सांसारिक जीवन की अविरल यात्रा में अनेक पड़ाव ऐसे आते हैं, जो सम्पूर्ण देह के रोम-रोम को झंकृत कर देते हैं, जब व्यक्ति दो क्षण रूक कर चिंतन करने के लिये विवश हो जाता है। ऐसे ही स्वर्णिम क्षणों को आत्मसात करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिनकी मैंने ही नहीं अपितु किसी ने भी कल्पना भी नहीं की होगी।
वैसे तो हम सब शिष्यों, साधको ने अपने जीवन में अनेक यात्रायें की होंगी, करते हैं, भविष्य में भी यात्रायें होती रहेंगी। लेकिन मैं हजारों लोगो के बीच यह दावे के साथ कहता हूं, कि बद्रीनाथ अमृतमय यात्रा के समान किसी ने ना पहले यात्रा की थी, ना ही भविष्य में इसकी संभावना है। क्योंकि कालचक्र का यह नियम है कि वह स्वयं को कभी दोहराता नहीं। एक बार जो क्रिया सम्पन्न हो गयी, वह पुनः नहीं हो सकती।
और इस अमृतमय यात्रा का वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, सूर्य के प्रकाश को देखा जा सकता है, आत्मसात किया जा सकता है। उसके प्रकाश से आप आप्लावित हो सकते हैं। आप यह नहीं कह सकते कि सूर्य की किरणे किस छोर तक जा रहीं हैं, उसकी चेतना से क्या-क्या नवीन घटित होने वाला है और यह महोत्सव अपने आप में प्रकाश, चेतना, शक्ति को प्रतिपादित करने की यात्रा थी। इसके उपरान्त भी मेरी भावनायें मुझे विवश करती हैं कि मैं उन स्वर्णिम क्षणों को हजारों-हजारों साधको के हितार्थ स्पष्ट करूं, इसी बात का ध्यान रखते हुये, इस अमृतोत्सव का चिंतन आपके सम्मुख रख रहा हूं।
मानव जीवन में सद्गुरु प्राप्त होना ही अपने आप में जीवन की सिद्धता है, परन्तु जिनका जीवन सद्गुरु के सानिध्य में हो, जो उनके समीप बैठकर उनसे ज्ञान, चेतना, शक्ति व मानव जीवन को सौभाग्य शक्ति से ओत-प्रोत करने का चिंतन प्राप्त कर लेते हैं, सहीं मायने में उनका ही जीवन सफल, उर्ध्व की ओर अग्रसर है। और वे ही काल को अपने वशीभूत करने में सफल हो पाते हैं।
उन शिष्यों का अहोभाग्य है, जिन्हें सद्गुरु के सानिध्य में अमृतमय तीर्थ यात्रा का सौभाग्य प्राप्त होता है। क्योंकि सामान्य दृष्टिकोण में तीर्थ यात्राय तो की जा सकती हैं, परन्तु जिस चेतना, देव शक्तियों को आत्मसात करने की मूल भावना तीर्थ यात्रा में होती है, उससे सामान्य प्रक्रिया में व्यक्ति वंचित रह जाता है। इसलिये तीर्थ यात्रा का मूल उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है। जब हम अपने सद्गुरु के सानिध्य में उस मूल चिंतन, चेतना, शक्ति को आत्मसात करने में सफल हो।
यह अमृतमय महोत्सव इन्हीं महत्वपूर्ण उद्देश्य को सारगर्भित करता है। यह इस युग के सभी साधकों का सौभाग्य है कि ऐसे दुर्गम स्थल पर जहां सामान्य स्थिति व सुविधाओं का अभाव हो, ऐसी दुर्लभ व मन को असीम आनन्द, चेतना से आप्लावित करने वाले स्थल पर सभी सुख-सुविधाओं से युक्त वात्सल्मय प्रकृति की गोद में जहां अनेको देवी-देवताओ, ऋषि-मुनियों की निरन्तर सूक्ष्मतम उपस्थिति है, वहां पर हमें जीवन्त जाग्रत सद्गुरु के सानिध्य में ऐसी अमृतमय यात्रा सम्पन्न करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
