लेकिन बीज बोने और फसल काटने में समय अवधि का बहुत बड़ा अंतर होता है, इसलिये हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने द्वारा ही बोये बीजों की फसल काट रहें हैं। अक्सर फासला इतना लम्बा होता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोये थे अमृत के, न मालूम कैसे दुर्भाग्य के फल उपलब्ध हुये हैं।
एक बात अच्छे से समझ लो इस जगत में जो आप बोयेगे, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलेगा, न ही कुछ और मिलने का कोई उपाय है। पाओगे वही, जैसा अपने को निर्मित करोगे, जीवन के प्रति जैसी तैयारी करोगे, आप उसी स्थान पर पहुंचोगे, जिसकी आप यात्रा करोगे। वहां बिल्कुल आप नहीं पहुंच सकते, जिसकी यात्रा आपने प्रारम्भ ही नहीं की। ऐसा हो सकता है कि यात्रा करते समय आपने अपने मन में कल्पना की कोई और मंजिल बनायी हो, लेकिन वह केवल कोरी कल्पना ही रहेगी।
आप बाजार की तरफ जाने वाले रास्ते पर चलें और मन में सोचें कि मैं नदी तक पंहुच जाऊं, आप संसार की तरफ बढे़, और मन में सोचें कि अध्यात्म में अग्रणी बन जाऊं, नहीं हो सकता, ऐसी कोई विधि, कोई साधन, कोई उपाय है ही नहीं, मन से आदमी जिन रास्तो पर चलता है, वहीं पहुंचता है, सोचने से नहीं पहुंचता, मंजिले मन में नहीं रास्ते पर तय होती हैं।
आप कोई भी सपना देखते रहें, अगर आपने बीज नीम के बो दिये हैं, तो आप भले ही सपने स्वादिष्ट मधुर फल के देख रहें हों, लेकिन सपनो से मधुर फल नहीं निकलते, फल आपके बोये बीजों से निकलते हैं। इसलिये जब नीम के कड़वे फल हाथ में आते हैं, तो शायद आप दुखी होते हैं, पछताते हैं और सोचते हैं कि मैंने तो बीज बोये थे अमृत के फल कड़वे कैसे आये? क्योंकि अधिकांश लोग बीज क्या बोया था, भूल जाते हैं, कोई अपने अन्दर झांके तो पता चल ही जायेगा, कि कौन सी बीज बोया था, लेकिन यहां अन्दर झांकने के लिये कोई तैयार ही नहीं। एक महान योगी का एक शिष्य पहाड़ी रास्ते से गुजर रहा है। उसके साथ दस-पंद्रह संन्यासी हैं। रास्ते में चलते हुये उसके पैर में जोर से पत्थर लग जाता है। खून बहने लगता है। शिष्य आकाश की ओर हाथ जोड़ कर आनन्द भाव में लीन हो जाता है। उसके साथी संन्यासी हैरान रह जाते हैं! ये क्या कर रहा है? वह शिष्य जब अपने ध्यान से वापस लौटता है, तब उससे पूछते हैं कि आप क्या कर रहे थे? आपके पैर में चोट लगी, पत्थर लगा, खून बहने लगा और आप आकाश की ओर हाथ जोड़े थे, जैसे किसी को धन्यवाद दे रहे हो!
