दस साल बाद उस फकीर को फिर फांसी की सजा दी गई और जब उसे फांसी के तख्ते पर चढ़ाया जा रहा था और सूली बांधी जा रही थी, तो उस फकीर ने कहा कि मित्रे, जरा एक बात का ध्यान रखना कि फंदा ठीक से लगाना। पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया था।
उन्होंने कहा, हम समझे नहीं, मतलब क्या है? कौन सी पिछली बार? उसने कहा, यह फांसी दुबारा लग रही हैं और मैं तैरना नहीं जानता हूं। तो पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। नदी में गिर गया, और नदी तैर कर मुझे पार करनी पड़ी और तैरना मुझे मालूम नहीं है। फंदा जरा ठीक से लगाना, फिर वैसी मुसीबत न हो जाये। वे जो उसे फांसी दे रहे थे, बहुत हैरान हुये कि वह आदमी कैसा है! फांसी देने के पहले उन्होंने उससे पूछा कि तुम जीना नहीं चाहते? अच्छा तो था कि तुम भगवान से प्रार्थना करते कि फंदा थोड़ा फिर वैसा ही ढीला हो जैसा पिछली बार हुआ था!
तो उस फकीर ने कहा, दस साल जीकर देख लिया, कुछ पाया नहीं, अब दुबारा किस मुंह से भगवान से प्रार्थना कर सकता हूं? हम सब जीकर देख लेते हैं, बहुत वर्ष, कुछ पाते नहीं। लेकिन फिर भी जीने की आकांक्षा किये चले जाते हैं। जीने की आकांक्षा को जो समझेगा ठीक से, वह जीने की आकांक्षा का दीवाना और पागल नहीं रह जायेगा, वह जो लस्ट फॉर लाइफ है और जब तक कोई जीने की आकांक्षा से भरा है, जीने की तृष्णा से भरा है, लस्ट फॅार लाइफ से भरा है, तब तक परमात्मा के द्वार पर प्रवेश नहीं हो सकता है। इसलिये आप अपनी जिंदगी में किसी सुबह, किसी शाम रूक कर जरा देख लेना, कि इस जिंदगी में पाया क्या है? पूछना अपने आप से, किसी और से नहीं, क्योंकि इसका उत्तर कोई दूसरा न दे सकेगा। यह अपने से ही कभी-कभी पूछते रहें कि जिंदगी में पाया क्या है?
यह प्रश्न ही धीरे-धीरे इस जिंदगी की व्यर्थता को दिखाने का कारण बन जाता है और जब तक यह जिंदगी व्यर्थ न हो जाये, तब तक दूसरी सार्थक जिंदगी का द्वार नहीं खुलता है। इस जिंदगी की व्यर्थता का अर्थ है अब हम इस जिंदगी के पार होने के लिये तैयार हो गये। पहली कक्षा से विद्यार्थी दूसरी कक्षा में जाता है, उसका कुल मतलब इतना है कि अब पहली कक्षा व्यर्थ हो गई, अब उसमें सीखने जैसा कुछ भी बाकी नहीं बचा है, इस जिंदगी से हम तभी ऊपर की जिंदगी में उठ सकते हैं, जब यह जिंदगी व्यर्थ हो जाये। लेकिन इसके पहले की पा ली गई चीज व्यर्थ हो, हम दूसरी चीज को पाने में लग जाते हैं। हमारी डिजायर्स ओवर लैपिंग हैं, एक इच्छा पूरी नहीं हो पाती कि हम दूसरी में संलग्न हो जाते हैं। कभी मौका ही नहीं मिलता जिंदगी में कि दो इच्छाओं के बीच में खड़े होकर हम देख लें, एक विचार कर लें, एक रिकंसिड्रेशन कर लें कि हम जो दौड़ रहे हैं, पा रहे हैं, उससे कुछ मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है?
