हरि का सामान्य अर्थ है, हरण करने वाला। ईश्वर, परमात्मा, सद्गुरु जीवों के पाप-ताप एवं कष्टों का हरण कर लेते हैं- हरिर्हरति पापानि। दो बातों का ध्यान रखना चाहिये- पहली बात यह कि अपनी हिम्मत को कमजोर न करे, परिस्थितियों-संघर्षों के सामने हार न माने, घुटने न टेके और दूसरी बात यह कि परमात्मा की कृपा पर अचल विश्वास रखें।
परमात्मा जो कुछ करता है, अच्छा ही करता है, हमारे भले के लिये ही करता है। प्रभु का विधान कल्याणमय एवं मंगलमय ही होता है। संघर्षों का डटकर मुकाबला करना ही बुद्धिमानी है। निराश होकर बैठ जाने से कभी किसी को कुछ प्राप्त नहीं हुआ। प्रभु का सहारा लेकर अपने पुरूषार्थ से परिस्थितियों को बदलने के लिये अनवरत प्रयास करते रहना चाहिये।
राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त ने अपनी कविता नर हो, न निराश करो मन को के माध्यम से जन-जन को निराशा से बचने और आशावादी दृष्टिकोण अपनाने का संदेश दिया है। मनुष्य को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति कहा गया है और उसमें ईश्वर की असीम शक्ति निहित है। इसीलिये वह परमात्मा का अंश भी कहलाता है- ईस्वर अंस जीव अविनासी। वह अपनी बुद्धि, विवेक एवं सूझ-बूझ से कठिन से कठिन कार्य प्रभु के आश्रय से कर डालता है। संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं है, जिसे कर पाना मनुष्य के लिये दुर्लभ हो। असंभव कार्यों को सम्भव करने का प्रयास तभी सफल होता है, जब मनुष्य आशावादी होकर पूरे उत्साह और उमंग के साथ आगे बढ़ता है।
सफलता या विजय की आशा ही मनुष्य को विषम परिस्थितियों में संघर्ष करने की शक्ति प्रदान करती है। सुखद भविष्य की आशा में अपने मन को कमजोर करना ठीक नहीं है। आज चारों तरफ लोग विभिन्न प्रकार की समस्याओं तथा कष्टों से घिरे दिखलायी पड़ते हैं और दिन-प्रतिदिन यह स्थिति और भी विकराल रूप में सामने आ रही है, जितना ही हम इससे छूटने का प्रयास करते हैं, तो पाते हैं कि समस्या का हल मिलना तो दूर, वह और भी जटिल बन जाता है। इसका परिणाम होता है, मानसिक तनाव तथा निराशा आदि नकारात्मक भाव का मन में प्रवेश हो जाता है, जिसके फलस्वरूप हमारा स्वास्थ्य तो खराब होता ही है, व्यवहार भी हम दूसरों से ठीक तरीके से नहीं कर पाते हैं। जिसके पश्चात् और भी ग्लानि एवं पश्चाताप महसूस करने लगते हैं।
जीवन अनेक संघर्षों से भरा हुआ है। संघर्षों का सामना करने में ही हमारी परीक्षा है। इस कठिन परीक्षा में हम तभी सफल होंगे जब हम आशावान् रहेंगे। अंग्रेजी का एक मुहावरा है, ‘अप्रिय अथवा दुःखद परिस्थितियां अकेले नहीं आती है’ अनेक समस्यायें एक साथ आकर हमारी शक्ति और साहस को चुनौती देती हैं। अक्सर देखने को मिलता है कि कि परिवार में किसी प्रियजन की गंभीर बीमारी, दीर्घ कालीन महंगी चिकित्सा, परिवारिक खर्चं का बोझ, सामाजिक रीति- रिवाज का पालन करना, आय के स्त्रोत में कमी आदि-आदि समस्याओं का एक साथ उत्पन्न हो जाना व्यक्ति के मन को विचलित कर देता है, लेकिन इसी समय मनुष्य के धैर्य की परीक्षा होती है, इसलिये परीक्षा की इस घड़ी में हार मानने की आवश्यकता नहीं। भील बालक एकलव्य के जीवन से सभी लोग परिचित हैं। गुरु द्रोणाचार्य द्वारा शिक्षा देने से मना करने पर उसने हार नहीं मानी और गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति में पूर्ण रूपेण आस्था रखकर सतत् अभ्यास द्वारा अपूर्व दक्षता प्राप्त की।
असाध्य बीमारी की दशा में भी आशावादी व्यक्ति को सफलता मिलती है। आशावान रहो, मन में विश्वास रखो कि चिकित्सा से लाभ मिल रहा है। रोग दूर हो रहा है। भविष्य सुखद है, आशावादी रहना ही युवा अवस्था है और नैराश्य का भाव तो बुढ़ापे का प्रतीक है।
मनुष्य जीवन में भी प्रकृति की तरह परिवर्तित होता रहता है। रात के अंधकार के बाद दिन होता है, गर्मी की भीषण तपन के बाद वर्षा ऋतु का आगमन होता है, तपन समाप्त होकर शीतलता का अनुभव होता है, इसी प्रकार दुःख के बाद सुख मिलता है। हमेशा आशावान रहना हमारा कर्तव्य होना चाहिये। मन में आशा और विश्वास में कमी न हो। यह समय भी गुजर जायेगा का स्मरण रखना ही बुद्धिमानी है। अस्तु आशावान् रहना चाहिये और समय को विनाशी समझकर प्राप्त समय का सद्-उपयोग करने की चेष्टा करनी चाहिये।