शिष्य ने कहा, यह मेरे किसी जीवन का विष का बीज था, मारा था किसी को पत्थर, आज उससे छुटकारा मिल गया। इसलिये नमस्कार कर प्रभु को धन्यवाद कर दिया, कि मेरे बोये हुये बीज आपने आज हल्के कर दिये। जगत का नियम है, जो हम फेंकते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। चारों ओर हमारी ही फेंकी हुयी वस्तुयें पड़ी है और वही हम पर लौट-लौट कर वापस आ जाती है, हां समय का अतंराल लम्बा अवश्य होता है, हो सकता है, इसी जीवन का हो, और ये भी हो सकता है किसी और जीवन का हो, लेकिन होती है, हमारी बोयी हुयी ही फसल। सभी लोग अपने जीवन में आनन्द पाना चाहते हैं, लेकिन मिलता कहां है आनन्द, सभी जीवन में शांति चाहते हैं? लेकिन मिलती कहां है शांति! सभी चाहते हैं कि सुख, महासुख ही बरसे, पर बरसता नहीं। यह अच्छे से समझ लेना चाहिये कि चाहने से फल नहीं आते, जो बोया जाता है, उससे फल मिलता है, उससे आते हैं। आदमी चाहता कुछ है, बोता कुछ है। बोता विष है, चाहता अमृत है। इसीलिये जब फल आते है, तो विष के ही आते है, दुःख और पीड़ा के ही आते है।
जीवन का विश्लेषण करोगे तो स्वयं जान जाओगे कि जीवन भर गढ्ढो के और कहीं कुछ प्राप्त नहीं हुआ, दुःख घना होता चला जा रहा है। प्रतिदिन मन पर संताप के कांटे फैलते चले जाते हैं और फूल आनन्द के मुरझाते मालूम पड़ते हैं। जिस खुशी की तलाश में हैं, वो खुशी नहीं मिल पाती क्योंकि कहीं ना कहीं कुछ गलत बो दिया है, उस गलत बोने के कारण आप स्वयं के शत्रु सिद्ध होते हैं।
जीवन में हमारे द्वारा जो भी बुरा कर्म होता है, उसके जिम्मेदार हम ही हैं, इस भ्रांति में मत रहना कि कोई साझा करेगा। अतिंम फल हमें ही भोगना है। वह जो हम बो रहें हैं, उसकी फसल हमें ही काटनी है। इंच-इंच का हिसाब है, इस जगत में कुछ भी बेहिसाब नही है। हमारे द्वारा अनेक कर्म हो जाते हैं, जो हमें दुख के कुएं में डाल देते हैं, अपने ही दुख में उतरने की सीढि़या हम निर्मित करते हैं। तो अपना हिसाब रख लेना चाहिये कि मैं ऐसे कौन-कौन से काम करता हूं जिससे मैं ही दुख पाता हूं। दिन में हम हजार काम करते हैं, जिससे हम दुख पाते हैं। हजार बार पा चुके हैं। लेकिन कभी भी हम ठीक से तर्क नहीं समझ पाते हैं जीवन का कि हम इन कर्मों को करके दुख पाते हैं। वही बात जो आपको हजार बार मुश्किल में डाल चुकी है, वही व्यवहार जो आपको हजार बार पीड़ा में धक्के दे चुका है, आप फिर उसी रास्ते से गुजरते हैं। वही सब दोहराये चले जाते हैं।
एक ऋषि अपने शिष्यों से कहते थे कि तुम्हें रास्ते पर कोई दिखे तो उसकी मंगल कामना करना, चौबीस घंटे इसी भाव में रहना, वृक्ष भी मिल जाये तो उसके मंगल की कामना करके आगे बढ़ जाना। पहाड़ भी दिख जाये तो मंगल की कामना करके ही गुजरना। राहगीर भी मिल जाये तो उसके लिये भी मंगल कामना ही करना।
इसके दो लाभ हैं, पहला तो यह कि तुम्हें किसी का बुरा चाहने का, करने का अवसर ही नहीं प्राप्त होगा, तुम्हारे मन में बुरा ख्याल करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होगा और तुम्हारी शक्ति, चेतना मंगल की दिशा में नियोजित हो जायेगी। दूसरी जब तुम किसी के लिये मंगल कामना करता हो, तो परमात्मा की जिम्मेदारी है कि वह तुम्हारी मंगल कामना पूर्ण करे।
मैं आपसे यही चाहता हूं, कि आप अपने प्रति सजग हों, अपनी स्वयं की शत्रुता के प्रति सजग हों, अपनी चेतना को इतना जाग्रत करें, कि स्वयं के शत्रु ना बनें, अपने स्वयं के मित्रता का आधार बनायें, जीवन को सही दृष्टिकोण दें और समझें जीवन के उचित-अनुचित भाव को। यह बहुत ही सरल है, आपको केवल इतना ही करना जो आपको अपने स्वयं के लिये पसन्द नहीं, वैसा व्यवहार किसी के साथ ना करें।
इस वर्ष के समाप्ति पर अपने जीवन के कलुषित भावों को समाप्त कर, इस वर्ष के जितने भी शत्रुवत् भाव भीतर हैं, उन्हें भस्मीभूत कर जीवन को नये आयाम, नूतन सोच, नये शुद्ध सात्विक विचार प्रदान कर, उसी का बीज बोये जिनसे आने वाले वर्ष में, आने वाले जीवन में मधुर स्वादिष्ट कि फल की प्राप्ति हो सके।
सदा मंगलमय हो—–!!
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