विश्वामित्र जी बोले- मुनीश्वर! मेरा कण्ठ प्यास से व्याकुल हो रहा था। मैं जल पीने के लिये आपके आश्रम पर आया था सो यहाँ शीतल जल पी लिया। मेरी प्यास बुझ गयी है। अब आज्ञा दीजिये, जिससे अपने घर को जाऊँ।
वशिष्ठ जी ने कहा- राजन्! मध्याह्न काल में सूर्य अत्यन्त तापदायक है। अतः इस समय मेरे आश्रम में ही भोजन करके अपराहण काल में जाइयेगा।
विश्वामित्र जी बोले- मुने! मैं चतुरंगिणी सेना के साथ यहाँ आया था। आपके आश्रम के बाहर मेरी सेना भी स्थित है। जो स्वामी अपने सेवकों के भूखे रहने पर भी भोजन कर लेता है, वह भयंकर नरक में जाता है। इसलिये मुझे घर लौटने की आज्ञा दीजिये।
वशिष्ठजी ने कहा- यदि आपके सेवक भूखे हैं, तो उन सबको बुलाइये, मैं सभी को भोजन से तृप्त करूँगा। यह सुनकर राजा विश्वामित्र ने सम्पूर्ण सेना को वहीं बुला लिया और वशिष्ठ स्नान, संध्या, तर्पण तथा जप करके ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर आसन पर विराजमान हुये तथा उन्होंने नन्दिनी नामक धेनु का आवाहन किया और वह विश्वामित्र के आगे जाकर खड़ी हो गयी। तब वशिष्ठ जी ने कहा- तुम अनेक प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य तथा पेय आदि विविध खाद्य पदार्थों के द्वारा सेना सहित महाराज विश्वामित्र को तृप्त करो। साथ ही इनके घोड़े और हाथी आदि के लिये भी चारे-दाने आदि की व्यवस्था करो।
बहुत अच्छा कहकर नन्दिनी ने क्षण भर में दस हजार सेवकों को उत्पन्न किया। उन सबने सब प्रकार के भोज्य पदार्थों को लेकर विश्वामित्र की सेना के प्रत्येक व्यक्ति को पृथक्-पृथक् भोजन परोसा। सेना, परिवार, हाथी, ऊँट, घोड़े और बैल आदि सहित महाराज विश्वामित्र पूर्णतः तृप्त हो गये। यह कौतुक देख कर मन्त्रियों सहित विश्वामित्र ने विचार किया कि इस उत्तम धेनु को अपने घर ले चलना चाहिये। ये ब्राह्मण देवता इसे रखकर क्या करेंगे।
ऐसा विचार करके विश्वामित्र ने कहा- मुनिश्रेष्ठ! यह गौ मुझे दे दीजिये। इसके मूल्य के रूप में मैं आपको उत्तम रथ, हाथी, घोड़े तथा अन्य मनोवांछित पदार्थ दूँगा। वशिष्ठ जी ने कहा- राजन्! यह समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली हमारी कामधेनु है। ब्राह्मणों के लिये साधारण गौ का विक्रय भी अनुचित है, फिर समस्त कामनाओं को देने वाली नन्दिनी की तो बात ही क्या है। महाराज! जो श्रेष्ठ ब्राह्मण गाय बेचकर उसका धन लेता है, उसे माता को बेचने वाला चाण्डाल समझना चाहिये। इसलिये महाभते! यह नन्दिनी मैं आपको नहीं दूँगा।
विश्वामित्र बोले- मुने! इस पृथ्वी पर जो कुछ भी रत्न भूत पदार्थ है, वह सब राजा का धन है, ऐसा नीतिज्ञ विद्वान् कहते हैं। अतः यह रत्नभूता नन्दिनी गाय मेरे द्वारा बल पूर्वक ले ली जा सकती है।
इतना कहकर उन्होंने नन्दिनी को बल पूर्वक ले जाने की आज्ञा अपने सेवकों को दे दी। उनके अनुचर नन्दिनी को डंडों से पीटते हुये ले जाने लगे। तब नन्दिनी ने वसिष्ठ जी से पूछा- मुने! क्या आपने मुझे इनको दे दिया है, जो ये मालिक की भाँति मुझे बलपूर्वक ले जा रहें हैं?
वशिष्ठ जी ने उत्तर दिया- नहीं, मैं अपने प्राणों पर संकट आ जाये तो भी तुम्हें त्याग नहीं सकता। ये लोग अन्याय पूर्वक तुम्हें ले जा रहें हैं। तुम स्वयं ही इनसे अपनी आत्मरक्षा करो। इतना सुनकर नन्दिनी ने क्रोध पूर्वक हुंकार किया, हुंकार करते ही उसके शरीर से असंख्य म्लेच्छ-सेना प्रकट हुई।
इस सेना ने विश्वामित्र के समस्त सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया। तब विश्वामित्र ने स्वयं ही धनुष लेकर उस सेना का सामना किया। नन्दिनी के इन सैनिकों ने विश्वामित्र के हाथी, घोड़े आदि सब का सफाया कर डाला और उन्हें भी मारने के लिये सब ओर से घेर लिया। उनके प्राणों पर संकट देख वसिष्ठ जी ने कहा- नन्दिनी! राजा अवध्य होता है, इन्हें बचाओ। राजा के होने से ही सब लोक सुरक्षित रहकर सन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं और कुमार्ग से दूर रहते हैं।
यह सुनकर नन्दिनी ज्योंही अपने म्लेच्छ-सैनिकों को मना करने के लिये आयी त्योंही विश्वामित्र ने तलवार उठाकर उस पर घातक प्रहार करने का विचार किया। यह देख वशिष्ठ जी ने तलवार सहित उनकी बाँह को स्तम्भित कर दिया उनकी वह बाँह हिल-डुल नहीं सकी। राजा विश्वामित्र बड़ी बुरी दशा में पड़ गये। उन्होंने लज्जित होकर वशिष्ठ जी से कहा- मुनि श्रेष्ठ! इन भयंकर म्लेच्छों के हाथ से मारे जाते हुये मुझ असहाय की अब आप ही रक्षा करें तथा मेरी इस बाँह को स्तम्भ रहित (हिलने-डुलने लायक) कर दें। अब मैं घर को लौट जाऊँगा। युद्ध से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।
उनके ऐसा कहने पर वशिष्ठ जी ने उनकी उस भुजा को स्तम्भ दोष से मुक्त कर दिया और हँसते हुये कहा- ‘राजन्! जाओ, मैंने तुम्हारी बाँह ठीक कर दी। अब कभी ब्राह्मणों के साथ बैर न करना।
वशिष्ठ जी की यह आज्ञा पाकर विश्वामित्र जी पैदल ही अपने महल को गये। संध्या के समय नगर द्वार पर पहुँच कर वे अपने आप ही कहने लगे- क्षत्रियों के बल, पराक्रम और जीवन को धिक्कार है! केवल ब्राह्मण बल और ब्राह्मण तेज ही प्रशंसा के योग्य है। अब मुझे ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे ब्राह्मण बल प्राप्त हो। आज से मैं अपना राज्य त्यागकर बड़ी भारी तपस्या करूँगा। ऐसा निश्चय करके उन्होंने अपने पुत्र विश्वसह को राजपद पर स्थापित कर दिया और स्वयं तपस्या के लिये तपोवन को प्रस्थान किया।
दिसम्बर अंक में विश्वामित्र की तपस्या और ब्राह्मणत्व तेज द्वारा अथाह शक्ति प्राप्त कर वशिष्ठ पर आक्रमण करना।
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