17 मई 2017 की प्रातः बेला से ही हरि के द्वार देव भूमि पर शिष्यों, साधकों का आगमन प्रारम्भ हो गया था। साधक-साधिकाओं ने अपने आपको शुद्ध, निर्मल पाप-हारिणी गंगा के ज्योर्तिंमय जल से स्वयं को सराबोर किया।
सांय काल सप्तपुरी में सप्तमी तिथि पर सदगुरुदेव के सानिध्य में पूर्ण वर्चस्व सफलीभूत चेतना से सभी साधक आप्लावित हुये, सद्गुरुदेव ने अपने आशीर्वाचन् में सभी को सुखद व मंगलमय यात्रा का आशीर्वाद् प्रदान किया। सभी साधकों के दैदीप्यमान चेहरे में उनके भीतर सिद्धाश्रम शक्ति युक्त देवभूमि की चेतना को आत्मसात करने का भाव स्पष्ट दिख रहा था।
18 मई भोर में सद्गुरु के जयकारों के साथ पूर्ण भक्तिमय वातावरण में बद्रीनाथ की यात्रा आरम्भ हुयी, साधको, शिष्यों की उत्सुकता अपने परम अवस्था में थी। जैसे-जैसे यात्रा पूर्णता तक पहुंचने को आतुर थी, उसी रूप में सभी के मन में उस देवभूमि की चेतना को स्पर्श करने का भाव भी प्रगाढ़ होता जा रहा था।
यात्रा मार्ग के मनोहर दृश्य सभी को साधनात्मक वातावरण से रोमांचित व आनन्द प्रदान कर रहे थे। साथ ही देव प्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयोग, जोशीमठ, पाण्डुकेश्वर, विष्णुप्रयाग, हनुमान चट्टी की दिव्यतम तपोभूमि के दर्शन मात्र से ही चित्त में असीम शांति की अनुभूति होती थी। वास्तव में सम्पूर्ण वातावरण की शीतलता मन में उठती लहरों का मार्ग प्रशस्त कर रही थी, कि अब वह क्षण दूर नहीं जब हम सिद्धाश्रम शक्ति से जाज्वल्यमान तपोभूमि पर जीवन की अत्यन्त आनन्दमय क्षणों को दिव्यता से आपूरित करेंगे।
रात्रि 7 बजे साधकों का आगमन बद्री विशाल की भूमि पर होने लगा था। 11 हजार फीट ऊंची 345 किमी की अविरल यात्रा पूर्ण कर हिमालय की कन्दराओं में पहुंचकर सभी अपने को ऊर्जा से युक्त अनुभव कर रहे थे। जहां की निर्मल हवा, पूर्ण प्राकृतिक वातावरण व चारो ओर से हिम पर्वत की मूक वार्तालाप किसी अद्भुत क्रिया का संकेत दे रहे थे।
19 मई को प्रातः प्रकृति की अद्भुत क्रिया जहां पर चारों ओर बर्फ गिरते हों, ठण्डी हवाओं से सामान्यतः आदमी ठठुर सा जाता है, ऐसे स्थल पर भी भगवान नारायण की असीम करूणा से निर्मित तप्त कुण्ड जहां पर निरन्तर गर्म पानी का प्रवाह रहता है, उसी मोक्षदायिनी अलकनंदा तप्त कुण्ड में सभी साधकों ने स्नान कर शुद्ध, चैतन्य रूप में उर्वशी पर्वत, नर और नारायण पर्वत के मध्य भू-भाग पर स्थित पंजाब सिंध क्षेत्र जो कि तीन दिवसीय शिविर स्थल के रूप में चयनित किया गया था, उसी देवत्व रश्मियों से ओत-प्रोत साधना हाल में सभी साधक सम्पूर्ण गुरु पूजन सम्पन्न कर अपने आपको सौभाग्यशाली व धन्य-धन्य अनुभव कर रहे थे। इसी समय सद्गुरुदेव की जय—– जयकारो के मध्य परम पूज्य सद्गुरुदेव जी का मंच पर आगमन हुआ।
