ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति ।
कोपेन चास्या वदनं मषोवर्णमभूतदा ।।
भृकुटीकुटिलातस्या ललाटफलकाद्हुतम् ।
काली करालवदना विनिष्कान्तासि पाशिनो ।।
विचित्रखट्वांगधरा नरमाला विभूषणा ।
द्वीपिचर्मपरिधाना शुष्कमांसातिभैरवा ।
अतिविस्तारवदना जिव्हाललन भीषणा ।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिंमुखा ।।
सा वेगेनाभिपतिता पातयन्ती महासुरान् ।
सैन्ये तत्र सुरारीणाममक्षयत् तद्बलम् ।।
तब अम्बिका ने उन शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया। उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया, ललाट में भौहें टेढ़ी हो गयीं और वहां से त्वरित गति के साथ विकरालमुखी काली प्रकट हुई, जो तलवार और पाश लिये हुये थी। विचित्र खट्वांग धारण किये और चीते के चर्म की साड़ी पहने वे नर-मुंडों की माला से विभूषित थीं। उनके शरीर का मांस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढांचा था, जिससे वे अत्यंत भयंकर जान पड़ती थीं। उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं। उनकी आंखें भीतर की ओर धंसी हुई थीं। बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों की उस सेना पर टूट पड़ी और उन सबका भक्षण करने लगी।
पराशक्ति के इस दुर्धर्ष अवतार की उपासना करना कोई साधारण काम नहीं है। कोई बिरला उपासक ही होता है, जो काली-साधना में तत्पर होता है और सफलता प्राप्त करता है। संसार के ऐसे ही बिरले उपासकों में एक थे- स्वामी विवेकानन्द के गुरु ‘रामकृष्ण परमहंस जी’। रामकृष्ण परमहंस की सिद्धि जन्मजात थी। प्रमाणित दस्तावेज बतलाते हैं कि उनकी कुण्डलिनी बाल्यावस्था में ही जाग्रत हो गई थी। यही कारण है कि वे जाने-अनजाने भाव में जो भी कृत्य करते थे, उसी में उनकी आराधना पूरी हो जाती थी। कुण्डलिनी जाग्रत साधकों के लिये कर्मकाण्ड आवश्यक नहीं होता। पराशक्ति कुण्डलिनी अपने साधकों की स्वतः सहायता करती है और सिद्धि के अवरूद्ध द्वारों को खोलती चलती है।
रामकृष्ण परमहंस जन्म से ही साधक थे, सिद्ध थे, इसमें दो मत हो ही नहीं हो सकते। दार्शनिक शब्दावली में परमहंस उसे कहते हैं, जिनके व्यवहार में ‘उन्माद’ होता है, आवेश होता है, जिन्हें देह की सुधि नहीं होती, अपनी आत्मा के स्वरूप में जो सतत् लिप्त रहते हैं, मन तो इनका इतना भोला होता है, जैसे किसी शिशु का हो और हठ ऐसा कि माता से चाहे जो कार्य करवा ले।
पराम्बा शक्ति अनेक रूपों में रामकृष्ण परमहंस के सामने प्रकट हो चुकी थीं, होती रहती थी, और उनकी साधना के पथ को प्रशस्त करती थी। कभी राधा के रूप में, अल्हड़ ग्वालिन की वेशभूषा में छम-छम नूपुर झनकाते हुये, हाथों में दूध का मटका थामें, पराशक्ति रामकृष्ण परमहंस के सामने प्रकट हुई थी और अपने हाथों से उन्हें दूध पिलाया था। एकांत जंगल में, जहां किसी नारी के अस्तित्व होने की सम्भावना न हो, इस तरह के विचित्र दृश्य को आश्रम के सैकड़ों शिष्यों ने देखा होगा, किन्तु कोई यह नहीं पहचान सका कि ग्वालिन के वेश में स्वयं पराशक्ति हैं, जो अपने भूखे साधक को निर्धारित समय पर दूध प्रदान करने के लिये प्रकट हुई थीं। स्वयं रामकृष्ण परमहंस उसे नहीं पहचान पाये, जब तक दुग्धपान करते रहे। किन्तु जब वे जाने लगी थीं, परमहंस जी ने सचेत होकर पूछा था – ‘मां! मां! कौन हो तुम? जो इस बीहड़ वन में मुझ भूखे संन्यासी को दूध पिला रही थीं।’ जैसे ओस में भीगे खूबसूरत फूल एक साथ खिल-खिला पड़े हों, वह ग्वालिन बाला हंस पड़ी थी और अपने हाथों के कंगन खनखनाती बोल पड़ी थी- ‘स्वामी जी, तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं ही तो हूं तुम्हारी राधा रानी, जिसे तुम समाधि की अवस्था में स्मरण कर रहे थे?’ रामकृष्ण परमहंस को उसी क्षण से यह विश्वास हो गया था कि मां हर पग में, हर सांस में उनके साथ हैं।
