पराजय का तात्पर्य है, पीड़ा, हानि, नुकसान, बाधा, विरोध, कार्य में अपूर्णता, अपमान इत्यादि। यदि कोई कार्य सिद्ध ना हो तो यह व्यक्ति की पराजय है और आगे की क्रियाओं के लिये उत्साह भी समाप्त हो जाता है। पराजित होना या ना होना यह भाग्य पर ही निर्भर है, इसका सत्य से कोई सरोकार नहीं है। यह हमारे अन्तः मन की न्यून शक्तियों और दैवीय ऊर्जा की कमी व निश्चेतना पर निर्भर करता है, साथ ही उन दोषों पर जो हमारे प्रगति के मार्ग को बाधित कर रहें हैं, ऐसी बाधायें अनेक रूप में हमारे सामने आती हैं, जो हमारे किसी भी कार्य की पूर्णता को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। वे आसुरी शक्तियां जीवन के ताल-मेल को विखण्डित कर देती हैं। जिसके कारण व्यक्ति को पराजय का सामना करना पड़ता है, हानि उठानी पड़ती है, व्यक्ति दीन-हीन जीवन जीने को विवश होता है।
वहीं अपराजय होने का तात्पर्य है, कि आपके जीवन की सभी अड़चने, जो दशानन स्वरूप में स्थित दुख, बाधा, पीड़ा, असफलता, न्यूनता, धन अभाव, परिवार में कलह, संतान सुख में बाधा, ग्रह दोष, पितृ दोष हैं, उन पर व्यक्ति विजय प्राप्त कर ले, उसके प्राणों में ऐसी ऊर्जा का संचार हो, कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसको विजयश्री प्राप्त हो।
मनुष्य जीवन प्राप्ति का भी यही उद्देश्य है कि वह अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सकें, भौतिक सुखों व भोगों से परिपूर्ण हो। उसे निरंतर उन्नति प्राप्त हो, सफलमय जीवन की और निरंतर गतिशील रहे। यह संभव है दैवीय शक्ति द्वारा, उचित समय पर श्रेष्ठ क्रिया द्वारा, जिसे आत्मसात कर साधक जीवन में निरन्तर श्रेष्ठता की ओर अग्रसर हो। ऐसा ही सिद्ध मुहुर्त विजय दशमी महापर्व है, जो आपके प्राणों में ऐसी शक्ति भर देता है, कि पूर्ण चैतन्यमय ऊर्जावान होकर परिस्थितियों पर नियंत्रण कर सफलता की दिशा में क्रियाशील हो सकते हैं।
विजय दशमी के चैतन्य दिवस पर पुरूषोत्तममय विजय श्री दीक्षा ग्रहण करने से साधक जीवन में आच्छादित राक्षसी दुख पूर्ण स्थितियों पर विजयश्री प्राप्त करता ही है। जिससे वह अभाव, असफलता, पराजय रूपी रावणी आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर मर्यादा पुरूषोत्तममय षोड़श कला युक्त चेतना से आप्लावित होता है, साथ ही भौतिक जीवन में सभी सुखों का पूर्णता से उपभोग कर पाता है और उसके जीवन में आनन्द, प्रसन्नता, वृद्धि का भाव बना रहता है।
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