सद्गुरुदेव के आगमन पर सम्पूर्ण शिविर स्थल में प्राणवान चेतना की लहर दौड़ गयी। साधको के उत्साह व प्रेम पूरे वर्चस्व में आ चुका था। एक अवर्चनीय दृश्य दृष्टिगोचर हो रहा था। सम्पूर्ण शिविर स्थल ऊर्जा से ओत-प्रोत था।
गुरुदेव ने सद्गुरु नारायण आवाहन की अनुमति प्रदान की जिसके उपरांत पूरी एकाग्रता व भावना के साथ सद्गुरुदेव नारायण व अनेक सिद्धहस्त योगियों, ऋषियों का आवाहन सम्पन्न हुआ। इस बीच अनेक साधको ने अनुभव किया कि पूज्य सद्गुरुदेव में ही सद्गुरुदेव नारायण की छवि शनैः शनै पूर्ण रूप से दृश्यमान हो रही थी। कई लोगों ने तो इसे पूर्ण स्पष्ट रूप में अनुभव किया और कई साधक-साधिकाओं ने सद्गुरुदेव के इस लीला रूप से भाव-विहवल होकर अविरल अश्रुधारा से सरोवार थे।
परम पूज्य सद्गुरुदेव ने अपने आशीर्वचन में यह बताया कि- आप सभी प्रकृति की गोद में सिद्धाश्रम के अन्यतम निकट हो, जहां पर तनिक भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। आपके जीवन के संरक्षक सद्गुरुदेव निखिल हैं, यही आपके जीवन को पूर्णता प्रदान करने में पूर्ण समर्थ है।
आपमें इतनी समर्थता नहीं थी कि आप ऐसी दुर्गम स्थान पर यात्रा सम्पन्न कर सके, यह सद्गुरुदेव नारायण की विशिष्टतम क्रिया है, जिसके माध्यम से आठ सौ, एक हजार शिष्यों को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह सद्गुरुदेव की आपके प्रति आत्मीयता है। जिसे आप भले ही विस्मृत कर दो पर वे सदा ही आपका पूरा ध्यान रखते हैं। अनेक साधक अपने सांसारिक जीवन की अभिलाषाओं, संघर्षों के कारण प्रतिदिन सद्गुरुदेव का स्मरण नहीं कर पाते, पर उनकी आत्मीयता, प्रेम, स्नेह प्रतिपल अविरल रूप से अग्रसर हो रहा है।
इसके उपरांत परम पूज्य सद्गुरुदेव ने कपाल कुण्डला में पितृ तर्पण पिण्ड दान की श्रेष्ठतम क्रिया की घोषणा की साथ ही यह बताया कि अनेक-अनेक जन्मों के जो भी पितृ दोष, पितरों के कारण जिन कर्मों का आपको पूर्ण फल नहीं मिल पाता उन सबसे मैं आप सभी को आज संध्या अलकनंदा तट पर कपाल कुण्डला में पिण्ड दान के माध्यम से पितृ दोष से मुक्ति प्रदान करूंगा, जिससे आपका जीवन उर्ध्वगामी बन सकेगा। आप जीवन की अनेक अभिलाषाओं को पूर्ण करने में समर्थ हो सकेंगे। इसलिये मैं आप सभी को यह आज्ञा प्रदान करता हूं कि आपको यह श्रेष्ठतम क्रिया सम्पन्न करनी ही है।
सांय काल में सभी साधको ने कपाल कुण्डला अलकनंदा तट पर परम पूज्य सद्गुरुदेव व पूज्यपाद् गुरुदेव विनीत जी के सानिध्य में सर्व पितृ दोष मुक्ति शक्तिपात दीक्षा व पिण्डदान की साधनात्मक तेजस्वी क्रिया सम्पन्न की।साथ ही सर्व शत्रुहंता कर्ण पिशाचिनी दीक्षा से आप्लावित किया जिससे साधक सभी विषमताओ व विपदाओं से सुरक्षित रह सके।
साधको के पूर्वजो व पितरों को पूर्ण मुक्ति और साधको को सर्व ब्रह्ममय जीवन की प्राप्ति हो सके, इस हेतु सद्गुरुदेव ने वेदज्ञ मंत्रों का आवाह्न कर साधनात्मक क्रिया द्वारा साधक-साधिकाओं के रोम-रोम में स्थित कई-कई जन्मों के संतापो व पितृ दोषों को पूर्ण दिव्य चैतन्य गंगामय नदी में प्रवाहित करने की दिव्यतम क्रिया सम्पन्न हुयी।
