साधक और शिष्य अस्थिर प्रकृति के मानव होते हैं जो अपने भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में उन्नति तो चाहते हैं, परन्तु उनका लक्ष्य निश्चित नहीं होता, वे गुरू से जुड़ते हैं और फिर अलग हो जाते हैं, फिर जुडते हैं और फिर अलग हो जाते हैं। इसी प्रवृति के कारण उनके कार्य सफल और पूर्ण नहीं हो पाते। सद्गुरूदेव जी ने कहा है कि गुरू ज्ञान का प्रदाता है और वह हर स्थिति में अपने शिष्य के कल्याण के बारे में ही विचार करता है, परन्तु सुनार जैसे सोने को पीट-पीट कर तपा-तपा कर शुद्ध करता है, कुम्हार मिट्टी को कूट-कूट कर उस पर निरन्तर प्रहार कर कुम्भ-पात्र निर्माण करता है, जैसे अध्यापक विद्यार्थी को दण्ड दे-देकर शिक्षा का ज्ञान प्रदान करता है उसी प्रकार गुरू भी शिष्य की निरन्तर परीक्षा लेते रहता है और साथ ही साथ हर समय उसका ध्यान भी रखता है। गुरूदेव ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि शिष्य में एक अहंकार की भावना होती है और वह अहंकार की भावना उसे गुरू से पूर्ण रूप से जुड़ने नहीं देती और जब तक यह अहंकार समाप्त नहीं हो जाता, तब तक शिष्य पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता है।
शिष्य एक ऐसा पद होता है, जिसके समक्ष समस्त ब्रह्माण्ड की तेजस्विता नगण्य होती है, जिसके समक्ष प्रकृति हाथ बांध कर खड़ी होती है। वह साक्षात् गुरूदेव का प्रतिरूप होता है किन्तु ध्यान रहे, केवल प्रतिरूप, स्वयं गुरू नहीं। गुरू को जब अपने कार्यों को विस्तार देना होता है, सृष्टि में कुछ नूतन घटित करना होता है, तभी वे स्वयं को शिष्य पद के माध्यम से विभक्त कर, स्वयं को ही स्पष्ट करते हैं।
परन्तु सामान्य व्यक्ति यह नहीं जानता कि वह अपने जीवन में क्या क्रिया सम्पन्न करें, जिससे सिद्धि प्राप्त कर सकें। पुस्तकों के अध्ययन से पतजंलि योग सूत्र का नाम सबसे पहले आता है, जिसमें सिद्धि प्राप्त करने के लिये अष्टांग योग के महत्व को स्पष्ट किया गया है। अष्टांग योग के विविध सोपान है।
जीवन संकल्प-विकल्प के बीच झूलता रहता है। विकल्पों के बाहर निकल कर इच्छा शक्ति अथवा संकल्प शक्ति ही शिष्य का निर्माण करती है। शिष्य का समर्पण भाव ही गुरू शक्ति से कृपा प्राप्त करने में सफल होता है। तभी व्यक्ति की प्राण शक्तियां केन्द्रीभूत हो सकती है, पाप क्षय का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। गुरू का ज्ञान और शिष्य का कर्म मिलकर, पूर्णता तक पहुँच कर ही प्रकाश को प्राप्त कर सकते हैं।
सामान्य रूप से यह माना जाता है कि सिद्धि, ईश्वर कृपा से, गुरू कृपा से प्राप्त होती है। महान संतो, गुरूओं, योगियों, ऋषि-मुनियों के जीवन में ईश्वरत्व अवतरित हो जाता है और वे अपने बाल्यकाल में ही ऐसी क्रियाये सम्पन्न करते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के लिये संभव नहीं है। कई सिद्धियां जन्मजात होती हैं और जन्मजात सिद्धियां पूर्व जन्म की साधनाओं से ही फलीभूत होती है। कई सिद्धियां, मंत्र साधना, तंत्र साधना, तपस्या, ध्यान, योग के माध्यम से प्राप्त होती हैं। यही सिद्धि तत्व है।
इस संकल्प सिद्धि तत्व और शक्ति तत्व को जानने से ही व्यक्ति में आत्म जागरण होता है, व्यक्ति में सिद्धि तत्व जाग्रत होता है, संकल्प शक्ति द्वारा ही निरन्तरता के भाव से व्यक्ति को भौतिक जीवन में सफलता प्राप्त होती है, व्यक्ति को ज्ञान का मार्ग मिलता है, व्यक्ति का कायाकल्प होता है, व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर बढ़ता है और सबसे विशेष बात यह है कि उसे अपने जीवन के लक्ष्य का ज्ञान और लक्ष्य की प्राप्ति होती है और यह सब जिस क्रिया के द्वारा होता है उसको नवसिद्धि संकल्प प्राप्ति आत्म जागरण दीक्षा की संज्ञा दी गई है।
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