सुना है मैंने कि काशी के एक कुत्ते को दिल्ली की यात्रा की सनक सवार हो गई थी, वह किसी एम-पी- का कुत्ता था, छोटा-मोटा कुत्ता नहीं था और एम-पी- के घर में, चलो दिल्ली, चलो दिल्ली की बातें सुनते-सुनते उसका दिमाग भी खराब हो गया हो तो कुछ बहुत आश्चर्य नहीं है। आदमियों का हो जाता है, सो वह तो कुत्ता था। एक दिन उसने अपने नेता से पूछ ही लिया कि सारी दुनिया दिल्ली जा रही है, मैं भी दिल्ली जाना चाहता हूं। रास्ता क्या है? कैसे दिल्ली पहुंचूं? नेता का जो अपना रास्ता था, उसने उस कुत्ते को भी बता दिया। उसने कहा कि गरीब कुत्ते मिल जायें तो उनसे कहना कि अमीर कुत्ते तुम्हारा शोषण कर रहे हैं और अमीर कुत्तों से बचाने के लिये सिवाय मेरे और तुम्हारा कोई सेवक नहीं है और अमीर कुत्ते मिल जायें तो उनसे कहना कि गरीब कुत्ते मिल कर तुम्हारी हत्या की कोशिश कर रहे हैं और मेरे सिवाय तुम्हें बचाने वाला सेवक और कोई भी नहीं है।
लेकिन कुत्ता भी होशियार था, राजनैतिक का कुत्ता था। उसने कहा अगर दोनों एक साथ मिल जायें? तो नेता ने कहा, सर्वोदय की बात करना कि हम सबका उदय चाहते हैं, हम सबके सेवक हैं। वह कुत्ता बहुत जल्दी नेता हो गया, सीक्रेट कुंजी उसके हाथ में आ गई और उसने दिल्ली खबर भेज दी कि अब मैं आ रहा हूं। एक महीने का अंदाज था उसे कि काशी से दिल्ली तक आने में एक महीना लग जायेगा, इसलिये एक महीने बाद की उसने खबर की कि फलां तारीख को मैं चलूंगा और एक महीने बाद फलां तारीख को दिल्ली पहुंच जाऊंगा, दिल्ली के कुत्तों को खबर की। वहां सर्किट हाउस वगैरह में इंतजाम कर लेना, उसने सब खबर कर दी।
लेकिन वह कुत्ता सात दिन में ही दिल्ली पहुंच गया! दिल्ली के कुत्ते बड़े हैरान हुये कि इतनी जल्दी यात्रा कैसे की? इतनी जल्दी आ कैसे गये? नहीं है। मैं आपसे कहता हूं या तो आप खोयेंगे या आप पायेंगे। अगर आप पा नहीं रहे हैं, तो आप पूरे समय खो रहे हैं। लेकिन यह तो दूसरी बात होगी। पहले तो हमें यह पता चल जाये कि हम कुछ पा रहे हैं? हमें कुछ मिल रहा है? यह प्रश्न उठाना जरूरी है। जिस मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठ जाता है, उस मनुष्य को परमात्मा से बहुत दिन तक दूर रखने का कोई उपाय नहीं हैं, आज नहीं कल, कल नहीं परसों उसकी परमात्मा की तरफ यात्रा शुरु हो जायेगी। दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं कि जिंदगी में जो भी है, कुछ भी ठहरता नहीं है। आ भी नहीं पाता कि चला जाता है, जिंदगी एक धारा है, नदी, एक फ्लक्स, किनारे छू भी नहीं पाते कि छूट जाते हैं। आ भी नहीं पाती कि चीज चली जाती है। चीज तो चली जाती है, लेकिन हम परेशान रह जाते हैं।
एक आदमी गाली दे जाता है। गाली आती है, गूंजती है और चली जाती है और हमारी रात भर नींद असंभव हो जाती है। गाली तो टिकती नहीं, लेकिन हम गाली पर टिक जाते हैं। जिंदगी तो एक बहाव है, लेकिन आदमी जोर से कि्ंलगिंग करता है और हर चीज को पकड़ लेता है। एक सुबह बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया। क्रोध में था, गुस्से में था, थूक दिया। बुद्ध ने अपनी चादर से अपना मुंह पोंछ लिया और उस आदमी से कहा और कुछ कहना है? उस आदमी ने कहा, कहना? मैंने कुछ कहा नहीं, सीधा अपमान किया है आपका! बुद्ध ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, तुम कुछ कहना ही चाहते हो, लेकिन शब्द कहने