कौरवों को छोड़ अपने भाईयों का साथ दो पुत्र! कर्ण कहता है कि युद्ध प्रारंभ होने से ठीक पहले यदि वह कौरवों का साथ छोड़ देता है तो यह क्षत्रिय धर्म के विरूद्ध होगा, ऐसा मनुष्य देशद्रोही होता है। वह कुन्ती को अपनी माता स्वीकार करता है, परन्तु वह अपने माता-पिता का त्याग कर देने से साफ मना कर देता है। वह कहता है कि पिछले तेरह वर्षों से वह सम्मान पूर्ण, राजसी ठाठ-बाट वाला जीवन जी रहा है, वह केवल दुर्योधन की सहायता से, ऐसे मित्र का साथ छोड़ना मुमकिन ही नहीं है। उसे अपनी माता की स्थिति पर दया आती है और इसीलिये माँ कुन्ती को वचन दे देता है कि वह पाण्डवों का वध नहीं करेगा केवल अर्जुन को छोड़कर या तो वह अर्जुन का वध करेगा, या अर्जुन उसका और दोनों ही स्थितियों में उनके पाँच पुत्र ही रहेंगे। इतना कहकर कर्ण वहाँ से चला जाता है। कौरवों और पाण्डवों की सेना युद्ध के लिये तैयार थी।
भीष्म कौरव सेना के मुख्य सेनापति थे। उन दिनों में योद्धाओं को अतीरथ, महारथ, पूर्णरथ, अर्धरथ आदि श्रेणियों में उनके पराक्रम व कौशल के अनुसार बांट दिया जाता था। यहाँ भी कर्ण को भीष्म द्वारा अपमानित किया गया था। भीष्म ने कर्ण को अर्धरथ (कम पराक्रमी) की श्रेणी में अंकित किया, भीष्म के अनुसार कर्ण की उसको गुरु ने अपनी विद्या को भूल जाने का श्राप दिया हुआ था, इसके अलावा वह रक्षा कवच और कानों के स्वर्ण कुण्डल जो जन्म से ही कर्ण के शरीर पर सुशोभित थे।
उन्हें भी कर्ण ने दान कर दिया, ऐसा करने से उसकी सुरक्षा व बल में कमी आई होगी, ये कारण देकर उसे उपेक्षाजनक श्रेणी में रखकर अन्य योद्धाओं से बहुत नीचे का दर्जा दे दिया। इसकी सूचना मिलने पर कर्ण को दुःख हुआ उसने क्रोध पूर्ण होकर भीष्म से इसका कारण पूछा कि क्यों वे कर्ण से इतनी घृणा करते हैं? क्यों उसका अस्तित्व हमेशा भीष्म को चुभन देता है? कर्ण क्रोध में आकर भीष्म को बुजुर्ग और गैर जिम्मेदार कहता है। कर्ण भीष्म की उपस्थिति में युद्ध लड़ने से मना कर चला जाता है। युद्ध आरंभ होने के बाद दस दिन तक कौरवों की सेना भीष्म के नेतृत्व में पाण्डव सेना का डटकर सामना करती है, स्वयं भीष्म हजारों सैनिकों को मार गिराते हैं। यहाँ तक कि अर्जुन को भी कौरव सेना का सामना करना कठिन प्रतीत होने लग जाता है।
दस दिवस के युद्ध के बाद हजारों तीर भीष्म के शरीर को छलनी कर देते हैं, इतने तीर कि उन तीरों से उनकी शैय्या बन जाती है। जब कर्ण को उनकी स्थिति ज्ञात होती है, तो अपना रोष, व उनके द्वारा किया गया अपमान व भेद-भाव सब भूलकर उनके समक्ष पहुँच जाता है। कर्ण को देख भीष्म की आँखों से अश्रुधारा बह जाती है, वे कर्ण को आलिंगन कर बोलते है कि ‘पुत्र! तुम्हें लगता है कि मैं तुमसे घृणा करता हूँ, परन्तु ऐसा है नहीं, तुम तो नमन योग्य हो, वीरता में तुमसे बढ़कर यहाँ कोई नहीं है। इस युद्ध कला में तुम कृष्ण व अर्जुन के बराबर पराक्रमी हो। तुम्हें अपने बल पर बहुत घमंड है और तुम्हारे अभिमान को नापने के लिये ही मैं तुमसे कठोरता का व्यवहार करता था। कर्ण ने भी भीष्म से कटु वचन बोलने के लिये क्षमा माँगी। भीष्म ने कर्ण को पाण्डवों के साथ होकर व दुर्योधन को युद्ध शांत कर देने की सलाह देने को कहा क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि कौरव युद्ध में पराजित हो जायेंगे। परन्तु कर्ण ने ऐसा करने से मना कर दिया क्योंकि दुर्योधन का कर्ण पर विश्वास था और कौरवों की विजय उस पर निर्भर थी।