साधक अपने जीवन को पूर्ण निर्मल जीवन्त जाग्रत व चैतन्य बना सके इसी हेतु गुरुदेव विनीत जी ने सभी साधकों के पूर्वजो का सर्व पिण्ड दान की क्रिया सम्पन्न की साथ ही सद्गुरुदेव ने पितृ दोष मुक्ति शक्तिपात दीक्षा से साधकों को आप्लावित किया।
कपाल कुण्डला जिसे ब्रह्म कपाल भी कहा जाता है, जहां पर पिण्ड दान करने पर पितरो को बैकुण्ठ धाम अथवा प्रेत योनि से मुक्ति प्राप्त होती है। जिससे साधक मानव जीवन के महत्वपूर्ण ऋण से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। पितृ दोष ऐसा कारण है, जो मानव जीवन के विकास व वृद्धि का आधार है। सद्गुरुदेव के द्वारा पितृ दोषो से मुक्ति प्रदान करने का तात्पर्य यही है कि हम सभी शिष्य, साधक अपने सांसारिक व आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता प्राप्त कर मानव जीवन के परमानन्द को प्राप्त कर सके।
20 मई शनिश्चरी शक्ति युक्त महानवमी के सुअवसर पर परम पूज्य सद्गुरुदेव ने सभी साधको को अलकनंदा, भागीरथी व सरस्वती उद्गम स्थल पर जहां तीनों नदियो का संगम स्थल है, ऐसी ही अलौकिक, दिव्यतम, तेजमय त्रिवेणी संगम पर रूद्राभिषेक व हवन की चेतनामय क्रिया सम्पन्न करने की आज्ञा प्रदान की।
सरस्वती नदी केवल इसी स्थान पर दृश्यमान होती है और द्वापर युग में सांदीपन जी ने भगवान श्री कृष्ण को इसी त्रिवेणी संगम स्थल पर चेतना प्रदान की थी। साथ ही भगवान श्री कृष्ण ने यहीं पर तपस्या कर चौसठ कला पूर्ण योग व भोग को आत्मसात किया था।
उसी चैतन्य स्थल पर सहस्त्र चक्र कुण्डलिनी जागरण दीक्षा परम पूज्य सद्गुरुदेव जी ने सभी साधको, शिष्यों को प्रदान की।
यहां पर एक अद्भुत् दृश्य उदित हुआ सद्गुरुदेव जी एक ऊंची शिला पर आसीन थे, सद्गुरुदेव जी के पीछे मेनका पर्वत विद्यमान थी। जो सद्गुरुदेव के प्रभा मण्डल के रूप में दृश्य हो रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि माता स्वरूप मेनका पर्वत की गोद में सद्गुरुदेव जी विद्यमान हैं। इसी भाव चिंतन को स्पष्ट करते हुये आशीर्वचन् में सद्गुरुदेव जी ने बताया कि मां की गोद में बच्चे जिस प्रकार स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं, उसी प्रकार हम भी मातृ स्वरूप प्रकृति की गोद में पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं और मूल रूप से प्रकृति ही हमारा घर है। मेनका जी हिमालय पर्वतराज की पत्नी और भगवती पार्वती की माता हैं।