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा है- आशा अमर है, उसकी आराधना कभी निष्फल नहीं होती। अर्थात् आशावादी विचारधारा के व्यक्ति का सोचने का ढंग सदैव सकारात्मक रहता है। वह हर परिस्थिति में प्रसन्न रहता है और अनेक सद्गुणों के कारण अपने कार्य में सफलता प्राप्त करता है। विंस्टन चर्चिल आशावादी थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बुरे समय में वे इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री थे, जब उनसे एक पत्रकार ने पूछा कि हिटलर के नाजी साम्राज्य के विरुद्ध उनके देश का सबसे बड़ा हथियार क्या है? उन्होंने तत्काल उत्तर दिया- वही जो हमेशा रहा है- आशा। यदि लोगों में आशा है तो वे काम करते रहेंगे, संघर्ष करते रहेंगे तो विजय भी उन्हें मिल सकती है। आशा मनोबल को बढ़ाती है।
इस संघर्षमय जीवन में सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश आते रहते हैं। आने-जाने का क्रम चलता रहता है। परिस्थितियां बदलती रहती हैं, किंतु मनुष्य को अपनी विवेक-शक्ति से स्वयं को स्थिर एवं धीर बना रहना चाहिये। अप्रिय परिस्थितियों को भगवान् का मांगलिक विधान जानकर धैर्य के साथ सहन करना चाहिये। सुख-दुख जीवन में कर्म तथा परमात्मा के विधान के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। परमात्मा का विधान मनुष्य के कल्याण के लिये ही होता है। प्रत्येक दुःख को कर्म का विधान समझकर ही स्वीकार करना चाहिये। यह स्मरण रखना चाहिये कि ईश्वर हमें सुकर्म करने की निरन्तर प्रेरणा दें।
किसी भी घटना या परिस्थिति का प्रभाव सबसे पहले मन पर पड़ता है, मन में अनेक संकल्प-विकल्प चलते रहते हैं, जो ऊहा-पोह की स्थिति में ला खड़ा कर देते हैं। परेशान कर देते हैं, इसके लिये मन को सकारात्मक दिशा-निर्देश की आवश्यकता है, जिससे वह सहज स्थिति में बना रहे। बुद्धि को ठीक-ठाक गति देनी होगी, सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ की परिस्थितियों में संतुलन बनाये रखने के लिये हमें अपने जीवन में सद्बुद्धि व सुकर्म को स्थान देना चाहिये, सब कुछ परमात्मा को समर्पित करना होगा। जब व्यक्ति सच्चे मन से सम्पूर्ण रूप से प्रभु को सब कुछ समर्पित कर देता है, तो सारी जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है और साधक स्वयं को हल्कापन अनुभव करता है। परन्तु यह स्थिति इतनी सरल भी नहीं है, क्योंकि लेश मात्र अभिमान भी सद्-गुणों को धारण करने में बाधा उत्पन्न करता है।
मनुष्य के जीवन में आशावादी दृष्टि कोण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य यदि आशावादी है तो वह हर प्रकार की परिस्थिति में अपना मनोबल बनाये रख सकता है और वह अपने कार्य, व्यवसाय में सफलता प्राप्त कर सकता है। आशावादी व्यक्ति के लिये कठिन कार्य भी आसान बन जाता है, जबकि निराशावादी के लिये आसान कार्य भी कठिन बन जाता है। आशावादी दृष्टि कोण रखने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है और उसकी प्रसन्नता ही उसे चिंता मुक्त रखती है। प्रसन्नता और चिंता मुक्त स्वभाव के कारण ही उसकी समस्यायें आसानी से सुलझ जाती हैं। ऐसे भाव से ही निरन्तर जीवन में सक्रिय रहना आवश्यक है, और जीवन को नित्य उत्सव की तरह जीना चाहिये। तब ही उसके जीवन में न्यूनमय स्थितियां समाप्त होनी प्रारम्भ हो जाती हैं।
नूतन वर्ष आशान्वित भावों का गुजंरण है, शरद ऋतु की शीतलता, नव चेतना मन में जोश, उत्साह, ऊर्जा का प्रतिपादन करते हुये साधक-साधिकाओं को जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और कर्म शक्ति से आपूरित करता है। क्योंकि ईश्वर उपासना और सद्गुरु शरण में ही सद्-चेतना का प्रवाह हम आत्मसात कर सकते हैं। जिसे धारण कर साधक-साधिकायें जीवन की अनेक सुस्थितियां आत्मसात करने में क्रियाशील होते हैं। इन्हीं भावों को प्राप्त करने हेतु प्रत्येक साधक को नूतन वर्ष की पूर्व संध्या में सद्गुरुदेव का आर्शीवाद व साधनात्मक क्रियाओं के माध्यम से नूतन वर्ष को सर्वश्रेष्ठ बनाने की क्रिया से युक्त किया जायेगा। यदि वास्तव में हम जीवन के प्रति गंभीर हैं और स्वयं को श्रेष्ठता प्रदान करना चाहते हैं, तो नववर्ष की प्रातः बेला में पहली किरण सद्गुरुदेव के तपस्यांश शक्ति युक्त तेजस्वी आर्शीवाद् का ही होना चाहिये, तभी नूतन वर्ष के प्रारम्भ में ही जीवन में सद्-स्थितियों का निर्माण और योग-भोग-सुख प्रसन्नता युक्त जीवन की प्राप्ति हो सकेगी। जिससे जीवन सर्व स्वरूपों में सुमंगलमय बन सकेगा।
आप सभी का हृदय भाव से स्वागत है—!!
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,