भीष्म के बाद द्रोणाचार्य ने मुख्य सेनापति का पदभार संभाला उन्होंने पाँच दिवस तक कुशलतापूर्ण युद्ध लड़ा इसके बाद उनकी भी मृत्यु हो गई। कर्ण ने अपना महत्वपूर्ण वैजयन्ती शस्त्र जो उसने अर्जुन का वध करने के लिये संभाल कर रखा था, लेकिन उसी से उसने भीम के बेटे घटोत्कच का वध कर दिया। क्योंकि कौरव सेना के लिये उसका सामना करना कठिन हो रहा था। द्रोणाचार्य के बाद कर्ण मुख्य सेनापति बना। पहले ही दिन कर्ण ने नकुल को बुरी तरह से हराया, पर अपने वचन को ध्यान में रखते हुये नकुल के प्राण नहीं लिये। जबकि नकुल पहले ही कर्ण के तीन पुत्रों का वध कर चुका था। अर्जुन का वध करने के लिये कर्ण बड़ा आतुर था। परन्तु उसे उसका रथ चलाने के लिये एक कुशल सारथी की आवश्यकता थी। दुर्योधन ने एक बहादुर सारथी शल्य को भेजा। परन्तु इस निर्णय से भी कर्ण को हानि ही हुई क्योंकि शल्य को पाण्डव ज्यादा प्रिय थे। पाण्डवों ने पहले ही शल्य से प्रार्थना कर ली थी कि वह कर्ण से ऐसे वार्तालाप करें कि वह अपनी हिम्मत हार जाये। यह कर्ण का ही दुर्भाग्य था कि जिस सारथी को इस महत्वपूर्ण क्षण में उसकी सहायता करनी चाहिये था। वही उसके समक्ष अर्जुन के गुणगान कर रहा था। परन्तु कर्ण ने धैर्य नहीं खोया, उस दिन अपने दो पुत्रों को खो देने के बावजूद कर्ण ने अर्जुन के साथ भीषण युद्ध किया कि दोनों ही सेनायें उसे देखकर रोमांचित और उसके प्रति श्रद्धा से भर गयी।
अर्जुन की कर्ण के आगे एक नहीं चल रही थी, कृष्ण उसे और शक्ति के साथ लड़ने के लिये प्रोत्साहित कर रहे थे। अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र से निशाना साधा, कौरव सेना इससे अस्त-व्यस्त होकर भागने लगी, परन्तु कर्ण अपने स्थान से नहीं हिला, शीघ्र ही उसने उसके विपरीत वार कर उसके प्रभाव को रोक दिया। अर्जुन के सारथी के रूप में श्री कृष्ण उसके प्राणों की रक्षा कर रहे थे। कर्ण अपने सर्प बाण के व्यय होने के बाद और शक्तिशाली बाण चलाना चाह रहा था परन्तु परशुराम द्वारा दिये श्राप के कारण वह उसे प्रयोग करने की विधि स्मरण नहीं कर पा रहा था। इसके अलावा, उसके रथ का पहिया धरती में धंस गया था, कर्ण को धरती माँ से भी श्राप था। क्योंकि एक बार उसने एक बच्ची के हाथ से घी गिर जाने पर धरती माँ से घी निकाल कर उसकी सहायता की थी, परन्तु इस क्रिया में धरती को अत्यन्त कष्ट झेलना पड़ा था, इसलिये उन्होंने कर्ण को कभी भी मुसीबत के समय उसकी सहायता न करने का श्राप दे दिया था। इसीलिये अपना पूरा बल लगा देने के बाद भी कर्ण रथ को सीधा नहीं कर पा रहा था।
कर्ण ने रथ से उतरने से पहले ही अर्जुन को वार करने को मना कर दिया था क्योंकि यह युद्ध नियम के अनुसार सही था। अर्जुन इसके लिये मान भी गया था। परन्तु श्री कृष्ण को अंदाजा था कि यही सही क्षण है कर्ण का अंत करने का क्योंकि अर्जुन के लिये कर्ण का युद्ध में सामना करना असंभव था। कृष्ण ने अर्जुन को निहत्थे कर्ण पर निशाना साध देने को कहा। अर्जुन ऐसा करने के विरूद्ध था, परन्तु बाद में उसने कृष्ण के समझाने के बाद अंजलिका बाण से कर्ण पर निशाना साध दिया। तीर लगते ही कर्ण का प्रकाशमान चेहरा धड़ से अलग होकर नीचे गिर गया। इस प्रकार अपने मित्र और स्वामी दुर्योधन के लिये कर्ण अपना जीवन न्यौछावर कर देता है और स्वामी भक्ति का उदाहरण छोड़ जाता है।
निधि श्रीमाली
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