शिष्य यह उत्सव गुरु पूर्णिमा के रूप में इसलिये मनाता है, क्योंकि आध्यात्मिक क्षेत्र में शिष्य के जीवन की पूर्णता गुरु को आत्मसात करना है और जिसने यह क्रिया सम्पन्न की, उसके लिये तो साधनायें अत्यन्त लघु हो जाती हैं और जब ऐसा होता है, तो शिष्य के रक्त के कण-कण से ध्वनि गुंजरित होने लगती है—गुरुदेव गुरुदेव—गुरुदेव—और गुरु पूर्णिमा तो इसी क्रिया को पूर्णता देने का माध्यम है, जिससे शिष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पूर्ण सफल बन सके।
शिष्य के जीवन का एक महत्वपूर्ण पर्व, उसके जीवन का उत्कृष्ट पर्व ही बन कर नहीं आता, वरन् यह तो दीपावली, होली, विजयदशमी से भी अधिक महत्वपूर्ण है। यह ऐसा पर्व है, जब शिष्य समस्त सांसारिक बंधन समाप्त कर अपने जीवन में वृद्धि की एक और सीढ़ी ऊपर चढ़ता है। यही तो वह महोत्सव है, जब शिष्य ‘स्व’ को भूलकर निमग्न हो जाता है और प्रत्येक क्षण ऐसा प्रतीत होने लगता है, कि गुरुदेव हर शिष्य के हृदय में अपनी तेजस्विता के साथ विद्यमान हैं। प्रत्येक शिष्य हर क्षण उनकी सामीप्यता का एहसास करते हुये उनके द्वारा प्रदत्त तपस्यांश को ग्रहण करते हैं।
यह पर्व है ही इतना प्रिय सभी शिष्यों को, जब प्रत्येक शिष्य अपने भौतिक बंधनों से मुक्त होकर किसी की परवाह न करते हुये दौड़ पड़ता है, गुरु के चरणों से लिपटने के लिये और यह क्रिया ही उसके शिष्यत्व का एहसास कराती है, जिससे उसकी ज्ञान प्राप्त करने की आकांक्षा प्रकट होती है। यही वह अवसर होता है, जब शिष्य हुलस कर, मचल कर दौड़ पड़ता है गुरु से पूर्ण रूप से एकाकार होने के लिये। यही तीव्रता आप सभी को भी प्रदर्शित करनी है, अपने शिष्यत्व को साकार करने के लिये मचल कर, हुलस कर, हुमक कर पहुंचना ही है।
आपको अपने शिष्यत्व का परिचय देने के लिये ही तो इस वर्ष दिनांक 9 जुलाई 2017 को गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व उपस्थित हो रहा है। इस अवसर पर तीन दिवसीय साधनात्मक चैतन्यता को आत्मसात करने का आयोजन 07, 08, 09 जुलाई है, वैदिक और पौराणिक काल से ही भारतीय संस्कृतियों के विकास का केन्द्र एवं पश्चिम भारत का ऐतिहासिक क्षेत्र रायपुर छ-ग- में।
जब शिविर का आयोजन होता है, तो इसे एक सामान्य क्रिया नहीं समझनी चाहिये, क्योंकि उस क्षेत्र के निवासियों के कई जन्मों का पुण्योदय होता है, तब शिविर का आयोजन निर्धारित होता है, रायपुर में ‘गुरु पूर्णिमा’ शिविर का आयोजन होना निश्चय ही छत्तीसगढ़ के निवासियों के पुण्यों का प्रभाव है। साथ ही यह भी ध्यान रखने योग्य है, कि जब क्षेत्र विशेष के सामाजिक व्यक्तियों के सुकर्मों का पुण्योदय होता है, जब उसके जीवन से दरिद्रता का नाश होकर सम्पूर्ण ऐश्वर्य व सम्मान की प्राप्ति होनी होती है, तब ही वह ऐसे दिव्यतम शिविर आयोजित होते हैं। पहले जितनी भी गुरु पूर्णिमा हो चुकी हो, प्रत्येक गुरु पूर्णिमा एक नया पड़ाव और नया आयाम लेकर ही शिष्य के जीवन में आता है।
एक कृषक कितनी ही फसलें काट चुका हो, आषाढ़ की ऋतु आते ही टक-टकी लगाकर आकाश निहारने लगता है और वर्षा की रिम-झिम होते ही नाच उठता है क्योंकि वह जानता है, कि उसका अस्तित्व पूर्व अर्जित धन-भंडार से नहीं, अपितु इस वर्षा से सुनिश्चित होगा। शिष्य भी इसी प्रकार प्रत्येक गुरु पूर्णिमा में अमृत वर्षा की रिमझिम में भीगना चाहता है, क्योंकि यही अमृत वर्षा उसके अस्तित्व का आधार जो होती है, भले ही वह कितनी ही ऊंचाई पर क्यों न पहुंच चुका हो या कितनी ही साधनाओं और सिद्धियों को क्यों न हस्तगत कर चुका हो यों भी वह शिष्यत्व ही क्या जिसमें शिशुत्व न हो—और जो वर्षा की फुहारों में बिना कोई परवाह किये भीगने को उतावला न हो उठता हो। गुरु पूर्णिमा एक पर्व ही नहीं, एक दुर्लभ अवसर ही है- जो आनन्द, निश्चिंतता, निर्भयता के रूप में!