ये क्रियायें दुर्लभ व न भूतो न भविष्यति के विवेचन को चरितार्थ करते हैं। कहा जाता है, सद्गुरु की लीला निरन्तर चलती रहती है, उसी रूप में मैंने अनुभव किया कि जब सभी साधक शिविर स्थल से त्रिवेणी संगम की ओर प्रस्थान कर रहे थे, उस समय मौसम अत्यन्त सर्द था व वर्षा की संभावना दिख रही थी, परन्तु त्रिवेणी संगम पहुंचने पर भगवान सूर्य नारायण का उदय हो चुका था, मौसम पूर्णतया साधकों के अनुकूल था। जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। प्रभु की ऐसी लीलाओं का साक्षात् चित्रण देखकर मन बार-बार उनकी करूणा के प्रति कृतज्ञ हो रहा था। सभी साधक, बालक-बालिकायें, बहन, बेटियां, वृद्ध, अशक्त ऐसे प्राकृतिक चैतन्य स्थान में गुरु सानिध्य पाकर अपने आपको असीम ऊर्जा से युक्त अनुभव कर रहे थे।
धवल, स्वच्छ, निर्मल अलकनंदा और सरस्वती तथा भागीरथी के अमृतमय जल से वेदमय करोड़ो-करोड़ो मंत्रों से अभिभूत 51 किलो पारद शिवलिंग पर पंचद्रव्यो और अनेक दिव्य औषधियों व चैतन्य सामग्री से प्रत्येक साधक-साधिका ने गुरु पादुका पूजन व अभिषेक सम्पन्न किया। जिससे उनके स्वयं के घर में पूजा स्थान में पूर्ण चैतन्य भाव से सद्गुरु चरण रूपी गुरु की चेतना विद्यमान रह सके।
साथ ही सरस्वती उद्गम स्थल पर पूज्य सद्गुरुदेव व पूज्यपाद् विनीत गुरुदेव ने साधक जीवन को मृत्युजंय शक्ति युक्त बनाने हेतु महामृत्युजंय रूद्राभिषेक त्रिवेणी संगम के चेतनामय जल व पंच द्रव्यों के साथ चैतन्य मंत्र ध्वनि के मध्य सम्पन्न किया। जो हम सभी साधक जीवन के सारभूत पूंजी के रूप में है।
उक्त विशेष क्रियायें सम्पन्न करने का मंतव्य यही है कि सांसारिक जीवन में साधक, सद्गुरु व देव शक्तियां तीनो का सुमिलन हो सके। साथ ही दस महाविद्या दुर्गा सप्तशती युक्त सर्व शक्ति प्रदायक नव चण्डी महाभैरव हवन की चेतना को अपने रोम-रोम में स्थापित करने और सांसारिक जीवन में जाने-अनजाने में हुये दोषो, संतापो, कुक्रियाओं व कुविचारो का पूर्ण शमन हो सके, इस हेतु नवचण्डी हवन सम्पन्न हुआ।
जिससे साधक राक्षसी वृत्तियों से निवृत्त हो सके एंव साधक के जीवन में निरंतर शक्ति का भाव चैतन्य रहे, साथ ही शक्ति से संयुक्त होकर अपने जीवन में कर्मयोग की चेतना से आपूरित होकर निरंतर क्रियारत रूप में अभिवृद्धि को आत्मसात करता रहे।
सिद्धाश्रम स्थापना शक्ति दिवस 21 मई 2017 को सदगुरुदेव जी ने शिष्यों के जीवन कल्याण हेतु व सहस्त्र चक्र के केन्द्र बिन्दु को चैतन्यता प्रदान करने व जीवन में सुसंस्कारों से युक्त होने के लिये पूर्ण मुंडन करने की आज्ञा प्रदान की। और साथ ही यह बताया कि पूर्ण मुडंन किये हुये साधकों को गणेश गुफा में सिद्धाश्रम शक्ति को आत्मसात करने की श्रेष्ठतम क्रिया सम्पन्न होगी।
जिसके पश्चात् सैकड़ों की संख्या में साधक व कुछ साधिकाओं ने पूर्ण मुंडन संस्कार कर जीवन को पूर्ण उर्ध्वगामी बनाने की इस पूर्णाहुति क्रिया में भाग लिया।