में असमर्थ होंगे, इसलिये थूक कर तुमने कहा है। बुद्ध ने कहा, अक्सर ऐसा होता है, कोई बहुत प्रेम में होता है तो शब्द से नहीं कर पाता तो वह गले लगा लेता है। कोई बहुत श्रद्धा में होता है, शब्द से नहीं कह पाता तो चरणों पर सिर रख देता है। कोई बहुत क्रोध में होता है, शब्द से नहीं कह पाता तो थूक देता है। मैं समझता हूं तुमने कुछ कहा है और भी कुछ कहना है कि बात पूरी हो गई? वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ गया, वह वापस लौट गया। रात भर सो न सका। सुबह बुद्ध से क्षमा मांगने आया। उनसे कहने लगा, मुझे माफ कर दें।
बुद्ध ने कहा, किस बात की तुम माफी मांगते हो, उसने कहा कि मैं कल आपके ऊपर थूक गया था। बुद्ध ने कहा, न अब थूक बचा, न अब कल बचा, न अब तुम वही हो, न अब मैं वही हूं। कौन किसको क्षमा करे? कौन किस पर वह कुत्ता थोड़ा ही बता पाया और मर गया। क्योंकि इतनी जल्दी जिसने यात्रा की, वह जीता हुआ मंजिल पर नहीं पहुंचता। लेकिन अपनी बात कह गया। उसने कहा कि यह यात्रा मैंने नहीं की, मैं तो महीने भर में भी शायद ही पहुंच पाता, यह तो बाकी कुत्तों ने मेरी यात्रा करवाई। एक गांव को मैं छोड़ भी न पाता कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते। अपनी जान बचाने को मैं भागता। वे दूसरे गांव के बाहर तक मुझे छोड़ कर लौट भी न पाते कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते, और मैं जान बचाने को भागता। मैं दिल्ली नहीं आया, मैं जान बचा रहा हूं। इतना ही कहते, सुना है मैंने, वह कुत्ता मर गया था। लेकिन बड़े राज की बात वह कह गया।
आदमी भी अपनी-अपनी दिल्लियों पर पहुंच जाता है, लेकिन एक इच्छायें दूसरे गांव तक छोड़ भी नहीं पाता कि दूसरे गांव की पकड़ लेता है और सिर्फ अपने को बचाने में आदमी दौड़ता रहता है, दौड़ता रहता है और आखिर में कुछ बचता नहीं और कुछ मिलता नहीं। इसलिये अपने से पूछते रहना बार-बार, क्या मिल गया है इस जिंदगी में? और यह भी पूछते रहना कि क्या मिल जायेगा? क्योंकि जो कल चाहा था, वही आज भी हम चाह रहें हैं, जो परसों चाहा था वहीं कल भी चाहा था, जो वर्ष भर पहले चाहा था, वही आज भी चाह रहे हैं। जब जिंदगी भर चाहने से कुछ नहीं मिला, तो अब क्या मिल जायेगा, जिस आदमी के सामने यह प्रश्न बहुत गहरा होकर बैठ जाता है, उस आदमी की जिंदगी में बदलाव तत्काल शुरु हो जाती है।
मेरे एक शिष्य था जो बहुत क्रोधी था। वह मुझसे पूछता था कि मैं क्रोध से बचने के लिये क्या करूं? बड़े नुस्खे उसने उपयोग कर लिये थे, लेकिन कोई काम आया नहीं था। बड़ा संयम साध चुके थे, लेकिन जितना संयम साधा उतने क्रोधी होता चला गया। हां, एक-दो दिन नियंत्रण कर लेता था, तो तीसरे दिन दस गुना होकर प्रकट हो जाता था। तो मैंने उन्हें एक कागज लिख कर दे दिया और उस कागज में लिख दिया कि इस क्रोध से मुझे क्या मिल जायेगा? मैंने कहा, यह अपने खीसे में रख लो। दबाना मत क्रोध को, जब क्रोध आये तो इस कागज को पढ़ कर और वापस खीसे में रख लेना।