गुरु पूर्णिमा अर्थात् पूर्ण हो जाना, यदि फिर भी किसी का भाग्य साथ न दे—जब गुरु चरणों में पहुंचने के सारे मार्ग बंद हो जायें, जब तूफान बीच में आकर खड़ा हो जाये, जब पांवों में बेडि़यां बांध दी जायें—और हर प्रयत्न विफल हो जाये, ऐसे में सिवाय दुःख, वेदना, पीड़ा, निराशा के कुछ शेष नहीं रह जाता—आंखों से निरन्तर अश्रुओं की बहती अविरल धारा—उचक-उचक कर, सिसक-सिसक कर अपनी असहनीय वेदना की कहानी कहने लगता है।
मिलने के लिये आतुर मन व मन की अभिलाषा, कि मैं गुरु आभा को पखार कर उसे हृदय में आत्मसात कर सकूं और अपने को गुरुमय बना सकूं, जब सब कुछ असम्भव हो जाये और कोई उपाय नहीं अपने व्याकुल हृदय की वेदना को शांत करने का हुलस-हुलस कर मन जब एक ही बात बार-बार दोहराये, तब नेत्रों में एक ही बिम्ब तैर रहा हो और मन, प्राण आत्मा का चिन्तन एक ही बिन्दु पर केन्द्रित हों, जब रोम-रोम से एक ही पुकार निकल रही हो- हे गुरुदेव! आप मुझे बुला लीजिये—आप मुझे बुला लीजिये, जब भाव, चिन्तन-मन एक हो जाय तो फिर उसे कोई नहीं रोक सकता तब प्राण तत्व के माध्यम से उसकी बात गुरुदेव तक पहुंचती ही है और जब वे तरंगें आपस में टकराती हैं, तो गुरु और शिष्य दो अलग भाव नहीं रहते, एक हो जाते हैं और तब गुरु का हृदय भी उस वेदना में जलने लगता है और वे भी व्याकुल हो उठते हैं, व्यग्र हो उठते हैं उस शिष्य को अपनी बाहों में समेट लेने के लिये, उसके हृदय में खुद को स्थापित कर देने के लिये।
क्योंकि वह शिष्य तो दूर रहकर भी दूर नहीं रहता, अपितु प्राणों में बस जाता है एकाकार हो जाता है और तब वह अपने मन के अंधियारे को, कलुषिता को गुरु में लीन हो समाप्त करने में समर्थ हो जाता है। क्योंकि जीवन में सूर्य की तपिस रूपी कितनी भी उग्रता का भाव हो गुरु रूपी समुंद्र की शीतलता न्यून नहीं होती, गुरु तो विशाल-विशाल स्वरूप में समुद्र समान होता है और उसमें सैकड़ो-सैकड़ो नदियां समाहित हो जाती हैं और उन नदियों का स्वरूप समुद्रवत् बन जाता है। सांसारिक मनुष्य भी अपने आपको गुरु में समाहित कर जीवन को समुद्रवत् बना सकता है।
यही है वास्तविक गुरु-शिष्य के मिलन की गाथा जो वर्षों से गाई जाती रही है, क्योंकि हमेशा यही होता आया है कि नदी व्यग्र और व्याकुल होकर पहाड़ों को चीरती हुई उस समुद्र से मिलने के लिये बेताब रही है और समुद्र भी उसे अपने विशाल, गहरे हृदय में समेट लेने को छिपा लेने को आतुर खड़ा दिखाई देता है और फिर दोनों एक होकर पूर्ण तृप्त हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं फिर शिष्य का भटकाव समाप्त हो जाता है और वह पूर्ण हो जाता है, क्योंकि गुरु को प्राप्त कर लेना शिष्य की पूर्णता है।
इस महोत्सव में सद्गुरुदेव भौतिक जीवन को पूर्ण आनन्दमय चेतना से सराबोर करने हेतु महामाया नारायण सौभाग्य जाग्रत अष्ट लक्ष्मी शक्ति युक्त सद्गुरुमय जीवन प्राप्ति की दीक्षायें व साधनात्मक क्रिया सम्पन्न करेंगे। साथ ही हवन, अंकन पूजन की चेतना से जीवन की आधि-व्याधि की न्यूनतायें पूर्ण रूपेण भस्मीभूत हो सकेगी।
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