वास्तविक रूप से गणेश गुफा ज्ञान, बुद्धि, बल, रिद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ प्रदायक है, तथा जीवन के सभी पक्षों के नकारात्मक तत्व का विध्वंसक भी। क्योंकि इसी चैतन्य स्थल पर भगवान गणेश व ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना की थी। सद्गुरुदेव जी ने बताया कि जिस प्रकार व्यास जी के धारा प्रवाह उद्बोधन पर भगवान गणेश ने निरंतरत महाभारत लेखन पूर्ण की और उन्होंने एक अद्वितीय रचना कर ब्रह्माण्ड को निरंतर क्रियारत रहने की प्रेरणा प्रदान की, उसी चेतना, प्रवाह को आप भी अपने जीवन में आत्मसात कर निरंतर-निरंतर उर्ध्वगामी बन सके, ऊर्जावान, चेतनावान और जीवन में एक प्रचण्ड प्रवाह की गतिशीलता बना सके, इस हेतु गणेश गुफा के प्रांगण में जहां पर प्रतिदिन गजानन की उपस्थिति रहती है, उसी स्थान पर मानव जीवन की कुशलता, पूर्णता व सिद्धाश्रम शक्ति को आत्मसात करने की क्रिया हम सम्पन्न करेंगे। साथ ही अपने सांसारिक जीवन में रिद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ लक्ष्मी की पूर्णता हेतु वैभव लक्ष्मी साधना सम्पन्न करेंगे।
सिद्धाश्रम शक्ति की चेतना को पूर्णतः आत्मसात कर एक प्रवाह जीवन में लाने का उत्साह साधकों के भाव में स्पष्ट देखने को मिला, सभी इस अद्वितीय क्रिया को ग्रहण करने का अवसर गंवाना नहीं चाहते, देखते ही देखते भारी संख्या में साधक-साधिका सुरम्य दिव्य चैतन्य युक्त गणेश गुफा पर एकत्रित हो गये, संख्या इतनी अधिक थी कि ऐसे दुर्गम स्थल पर लोगों को खड़े अथवा बैठने का स्थान नहीं मिल पा रहा था। लेकिन योगी-योगिनियों स्वरूप में साधक-साधिकाओं ने अपने पूर्ण धैर्य और संयम का परिचय देते हुये पंक्तिबद्ध रूप में सिद्धाश्रम चेतना शक्ति को अपने देह में धारण करने हेतु परम पूज्य सद्गुरुदेव जी से गणेश गुफा के प्रागंण में ही गणेश प्रतिमा के सम्मुख दिव्यपात द्वारा चेतना को आत्मसात किया। जिसके द्वारा सभी का सांसारिक जीवन शिव-शक्ति युक्त बन सकेगा साथ ही जीवन का प्रत्येक क्षण शुभ-लाभ युक्त गणों से युक्त बनेगा।
कतार इतनी लम्बी थी कि गणेश गुफा से व्यास गुफा के प्रथम छोर तक एक श्रृंखला बन गयी थी। जो सद्गुरु, शिष्य और देवत्व शक्तियों की प्रगाढ़ता व दिव्यता की सूचना प्रदान कर रहे थे, कि एक गृहस्थ भी ऋषि तुल्य व देव तुल्य जीवन को निर्मित ही नहीं कर सकता, बल्कि ऐसे जीवन को पूर्णता के साथ जी भी सकता है। ऐसी ही अद्वितीय क्रिया गणेश गुफा के चैतन्य, प्राणवान प्रागंण में सम्पन्न हुयी। परम पूज्य सद्गुरुदेव जी ने गणेश प्रतिमा का शास्त्रोक्त पूजन भी सम्पन्न किया और सभी साधकों को विघ्न रहित आनन्दमय जीवन का आशीर्वाद् प्रदान किया।
साध्यं बेला में देव नगरी में सम्पूर्ण गुरु परिवार का सानिध्य प्राप्त कर मन परमानन्द की गहराईयों में गोता लगा रहा था, ऐसा दिव्य अलौकिक दृश्य जब हम हजारों फीट की ऊचांई पर गुरुत्व चेतना को आत्मसात करने का सौभाग्य प्राप्त हो तो स्वयं ही हृदय उस परमात्मा स्वरूप सद्गुरुदेव के प्रति कृतज्ञ हो जाता है, उनमें ही समा जाने को आतुर हो जाता है। धड़कने स्वयं ही बढ़ जाती हैं, और कहने लगती हैं, प्रभु अब मेरे अस्तित्व को मिटा कर नारायणमय कर दो, सद्गुरुमय कर दो। इन सभी साधकों का भाव स्पष्ट रूप से आप समझ सकते हैं, इनके चेहरे की भाव भंगिमा यही प्रदर्शित कर रही थी। माताओ, बहन, बेटियों की सद्गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता स्पष्ट रूप से आप देख सकते है। इनके प्रत्येक भाव इनके चेहरे से उद्वेलित हो रहे हैं, ऐसा गुरु-शिष्य-देव शक्तियों का मिलन देखकर मेरा जीवन कृतार्थ हो गया।