वह पंद्रह दिन बाद मेरे पास आया और कहा, यह तो बड़ा अजीब कागज है! इसमें कुछ रहस्य, कुछ मंत्र, कुछ जादू है? मैंने कहा, कोई रहस्य नहीं, कोई मंत्र नहीं, कोई जादू नहीं। साधारण कागज है और हाथ की लिखावट हैं। उन्होंने कहा, नहीं, जरूर कोई बात है, अब तो हालत यह हो गई है कि इसको निकाल कर पढ़ना भी नहीं पड़ता। बस हाथ खीसे की तरफ गया कि मामला एकदम विदा हो जाता है। क्योंकि जैसे ही यह खयाल आता है, इस क्रोध से क्या मिल जायेगा? तो जिंदगी भर का तो अनुभव है कि कभी कुछ नहीं मिला। सिर्फ खोया जरूर है, मिला कुछ भी नहीं है। इस जिंदगी में या तो माइनस होता है कुछ या प्लस होता है कुछ। या तो कुछ मिलता है या कुछ खोता है, बीच में कभी नहीं होता। इस पूरी जिंदगी में या तो कुछ मिलेगा या कुछ खोयेगा और अगर आपको कुछ न मिला हो तो दूसरी बात मैं आपसे कहता हूं कि आपने कुछ खो दिया है, जिसका आपको पता भी नहीं है।
ऐसा नहीं है कि हम खड़े रह जायें या तो हम आगे जायेंगे, या हम पीछे जायेंगे। अपनी जगह खड़े रहने की कोई गुंजाइश नहीं है। एडिंगटन एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक हुआ। उसने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आदमी की भाषा में रेस्ट नाम का शब्द सबसे झूठा है-रेस्ट, विश्राम। उसने लिखा कि मैं पूरी जिंदगी के अनुभव के बाद यह कहता हूं कि कोई चीज विश्राम में नहीं है या तो चीजें आगे जा रही हैं या पीछे जा रही हैं। कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। एट रेस्ट कोई भी चीज नाराज हो? चीजें सब बह गईं। तुम भी वही नहीं हो! क्योंकि कल तुम थूकते थे, आज तुम चरणों पर सिर रखते हो। कैसे मानूं कि तुम वही हो? सब बह जाता है। जिंदगी एक बहाव है। इस जिंदगी में जो मकान बनाते हैं, उन्हें इस बहाव का पता नहीं है, इसलिये नदी पर मकान बनाने की कोशिश में नष्ट हो जाते हैं। लेकिन हम हर चीज को पकड़ लेते हैं, जोर से। जो आदमी जिंदगी में चीजों को जोर से पकड़ रहा है, वह धारा के खिलाफ, जीवन की धारा के खिलाफ परेशान होगा। वह इतना परेशान हो जायेगा, अपने ही हाथ से।
एक नदी जोर से बही जाती थी, तेज थी धार, बहाव था बाढ़ का और दो छोटे से तिनके नदी में बह रहे थे। एक तिनका नदी में आड़ा हुआ था और नदी से लड़ रहा था और कोशिश कर रहा था, कि नदी को आगे नहीं बढ़ने देगा। बहा जा रहा था, क्योंकि नदी को कहां पता चलेगा कि एक तिनका नदी को आड़ बन कर रोकने की कोशिश कर रहा है! लेकिन बड़ा बेचैन था, क्योंकि लड़ रहा था पूरे वक्त और हार रहा था पूरे वक्त। लड़ रहा था और हार रहा था। चेष्टा कर रहा था और डूब रहा था। संघर्ष कर रहा था और नीचे की तरफ बह रहा था। ऊपर चढ़ना चाह रहा था और नीचे की तरफ जा रहा था। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन तिनका बड़ा परेशान था। दूसरा तिनका नदी में आड़ा पड़ा हुआ नहीं था, सीधा पड़ा था। नदी की धार की तरफ पड़ा हुआ था। वह दूसरा तिनका नदी के साथ बह रहा था और बड़ा आनंदित था और यह सोच रहा था मन में कि मैं नदी को बहने में सहायता दे रहा हूं। नदी को उसका भी पता नहीं था, लेकिन वह परेशान नहीं था। नदी को उन दोनों तिनकों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन उन दोनों तिनकों के दृष्टिकोण से उन दोनों तिनकों को बहुत फर्क पड़ रहा था।
जिंदगी की धारा में आप आड़े तिनके की तरह पड़े हैं या जिंदगी की धारा में आप सीधे तिनके की तरह पड़ें हैं? अगर जिंदगी की धारा में आप बहने को राजी हैं, तो यह जिंदगी की धारा आपको परमात्मा तक पहुंचा ही देगी। अगर आप बहने को राजी नहीं हैं, तो आप बहुत परेशान होंगे और वह परेशानी इतना धुआं बन जायेगी कि अगर परमात्मा का सागर सामने भी आ जाये तो आपको दिखाई नहीं पडे़गा, सिर्फ अपनी हार ही दिखाई पड़ती रहेगी, अपनी असफलता ही दिखाई पड़ती रहेगी। तो दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं वह यह कि जिंदगी में कुछ भी ठहराव नहीं है, जिंदगी में कुछ ठहरा हुआ नहीं है। आप जिंदगी में कुछ ठहराने की कोशिश में मत पड़ जाना।