प्रस्तुत सत्य-कथा यह सिद्ध करती है कि मातृ शक्ति के रूप में पराशक्ति की आराधना करने वाले साधकों के शरीर का भरण-पोषण वह मां ही करती है, जिसने जगत को उत्पन्न किया है, उसे धारण करती है और अंत में संहार करती है। काली के रूप में मातृ-शक्ति विध्वंस का जीवंत प्रतीक है। भूख-प्यास, आदि-व्याधि, महामारी, ध्वंस, नाश, अंधेरा, बाढ़, भूकम्प सब उसी के रूप हैं- उसकी सेना के गण हैं। पराशक्ति की इस रूप में भी रामकृष्ण परमहंस ने उपासना की थी, तब वे भाव-योग की साधना कर रहे थे। किसी सन्त ने निष्काम कर्म के सम्बन्ध में उन्हें कुछ समझा दिया था तो अपने स्वभाव की विचित्रता के अनुसार वे विलक्षण ही प्रयोग करने लगे थे। वे एक हथेली में मिट्टी और दूसरी हथेली में स्वर्ण-मुद्रा लेकर गंगा के तट पर बैठ जाया करते थे। पहले मिट्टी जल-धारा में छोड़ते थे और कहते थे ‘यह मिट्टी है।’ फिर दूसरी हथेली से स्वर्ण-मद्रा प्रवाहित करते हुये कहते थे – ‘यह भी मिट्टी ही है।’
ऐसा विचित्र और रहस्यमय व्यक्तित्व था रामकृष्ण परमहंस का। उनके मन में काली की साधना करने की वृत्ति का जन्म होते ही वह मां की भयावह प्रतिमा के सामने बैठ जाते थे और कुछ क्षणों में ही भावार्त होकर रोने लगते थे- मां! मां! दर्शन दो!—दर्शन दो!!! क्या आज भी मुझे लौटा दोगी?’ सारी रात्रि जागते हुये वे मां को इस तरह पुकारा करते थे। कभी क्रोधित होकर मातृ-प्रतिमा के मुखारबिन्द को टक-टकी बांध कर देखने लगते थे (वैज्ञानिक भाषा में, मानो प्रतिमा के मुख पर त्राटक कर रहे हों) दांत किट-किटाते हुये परमहंस जी जब क्रोधित बालक की तरह फुंफकारे हुये काली से बातें करते थे, तब ऐसा लगता था, ध्वंस की देवी अपने इस हठी बालक के क्रोध का सम्मान करते हुये शांत और सौम्य बनी हुई हैं।
अर्धरात्रि का नीरव वातावरण, शायद अमावस्या की रात, सामने काली की भयावह प्रतिमा और भाव-योग में तल्लीन रामकृष्ण परमहंस। अखण्ड ज्योति के धीमे प्रकाश में और अंधकार में जैसे द्वन्द्व चल रहा था। उस महायोगी के अंतर्मानस में भी विभिन्न भाव-तरंगों का संघर्ष चल रहा था। ‘मां!— मां!! दर्शन दो!’ शिशु जैसे हठ पकड़ता जा रहा था- ‘आज तो दर्शन करूंगा ही मां! मुझे अपने प्राणों का मोह नहीं!— मां!—आज तो प्रकट हो।’ जैसे अपरिमित सागर में पछाड़ खाती लहरें और कोई तैरते हुये किनारे की तलाश में हों।
रावण पर विजय प्राप्त करने के लिये महाशक्ति की आराधना करते हुये भगवान श्रीराम के जो भाव थे, वैसे ही भाव थे रामकृष्ण परमहंस के भी। पराशक्ति ने राम के साथ एक खेल-खेला था। राम मंत्र जपते थे और ध्यानावस्था में हाथ बढ़ा कर सहस्त्र कमल-दल देवी की प्रतिमा पर अर्पित करते थे, जब अंतिम पुष्प था शेष, तब देवी साक्षात् प्रकट हुई और पूजा का वह फूल उठाकर अंतर्ध्यान हो गयीं। जब राम ने मंत्र-जप पूरा कर कमल-पुष्प के लिये हाथ बढ़ाया तो गायब! प्रभु की आंखें खुल गई। असिद्धि और सिद्धि का भीषण युद्ध। राम के अंतर्मानस ने कहा- ‘क्यों चिन्ता करते हो। माता कौशल्या तुम्हें राजीव-नयन कहती थी। दो पुष्प शेष हैं अभी, एक अर्पित कर यह पुरश्चरण पूरा करो’ तब जिस क्षण राम ने निश्चय किया कि अपनी एक आंख बाण से बेंधकर देवी पर अर्पित कर देंगे।