सांध्य बेला में वन्दनीय माता जी ने अपने आर्शीवचन में सर्व दुखः कष्ट हर्ता भगवान सदाशिव महादेव का स्तुति गान व सुख-सौभाग्य धन-लक्ष्मी सर्व कामना पूर्ति का मंगलमय आशीर्वाद् प्रदान किया। जय प्रभु शंकर दीन दयाला, प्रभुजी मोहे करो निहाला सत्य संतोष शील मोहे दीजे, मोरे दोष दूर सब कीजे। दया नम्रता मन में आवे, मन भोगन में कबहुँ न जावे पर पीड़ा से चित्त हटाओ, पाप कर्म से मोहे बचाओ।
निर्मल चित्त करो प्रभु मोरा, निशदिन भजन करूं मैं तोरा यही कामना मन में स्वामी, पूरण करो प्रभु अन्तर्यामी जब तक कृपा न तुम्हारी होवे, तब तक व्यथा जनम नर खोवे माया के वश पड़ा भुलाना, बार बार दुःख पावे नाना। बिन संतोष न सुख कहूँ होई, भटकि, भटकि नर जीवन खोई अंत काल रो-रो पछतावे, गया वक्त फिर हाथ न आवे भोग शोक की खानी बखाने, उनसों भन कबहू न आधाने ग्लाने योग्य जो वस्तु सारी, तिनसो प्रेम मूढ़ को भारी छोड़ा चाहे न कबहुँ जिनको, छिन में काल छुड़ावत तिनको आपा छोड़ जो तुमको ध्यावे, सो नर सहज मुक्ति को पावे काम क्रोध मद लोभ घनेरे, प्रभुजी जग में बैरी मोरे भगवन उनसे मोहे बचाओ, निज चरणों का दास बनाओ और न जग में ऐसा कोई, करूणा करे दीन पर जोई दुःख मोचन है नाम तिहारा, मैं हुँ जग में अति दुखियारा भव सागर है अतिशय घोरा, देख-देख मन डरपत मोरा माता-पिता तुम बन्धु मोरे, चरण गहुँ मे प्रभुजी तोरे सब मे अपना रूप दिखाओ, जन्म मरण से मोहे बचाओ कामादि है ग्राह भयंकर, इन से मोहे बचाओ शंकर रोगादि सब दोष मिटाऊँ, जन्म-मरण में कबहुं न आवे बार-बार विनती करूं सुनिए दीन दयाल, कृपा दृष्टि करके प्रभु मोहे करो निहाल शरीर साधन के लिये जैसे है जलपान वैसे ही मन के लिये है सच्चे भगवान——-!
सद्गुरुदेव के जीवन्त जाग्रत स्वरूप से सभी साधक-साधिकायें जीवन के दिव्यतम आनन्द से सरोबार हो हुये, सद्गुरुदेव ने शाश्वत रूप से बता दिया कि जो संकल्प शक्ति से युक्त है, वही पूर्ण रूपेण रोम-रोम में मुझे चैतन्य स्वरूप में स्थापित कर सकता है।
मैं सद्गुरुदेव नारायण से व ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्वरूप पूज्य सद्गुरुदेव से पूर्ण आत्मीय भाव से विनती करता हूं कि शीघ्र ही अगले वर्ष पुनः दो धाम की यात्रा हम जैसे समर्पित चैतन्य क्रियाशील साधको के साथ जीवन्त जाग्रत प्राकृतिक वातावरण में जीवन को असीम आनन्द, परम शांति प्रदान करने हमारे रोम-रोम को नारायणमय बनाने की अद्वितीय क्रिया पूर्ण करें।
भरत उपाध्याय, अरूण मिश्रा
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