सृष्टि का प्रारम्भ भगवान विष्णु से माना गया है, और संसार विष्णु की ही माया लीला का स्वरूप है, भगवान विष्णु का सगुण स्वरूप भी है और निर्गुण स्वरूप भी, माया रूपी स्वरूप में वे लक्ष्मी के साथ अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करते हैं।
मुझे याद है कि बचपन में जिस गुरुकुल में हम जाते थे, वहां आचार्य प्रातः और सायंकालीन संध्या करते थे तो हम सब बालक वहां बैठते थे, संध्या की विशेष विधि का ज्ञान नहीं था, तो हमारे आचार्य श्री ने कहा कि सब बालक नेत्र बन्द करे और ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नमः’ मंत्र का जप करें, यह जीवन की आधार शक्ति का मूल मंत्र है। सभी देव-देवी श्री विष्णु की लीला के अधीन हैं और आज भी जब मन अशांत होता है, कार्य में बाधायें आती हैं, कोई मार्ग नहीं मिलता तो मैं हाथ मुंह धोकर एक दीपक जला कर शांत भाव से बैठ कर एक माला उपरोक्त मंत्र का जप करता हूं, अपने आप एक मार्ग दिखने लगता है।
विष्णु साधना का पुरश्चरण बारह लाख मंत्रों का और पुरश्चरण के पश्चात् इसके शतांश बारह हजार मंत्र का यज्ञ-विधान है।
साधना का मार्ग संक्षिप्त नहीं है और जब भी साधना करें तो पूर्ण विधि-विधान सहित सम्पन्न करें। उसी रूप में साधना से पूर्ण सफलता मिलती है। आगे जो विधान दिया जा रहा है उनके पांच भाग हैं, न्यास भी हैं, उन्हें उसी रूप में सम्पन्न करना है।
इस साधना में मूल रूप से नारायण महायंत्र आवश्यक है जिसे एक बाजोट पर पीला वस्त्र बिछा कर स्थापित करें और पूरे अनुष्ठान में उसी रूप में स्थापित रहने दें, इसे हटाना ही नहीं है। इसके अतिरिक्त अबीर, गुलाल, कुंकुम, केसर, चन्दन, मौली, सुपारी व अर्पण हेतु प्रसाद आवश्यक है।
इस साधना क्रम में विष्णु के सभी स्वरूपों का पूजन किया जाता है। वह पूजन करते हुये विष्णु कमल बीज चन्दन में डुबो कर अर्पित करना है। इस हेतु काफी मात्र में चन्दन घिस कर पहले से ही रख लेना चाहिये।
श्री विष्णु की साधना में विनियोग, साधना तथा पंचावरण पूजा का विशेष विधान है। सभी दिशाओं में स्थित विष्णु स्वरूपों का पूजन किया जाता है। अतः इसे इसी रूप में सम्पन्न करना है। दाहिने से शरीर के अंगों को स्पर्श करना है, अर्पण भी दाहिने हाथ से किया जाता है, यह विशेष ध्यान रहे।
दाहिने हाथ में जल लें-
विनियोग
अस्य श्री द्वादशाक्षरमन्त्रस्य प्रजापति ऋषिः
गायत्री छन्दः वासुदेवः परमात्मा देवता
सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोगः।
जल भूमि पर गिरा दें।
ऋष्यादिन्यास
ऊँ प्रजापति ऋषये नमः शिरसि गायत्री छन्दसे नमः
मुखे वासुदेव परमात्मा देवतायै नमः
हृदि विनियोगाय नमः सर्वांगे।
करन्यास
ऊँ अंगुष्ठाभ्यां नमः, नमः तर्जनीभ्यां नमः,
भगवते मध्यमाभ्यां नमः,
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय
कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
नमः शिरसे स्वाहा, भगवते शिखायै वषट्,
वासुदेवाय कवचाय हुं, ऊँ नमो भगवते
वासुदेवाय अस्त्राय फट् ।
ध्यान
विष्णु शारद चन्द्रकोटि सदृशं शंखं रथांड्गदाम्।
अम्भोजंदधतं सिताब्जनिलयं कान्त्या जगन्मोहनम्।।
आबद्धांगदहारकुण्डलमहामौलिं स्फुरत्कंकणम्।
श्रीवत्सांकसुदारकौस्तुभधरं वन्दे मनीन्द्रैः स्ततम्।।
भावार्थ- हाथों में कोटिशरद्चन्द्रधवल शंख, चक्र, गदा, कमल लिये, सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में हार एवं उदार कौस्तुभमणि, बाहों पर केयूर एवं कलाई पर चम-चमाते करभूषण कंकण धारण किये हुये अपनी कमनीय कान्ति से विश्व को मोहित करने वाले, ऋषि-मुनि अभिवन्दित, श्री वत्सांक, परम महत्वद्योतक वक्षस्थल पर श्वेत वामावर्त (चिह्न विशेष), श्वेत कमल निवासी, मुनीन्द्रों के द्वारा संस्तुत भगवान विष्णु का मैं वन्दन करता हूं।
अपने सामने जो यंत्र स्थापना के लिये पीठ बनाई गई है, उस पर वस्त्र बिछा कर सबसे पहले पीठ पूजन किया जाता है, और यह पूजन पूर्व दिशा से प्रारम्भ करते हुये आठ दिशाओं तथा पूर्णता के भाव में पीठ के मध्य दिशा का पूजन किया जाता है। यह क्रम इस प्रकार से होगा जिसके अन्तर्गत प्रत्येक पीठ शक्ति का ध्यान कर उस दिशा में पुष्प चढ़ायें –
ऊँ विमलायै नमः, ऊँ उत्कर्षिण्यै नमः,
ऊँ ज्ञानायै नमः, ऊँ क्रियायै नमः, ऊँ योगायै नमः,
ऊँ प्रह्रयै नमः, ऊँ सत्यायै नमः, ऊँ ईशानायै नमः,
ऊँ अनुग्रहायै नमः ऊँ नारायणायै नमः (मध्य में)।
अब यंत्र स्थापना प्रारम्भ होती है, हाथ में पुष्प लेकर उसे चन्दन में डुबो कर पीठ के मध्य में आसन स्थापित करें और निम्न मंत्र बोलते हुये यंत्र को पुष्प आसन पर चढ़ाये-
अब धूप, दीप इत्यादि से पूजन सम्पन्न कर, शांत भाव से एकाग्रचित्त होकर क्रियाशक्ति वैजन्ती माला से उक्त मंत्र का 4 माला मंत्र जप 5 दिन तक करें।
साधना समाप्ति के उपरान्त साधना सामग्री को किसी जलाशय में विसर्जित कर दीजिये।
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