नारद ने कहा- तुम यह सब किस लिये कर रहे हो।
उसने कहा- यह अपने परिवार के लिये कर रहा हूँ।
नारद ने कहा- कौनसा परिवार, कैसा परिवार? क्या वह परिवार तुम्हारे साथ चलेगा?
उसने कहा- निश्चित रूप से चलेगा, मेरी पत्नि एक क्षण भी रह नहीं सकती, मैं दस मिनट लेट पहुँचता हूँ तो माँ की आंखों में आंसू बहने लग जाते हैं। बेटे इंतजार करते रहते हैं और ये सभी मुझे प्राणों से बहुत प्रिय है और मुझे बहुत प्यार करते हैं। इसलिये जो तुम कह रहे हो साधु कि यह परिवार क्या है और क्या संबंध है, तुम झुठे हो, यह तुम्हारा मिथ्या कथन है।
नारद ने कहा कि घर जाकर पूछ कर आ जाओ कि वे सब तुम्हारे हैं।
उसने कहा- नहीं मैं तुम्हें छोडूंगा नहीं। हो सकता है तुम भाग जाओ।
नारद ने कहा- तुम मेरी वीणा ले लो और मुझे पेड़ से बांध दो। मगर घर जाकर पूछ कर आ जाओ कि तुम जिन के प्रति आसक्त हो क्या वे सब तुम्हारे हैं?
वाल्मीकि ने नारद को पेड़ से बांध दिया और घर गया, माँ से पूछा, पत्नी से पूछा और सबने यह कहा कि तुम्हारे कर्म तुम अपने आप करो। तुम्हारा हमारे प्रति जो कर्तव्य है उसे तो निभाना है। किस प्रकार से करते हो? इससे हमें कोई तात्पर्य नहीं है। आगे की कथा आप जानते हो कि किस प्रकार वाल्मीकि को अपने परिवार से मानसिक आघात प्राप्त हुआ। उसको बड़ा दुःख हुआ। वह वापस आया और नारद को पेड़ से खोल दिया। उसने कहा कि आज मेरी आँखे खुल गई कि न पत्नी होती है, न माँ होती है, न बेटा होता है, परिवार का कोई व्यक्ति तुम्हारे साथ नहीं होता। अगर तुम पापमय, छलमय सम्पत्ति एकत्र करते हो तो वह तुम्हारा ही पाप है और उस पाप का फल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा, यह ज्ञान मुझे आज हो गया प्रत्यक्ष घर जाकर पूछ कर के और मैं तुम्हें अपना गुरू मानता हूँ अब मुझे क्या करना है?
नारद ने कहा- तुम्हें आज से यह छलमय धन एकत्र करने की क्रिया छोड़ देनी चाहिये और केवल राम का नाम उच्चारण करना चाहिये। नारायण का नाम उच्चारण करना चाहिये और इसके अलावा कोई शब्द उच्चारण करना ही नहीं है। कोई इच्छा से तुम्हें रोटी दे दे तो खा लेनी है, क्योंकि ये पत्नी और माँ और पुत्र है ही नहीं, ये केवल माया है और तुम माया से ग्रस्त थे आज पहली बार माया से बाहर निकले हो।
वाल्मीकि डाकू नारद के चरणों में गिर गया और निरन्तर नारायण, नारायण ध्वनि करता रहा और एक दिन वह डाकू वाल्मीकि एक दिन उच्चकोटि का महाकवि बना जिसने रामायण जैसे ग्रंथ की रचना की और ऋषि तुल्य कहलाया।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन का सार पत्नी, पति, धन, यश, मान, वैभव, प्रतिष्ठा नहीं है। जीवन की श्रेष्ठता तो इसमें है कि आप क्या हैं और किस प्रकार से गतिशील हैं, किस प्रकार से आप कार्य कर रहे हैं, किस प्रकार की आपकी संतोष वृति है, किस प्रकार से आप कम से कम सामग्री में जीवन यापन करते हो, किस प्रकार से तुम अपने जीवन को गतिशील करते हो और क्या तुम्हारे पास गुरू है, क्या गुरू तुम्हें कुमार्ग से सुमार्ग पर गतिशील करने में सक्षम है, क्या तुम्हें सही रास्ता दिखाने में सफल है?
और यदि है तो कसकर गुरू के चरणों को पकड़ लेना चाहिये और हाथ जोड़कर, आँखों में आंसू भरकर निवेदन करते हुये कहना चाहिये कि प्रभु गुरूदेव मैं सही रास्ते पर हूँ या गलत रास्ते पर हूँ यह आप ज्यादा जानते हैं। आप मुझे बताइये कि मेरे लिये कौन सा रास्ता श्रेयस्कर है। किस रास्ते पर चलू? मैं भ्रमित हूँ। मैं परिवार से मोहग्रस्त हो गया हूँ, मैं धन के पीछे दीवाना हो गया हूँ। मैं चाहते हुये भी इन से हट नहीं पा रहा हूँ। आप मुझे ज्ञान दीजिये, रास्ता दीजिये, मुझे बताइये कि जीवन में पूर्णता कैसे प्राप्त करूं और गुरू तुम्हें रास्ते बतायेगा, एक चेतना देगा, एक प्रज्ञा देगा, एक दीक्षा देगा, तुम्हारे अंत करण की शुद्धि करेगा, तुम्हें अंदर से पूर्णता देने का प्रयास करेगा और निरन्तर तुम्हें गतिशील करता रहेगा। ठीक कबीर के शब्दों में-
गुरू तो कुम्हार की तरह है और शिष्य मिट्टी का लौंदा है उस कुम्हार को उस गुरू को मालूम है उस मिट्टी के लौंदे का क्या बनाना है। घड़ा बनाना है। सुराही बनाना है, दीपक बनाना है या क्या बनाना है।
गुरू तुम्हें दीपक बनायेगा तो तुम रोशनी फैलाकर अंधकार को बिखेर सकोगे वह तुम्हें सुराही या घड़ा बनायेगा तो तुम लोगों को ठंडा पानी पिला सकोगे, तुम्हें सही ढंग से गतिशीलता दे सकेगा और यह व्यक्तित्व प्राप्त होने की क्रिया आवश्यक है और गुरू का अंदर बाहर हाथ होता है कि मेरा शिष्य टूटे नहीं बिखरे नहीं और बाहर बराबर चोट पहुँचाता रहता है इसलिये कि यह निर्मल बने, चैतन्य बने शुद्ध बने। इसके लिये गुरू उसकी आलोचना करेगा, उसको डांटेगा। उसको फटकारेगा, उसको सन्मार्ग पर लाने की कोशिश करेगा, कोशिश उसकी यही रहेगी कि किसी भी प्रकार से यह सफल हो, वह अपने आप में पूर्णता प्राप्त करे, वह अपने जीवन में उच्चता प्राप्त करे, श्रेष्ठता प्राप्त करे। गुरू का केवल यही कर्तव्य है।
और शिष्य का भी एक ही कर्तव्य है कि अपने आप को पूर्णतः गुरू के चरणों में समर्पित कर दे, अपने पास कुछ न रखे।
यह युक्ति तभी सार्थक हो सकेगी जब शिष्य के मन में यह आयेगा कि गुरू सही है, जब उसके मन में आयेगा कि-
जब ऐसी भावना उसके मन में आयेगी, तो शिष्य निश्चय ही पूर्णता प्राप्त करेगा और मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ कि आप सभी दृष्टियों से पूर्णता प्राप्त करें और पूर्ण हों।
हरि ऊँ तत्सत्
परम् पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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