हम सब पड़े हैं कोशिश में। यह कोशिश चिंता बन जाती है। यह कोशिश विषाद बन जाती है। यह कोशिश एंग्विश, संताप बन जाती है। यह कोशिश हमें पागल कर देती है। यह कोशिश ही हमारे व्यक्तित्व को रूग्ण और बीमार कर देती है। जिंदगी की धारा में कुछ भी ठहरता नहीं है। इसे प्रतिपल जो स्मरण रखेगा, वह विक्षिप्त नहीं होगा, वह पागल नहीं हो जायेगा। और जिसकी जिंदगी में तनाव नहीं है, वह परमात्मा के मंदिर की तरफ कदम बढ़ा सकता है। जिसकी जिंदगी में तनाव है, वह सिर्फ पागलखाने की तरफ कदम बढ़ाता रहता है। हम सब पागलखाने की तरफ कदम बढ़ाये चले जाते हैं। कोई जरा दरवाजे पर पहुंच गया है, कोई दरवाजे के भीतर पहुंच गया है, कोई दरवाजे से जरा दूर है, कोई सड़क पर है, कोई चौराहे पर है, लेकिन रूख, चेहरा हमारा पागलखाने की तरफ है।
हम सब चिंतित, परेशान, तनाव से भरे हुये, पागलखाने की तरफ मुंह किये हुये हैं। परमात्मा की तरफ मुंह, पागलखाने की तरफ पीठ करने से होता है और पागलखाने की तरफ पीठ वही कर सकता है जो जिंदगी में जरा भी तनाव नहीं पालता। पालता ही नहीं तनाव, जो टेंशन्स मोल ही नहीं लेता। चीजें आती हैं, बीत जाती हैं, वह खड़ा रह जाता है। तूफान आते हैं, बड़े वृक्ष गिर जाते हैं। क्योंकि बड़े वृक्ष बड़े तनाव पालते हैं, बड़े अकड़े होते हैं। ऊंचे होने का पागलपन और अहंकार हो जाता है। तूफान आते हैं तो बड़े वृक्ष गिर जाते हैं, छोटे घास के पौधे झुक जाते हैं। तूफान चला जाता है, पौधे वापस खड़े हो जाते हैं।
जिंदगी तूफान है, बहुत आंधियां हैं वहां। चौबीस घंटे न मालूम क्या-क्या चारों ओर हो रहा है। जो आदमी एक-एक तूफान में टूटेगा, वह आदमी टूट ही जायेगा। जो आदमी प्रत्येक तूफान में जानेगा-यह भी बीत जायेगा, वह आदमी हर तूफान के बाद फिर खड़ा हो जायेगा। और जो सैकड़ों तूफानों के बाद खड़ा हो जाता है, फिर उसे तूफान, तूफान नहीं, खेल मालूम पड़ने लगते हैं। फिर वे तूफान से घबड़ाते नहीं, लीला हो जाते हैं।
शिष्य के चित्त निर्माण में यह आवश्यक है कि हम जिंदगी में ऐसे गुजर जायें जैसे कोई आदमी पानी से गुजरे और पानी उसके पैरों को न छुये। बड़ा मुश्किल है! पानी से गुजरेगा तो पानी तो पैरों को छुयेगा ही। लेकिन जिंदगी से जरूर आदमी ऐसे गुजर सकता है कि जिंदगी उसे न छुये। जिंदगी छूती नहीं, हम पकड़ लेते हैं। अब बुद्ध चाहते तो पकड़ सकते थे कि यह आदमी थूक गया, इसने क्यों थूका? अब मैं क्या करूं और क्या न करूं? और रात भर चिंतित हो सकते थे। वे पकड़ लेते।
थूक आया और गया, गाली आई और गई। पकड़ते हैं हम, जिंदगी हमें कुछ नहीं पकड़ाती। हम जोर से पकड़ लेते हैं और हमारी पकड़, हमारी कि्ंलगिंग हमारी चिंता, हमारी बेचैनी बन जाती है और धीरे-धीरे हम इतने अशांत हो जाते हैं कि हम लोगों से पूछते फिरते हैं कि शांत कैसे हो? मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। वे कहते हैं, शांत कैसे हों? मैं उनसे पूछता हूं कि पहले तुम मुझे बताओ कि तुम अशांत कैसे हुये? क्योंकि जब तक यह पता न चल जाये कि तुम कैसे अशांत हुये, तो शांत कैसे हो सकोगे। एक आदमी मेरे पास लाया गया। उसने कहा, मैं विवेकानन्द आश्रम से आता हूं। शिवानंद के आश्रम गया हूं। महेश योगी के पास गया हूं। ऋषिकेश हो आया, यहां गया, वहां गया। रमण के आश्रम गया हूं। कहीं शांति नहीं मिली, तो किसी ने आपका मुझे नाम दिया तो आपके पास आया हूं।
