तुम्हें गुरु रूपी हिमालय से टकरा कर अपने अमृत जल से पूरी पृथ्वी की युगों-युगों की प्यास बुझाना है।
तुम सामान्य कुल के नहीं, हंसों के वंश के राजहंस हो।
तुम तो आस-पास बैठे बगुलों की भीड़ में खो गये हो और तुम्हारा जीवन बगुले के रूप में व्यर्थ जा रहा है।
मैं पूरे रास्ते पर अपने सीने की धड़कनों को बिछा दी है जिसमें आप पांव रखते हुये आ सकें।
मैं पूरे रास्ते पर अपने शरीर की खुशबू बिखेर दी है और दिल की आहट को हर कदम पर खड़ी कर दी है कि आप आवें और मैं बावरी बनूं।
मैंने तुम्हे अपनेसे अलग किया था, बूंद बन कर बादलों में विचरण करने के लिये, हिमालय से टकरा कर जलधार बनने के लिये, यौवनमय नदी बनने के लिये जिससे कि तुम जलती हुई धरती की अगन बुझा सको, प्यास बुझा सको, उसे तृप्त कर सको।
पर तुम बन गये तालाब, एक छोटा सा तलैया, जिसमें लहर नहीं है, उछाह और उत्साह नहीं है, तरंग और मस्ती नहीं है और परिवार के किनारों से बंधे होने की वजह से तुम्हारा जीवन-जल सड़ांध देने लगा है।
तुम मेरे पास आओ, मैं तुम्हें पुनः नदी बना दूंगा मस्ती से छलकती हुई, थिरकन से इठलाती हुई, अपने में मगन मस्ती में बहती हुई।
आकर मुझ से एकाकार बनो, तभी तो बूंद का समुद्र में जीव का आत्मा में, प्राणों में विसर्जन होगा।
यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम गुरु को आंसुओ का अर्घ्य दे सके, बिछोह का वंदन कर सके, सिसकारियों का संगीत छेड़ सके।
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