एक समय की बात है, ऋषि मृकन्डु व उनकी पत्नी मरूद्वती किसी वन में अपनी कुटिया में रहते थे। वे दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे। उन दोनों को ही शिव भजन, शिव कथा आदि का गायन करना, पूजन करना आनंद की अनुभूति देता था, वे एक खुशहाल जीवन यापन कर रहे थे, बस उनको अपने जीवन में एक ही बात का संताप था कि उनकी कोई संतान नहीं थी। इसी मनोकामना को पूर्ण करने हेतु ऋषि मृकन्डु व उनकी धर्मपत्नि ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या की।
और भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए व उनके समक्ष प्रकट हुए व वरदान माँगने को कहा, वे दोनों अपने आराध्य भगवान शिव को देख भाव-विभोर हुए व संतान प्राप्ति की अभिलाषा व्यक्त की। भगवान शिव ने उनके समक्ष दो विकल्प रखते हुए उन्हें कहा कि तुम्हें एक ऐसी संतान चाहिये जिसका जीवन काल दीर्घ हो परन्तु बुद्धि नहीं या फिर एक ऐसी संतान चाहिये जिसकी बुद्धि प्रखर हो परन्तु जीवन काल छोटा हो? ऋषि मृकन्डु व मरूद्वति ने बुद्धिमान परन्तु लघु जीवन-काल वाली संतान को चुनने का निश्चय किया व शिव जी के समक्ष अपना निर्णय रखा। उन्हें यह वरदान दे भगवान शिव अदृश्य हो गये।
निश्चित समय पर ऋषि मृकन्डु की अर्धांगिनी ने पुत्र को जन्म दिया व उसका नाम मार्कण्डेय रखा। मार्कण्डेय वास्तव में अत्यन्त प्रतिभावान हुआ। उसने बहुत ही कम उम्र में वेद व शास्त्रों-पुराणों को कंठस्थ कर लिया था। मार्कण्डेय अपने माता-पिता से बहुत प्रेम व आदर करता था इसी के साथ-साथ वह परम शिव भक्त था, उसे भी अपने माता-पिता के समान शिव भक्ति से अत्यन्त आनंद की अनुभूति देती थी। क्योंकि मार्कण्डेय एक बुद्धिमान बालक था इसीलिये उसने भाँप लिया था कि उसके माता-पिता किसी कारण सदा दुःखी रहते हैं, वह उन्हें प्रसन्न करने के बहुत प्रयत्न भी करता था, परन्तु उसे ज्ञान था कि उन्हें कोई चिंता हमेशा से सता रही हैं एक दिन मार्कण्डेय ने अपने माता-पिता से दुःख का कारण पूछा तो बहुत प्रयासों से पूछे जाने पर मरूद्वति ने बताया कि भगवान शिव की तपस्या से उन्होंने पुत्र-रत्न प्राप्त किया है, उन्होंने पूरा वृतान्त धीरे-धीरे मार्कण्डेय को सुनाया। मार्कण्डेय को यह सब सुनकर अपने माता-पिता पर बहुत दया आयी कि कैसे उन्होंने अपने जीवन के 16 बरस इस चिंता में व्यतीत किये। उन्होंने मार्कण्डेय को सप्रेम लालन-पालन किया, यह जानते हुए भी कि उनके इस पुत्र का जीवन काल ज्यादा नहीं है। उसने गर्व के साथ अपने माता-पिता की ओर देखा, उसकी दृष्टि में उनके लिये सम्मान और अधिक हो गया था। मार्कण्डेय को चिंता नहीं थी कि कल वह सोलह बरस का होने वाला है। उसे अपने आराध्य शिव पर भरोसा था उसे आभास था कि शिव उसका भाग्य बदल देंगे। उसने अपने माता-पिता को आश्वासन दिया कि वह शिव आराधना करेगा, वे उसे कुछ नहीं होने देंगे। माता-पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर मार्कण्डय एक झील के किनारे गया और सम्पूर्ण भक्ति व स्नेह के साथ वहाँ की मिट्टी से शिव लिंग बनाया व ध्यान लगाया।
क्योंकि मार्कण्डेय का जीवन काल समाप्त होने को था इसी हेतु यमराज उसे लेने आये और उसे अपने साथ चलने को कहा, मार्कण्डेय ने यमराज को कुछ देर रूकने को कहा क्योंकि उसकी आराधना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। यमराज ने कहा मृत्यु किसी की प्रतीक्षा नहीं करती मैं तुम्हें ले जाने आया हूँ, यह कह कर अपना फंदा मार्कण्डेय के गले में डाल दिया व उसे घसीटते हुए ले जाने लगा और अगले ही क्षण यह क्या! भगवान शिव लिंग में से प्रकट हुए और यम को लात मार गिराया यमराज से उन्होंने कहा कि ‘मेरे भक्त की भक्ति में बाधा डालने का दुस्साहस तुमने कैसे किया!’ यमराज ने कहा कि ‘हे प्रभु इस बालक का धरती पर समय अब समाप्त हुआ, मैं इसे लेने आया हूँ।’ भगवान शिव ने क्रोधित होते हुए कहा कि यह बालक सदा के लिए जीवित रहेगा, तुमने ये दुस्साहस कैसे किया और अपना त्रिशूल यम के सीने में गड़ा दिया, कुछ ही क्षण में यमराज ने प्राण त्याग दिये।
यह देख कर देवराज इन्द्र व अन्य सभी देव उपस्थित हो गये इन्द्र देव ने भगवान शिव से विनती पूर्वक कहा कि यदि यमराज का अंत हो गया, तो सभी अमर हो जायेंगे और इससे सृष्टि का चक्र थम जायेगा, पृथ्वी का संतुलन बिगड़ जायेगा, यह सुन शिव शांत हुए और यम को पुनः जीवन प्राण दिये। भगवान शिव ने मार्कण्डेय की ओर देखा, मार्कण्डेय अचंभित था क्योंकि उसने तो अपने परमेश्वर के दर्शन मात्र से अमूल्य खजाना प्राप्त कर लिया था, शिव ने उसे अमरत्व का वरदान दिया और उसे अपने माता-पिता के पास जा अपने सम्पूर्ण जीवन में उनकी सेवा करने को कहा, उनकी कृपा सदा मार्कण्डेय पर रहेगी यह आशीर्वाद भी दिया। इसी बालक को हम आज ऋषि मार्कण्डेय के नाम से जानते है। कहा जाता है ऋषि मार्कण्डेय को भगवान ने चिरंजीवी भवः का आशीर्वाद दिया इसीलिये ये हमारे बीच अभी भी जीवित है और संसार का विचरण कर जन-कल्याण कर रहे हैं और यह भी कहा जाता है कि ऋषि मार्कण्डेय की आयु सदा सोलह बरस ही रहती है।
ऋषि मार्कण्डेय ने ही महामृत्युंजय मंत्र की रचना की है, इसी मंत्र के जप की शक्ति के कारण यमराज इन्हें अपने साथ नहीं ले जा पाये थे।
निधि श्रीमाली
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