तो मैंने कहा, इसके पहले कि तुम निराश होकर लौट जाओ, तुम पहले ही लौट जाओ, नही तो तुम और लोगों से भी जाकर कहोगे कि वहां गया और शांति नहीं मिली। तो तुम अभी ही लौट जाओ, इसके आगे बात करनी उचित नहीं है। उसने कहा, क्या मतलब आपका ? मैं तो बड़ी आशा से आया हूं। तो मैंने उस आदमी को कहा कि अशांति सीखने तुम किस आश्रम में गये थे? किस गुरु से अशांति सीखी? अशांति तुम सीखोगे और शांति मैं न दे पाऊंगा तो अपराधी मैं हो जाऊंगा। मैंने उस आदमी से पूछा, तुम फिक्र छोड़ो शांति की, तुम मुझे यह बताओं कि तुम अशांत कैसे हुये? क्योंकि जो अशांत होने का ढंग है, उसी में कुंजी छिपी है, शांत होने की और कहीं कोई शांति नहीं खोज सकता।
अशांत होते हैं हम, जिन्दगी के साथ जोर से चिपक जाते हैं, इसलिये अशांति होते हैं। उस तिनके की तरह सीधे नहीं नदी में बह जाते। नहीं तो फिर अशांति का कोई कारण नहीं है, अशांत हम होते हैं, हमारा जीवन के प्रति जो ढंग है, उससे। वह जो हमारा वे ऑफ लिविंग है, उससे हम अशांत होते हैं और शांति हम खोजते हैं कि किसी के आशीर्वाद से मिल जाये। शांति हम खोजते हैं कि परमात्मा की कृपा से मिल जाये। हम अशांति होने का पूरा इंतजाम करते चले जाते हैं और कुछ भी नहीं होता।
इसलिये साधारण आदमी साधारण रूप से अशांत होता है, धार्मिक आदमी असाधारण रूप से अशांत हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, शांति भी चाहिये और वह जो चाहिये था सब, वह तो चाहिये ही- वह धन भी चाहिये, वह यश भी चाहिये, वह पद भी चाहिये, वह सब तो चाहिये ही, शांति भी चाहिये, आगे लिखेगा परमात्मा भी चाहिये और उसकी अशांति और बढ़ जायेगी। इसलिये किसी घर में एक आदमी तथाकथित धार्मिक हो जाये, तो खुद तो अशांत होता है, बाकी लोगो को भी शांत रहने देने में दिक्कत डालने लगता है। सबको गड़बड़ कर देता है। शांति चाहिये, यह भी उसके लिये अशांति ही बन जाती है।
शांति चाही नहीं जा सकती, सिर्फ अशांति समझी जा सकती है, शांति को चाहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि चाह अशांति है। इसलिये शंति को कैसे चाहियेगा? वह कंट्राडिक्ट्री हो जायेगी। शांति कोई नहीं चाह सकता। शांति को डिजायर ऑब्जेक्ट नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि सब इच्छायें अशांति पैदा करती हैं, इसलिये शांति इच्छा नहीं बन सकती। सिर्फ अशांति को समझ ले और अशांत न हो, तो जो शेष रह जाता है, उसका नाम शांति है। शांति एब्सेस है। शांति सिर्फ अभाव है। अगर आप सोचते हो कि परमात्मा हमें शांति दे दे, तो आप बड़ी गलती में पड़ेंगे। परमात्मा का आपका सम्बन्ध ही तब होगा जब आप शांत होंगे, इसलिये परमात्मा कोई शांति नहीं दे सकता, अशांति के कारण हमारा उससे कोई सम्बन्ध नहीं बन पाया, हम परमात्मा से डिसकनेक्ट हैं, अशांति के कारण, इसलिये परमात्मा से आप शांति मत मांगना, आप शांति लेकर जाना उसके दर पर, तो आनन्द मिल सकता है उससे, आपका कल्याण हो सकता है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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