कुछ वैसे ही भाव से उद्वेलित हो कर रामकृष्ण परमहंस ने भी अपनी आंखें खोली। सामने देखा काली की मूर्ति। रक्तिम आंखें, लपलपाती जिह्ना, खड्ग, खप्पर और असुर-मुण्ड से बहती रक्त की धारा-‘मां! मां!! दर्शन दे।’ आर्त होकर उस भक्त ने पुकारा, फिर सहसा ही हाथ बढ़ाकर काली के हाथ का खड्ग छीन लिया।- ‘आज तो दर्शन करूंगा ही।’ उस योगी ने जिस क्षण आवेशित होकर अपनी गर्दन काटने का निश्चय कर लिया, विद्युत की जैसी कौंध हुई और उसने देखा- सामने वह प्रत्यक्ष है, हाथ बढ़ाकर स्वामी जी का खड्ग हस्त थाम लिया उसने। योगी की चेतना भौतिक संसार से विलुप्त होती गई। प्रलयकाली गर्जना करते हुये उस मेघ-खंड की रस-धारा में स्नान करने के लिये समाधि की उपयुक्त अवस्था हो सकती थी।
दस महाविद्याओं में प्रमुख और सर्वप्रथम महाविद्या मानी जाने वाली मां महाकाली ही हैं और ऐसा शास्त्रीय विधान है कि जब तक इनकी साधना न सम्पन्न कर ली जाये तब तक किसी अन्य साधना में सफलता मिलती ही नहीं महाविद्या साधनाओं के सन्दर्भ में और भी अधिक आवश्यक मानी जाती है। महाकाली अपने स्वरूप में उग्रतम हुये भी सदा-सदा से गृहस्थों और तांत्रिकों की सामान्य रूप से आराध्या रही हैं। काल पर वश करने की आधार भूत साधना होने के कारण ये स्वतः ही भवतारिणी हैं और साधक के मनोरथ पूर्ण करने वाली हैं क्योंकि साधक जिन कारणों से अपने जीवन में असफल होता है उसका मूल कारण तो काल चक्र ही है।
परमहंस रामकृष्ण की परमाराध्या मां काली इसी कारणवश उग्र होते हुये भी मातृ स्वरूपा ही हैं और कोई भी गृहस्थ इनका पूजन सम्पन्न कर सहज भाव से अपने जीवन को उन्नति दे सकता है। काली वाक् साधना का भी आधार हैं महाकवि कालीदास इन्हीं की आराधना कर कालीदास कहलाये।
शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार साधक रात्रि में अपने पूजा स्थान में शुद्ध वस्त्र लाल धोती पहनकर और गुरु चादर ओढ़कर तथा साधिकायें लाल साड़ी पहन कर साधना करें। रात्रि में साधक-साधिका लाल आसन पर दक्षिण की ओर मुंह कर बैठ जाये और सामने तेल का दीपक लगा लें, फिर सामने ही लाल वस्त्र बिछाकर दीपक के आगे कलुषिता संहारिणी गुटिका, महाकली यंत्र और यदि चित्र उपलब्ध हो तो स्थापित कर दें, यंत्र के ऊपर काली हकीक माला रख दें, यंत्र के सामने एक और आठ काली मिर्च स्वरूप में अष्ट भैरव व दूसरी ओर अष्ट भैरवियों का स्थापन करें। सभी का सिन्दूर का तिलक कर पूजन करें। इसके बाद सभी को जल, केसर, अक्षत, पुष्प एंव प्रसाद समर्पित करें। प्रसाद रूप में दूध का बना हुआ कोई भी पदार्थ। अष्ट भैरव व भैरवियों का उच्चारण कर एक-एक पुष्प अर्पित करें।
अष्ट भैरव- असितांग भैरव, रूरू भैरव, चण्ड भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत्त भैरव, कपालि भैरव, भीषण भैरव, संहार भैरव।
अष्ट भैरवियां- श्री भैरवी, महाभैरवी, सिंह भैरवी, धूम्र भैरवी, भीम भैरवी, उन्मत्त भैरवी, वशीकरण भैरवी एवं मोहन भैरवी।
फिर काली हकीक माला से प्रथम दिन का 11 माला मंत्र जप व नित्य 2 माला मंत्र जप 21 दिन तक करें।
साधना समाप्ति के उपरान्त महाकाली यंत्र को छोड़ कर शेष सामग्री जल में विसर्जित कर दें।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,