लेकिन तुम्हें भरोसा स्वयं पर है तो प्रार्थना नहीं हो सकेगी। यह भरोसा ही तुम्हारी बाधा है, इसे छोड दो तो तुम्हारी आन्तरिक शक्ति खुल जाती है, मुक्त हो जाती है तथा ईश्वर से मेल कर लेती है, सद्गुरु से मेल कर लेती है और फिर आप कहते हो कि मुझे कुछ नहीं पता, सब कुछ तू ही है।
और इन सब का विचार करके ऋषियों ने देखा कि साधक के अंदर भी ईश्वर को प्राप्त करने के लिये उर्ध्वगमन की क्रिया का होना अनिवार्य है, चाहे वह किसी भी धर्म, संप्रदाय, जाति आदि का ही क्यों न हो। उपनिषद का ऋषि यही समझाना चाहते है कि स्वयं का कोई अस्तित्व न बचा पाओं, तो ही बात बनेगी। ऋषि कहता है हे देवता! मुझे सन्मार्ग की ओर ले चल। यदि हम इसका अर्थ यह समझते हो कि कोई देवता आकर हमारा हाथ पकडेगा तो ऐसा नहीं है।
हे अग्नि! तू हमें कर्मफल भोगने के लिये सन्मार्ग से ले चल। हे देव! तू सभी ज्ञान एवं कर्मों को जानने वाला है, हमारे पाखण्ड पूर्ण पापों को नष्ट कर। हम तुम्हें बारम्बार नमस्कार करते हैं। अग्नि को देवता मान कर उससे प्रार्थना की गई है क्योंकि उसे सद्मार्ग का पता है। तथा मुझे कुछ पता नहीं, कोई ज्ञान नहीं, कौन सा मार्ग है, क्या शुभ है और क्या अशुभ है, मैं अज्ञानी हूं, तू ही मुझे ले चल।
प्राचीन ऋषियों ने अग्नि से ही क्यों प्रार्थना की है? इसलिये कि उन्होंने जान लिया था कि अग्नि का मार्ग ऊर्ध्वगत है। अग्नि को किसी भी प्रकार से रखिये, उसकी शिखा, उसकी लपट सदैव ऊपर की ओर ही जाती है। यह उसका स्वभाव है। दूसरे जो भी उसके संपर्क में आता है वह उसे शुद्ध बना देती है तथा उसकी अशुद्धियों को जलाकर भस्म कर देती है। अग्नि ऊर्ध्वगमन होकर आकाश में खो जाती है, वह शून्य में मिल जाती है, उसका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं बचता।
हमनें अग्नि को भी देखा है तो साक्षात् पानी को भी देखा है और पानी की यात्रा सदैव नीचे की ओर होती है। पानी का स्वभाव यही है कि वह नीची से नीची जगह को खोज लेता है और जहां से भी रास्ता मिले उसी रास्ते से गुजरकर सबसे नीचे के तल पर रूक जाता है तो हम देखते है कि जल की यात्रा अधोगमन की यात्रा है। और जल एकत्र हो जाता है लेकिन हमारे ऋषियों ने देखा तथा अनुभव किया कि अग्नि ही एक ऐसा देवता है जिसकी यात्रा ऊर्ध्वगमन की यात्रा है और मनुष्य भी केवल उर्ध्वगमन की यात्रा करके ही श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बनने की क्रिया कर सकता है। जल अपना अस्तित्व एकत्र हो कर बचाये रखता है जब कि अग्नि कितनी भी गहराई से उठे तो भी आकाश की तरफ उठती है और अग्नि सब कुछ जलाकर खाक कर देती है और साथ ही साथ स्वयं भी खो जाती है।
कोई देवता आकर हमारा हाथ पकड कर सन्मार्ग की ओर चलाने नहीं आयेगा। परंतु जो अपनी बात हम अपने हृदय की गहराई से भाव पूर्वक कहेंगे तो यह प्रार्थना ही हमारा संबल बनती है, हमारा आधार बन जाती है और यह आधार हमारे भीतर में एक तीव्र आकांक्षा का रूप ले लेती है, एक अकाट्य विचार हमारे रोम-रोम से निकलने लग जाता है तथा जो विचार हम करते हैं, जैसा हम सोचते हैं, जैसा हम बनना चाहते हैं, जैसा हम होना चाहते हैं, वैसे विचार हम अपने रोम-रोम में, मन में, मस्तिष्क में, हृदय में अधिक से अधिक समय तक बनाये रखते हैं और जो विचार प्रति क्षण हमारे अन्दर में उपस्थित होता है हम वैसे ही बन जाते हैं। यही हमारी देवता के प्रति प्रार्थना होती है।
और यह अग्नि की लपट एकदम से नहीं उठती, अग्नि भी जलती है तो सूखी लकडियां चाहिये, गीली नहीं। गीली लकडि़यों में तो धुंआ निकलता है। हमारे कर्म भी दलदल पूर्ण गीले अथवा सूखे होते है। यदि सूखी लकडी रूपी कर्म हो तो ही अग्नि की लपट उठती है और हमारे अशुभ कर्मों को जलाकर शुभ कर्मों की ओर अग्रसर कर देती है। गीली लकड़ी रूपी हमारा अहंकार है जिन कर्मों को हम स्वयं को कर्ता मान बैठते है तथा ईश्वर पर नहीं छोडते। तो फिर गीली लकडियों में किस प्रकार अग्नि की लपट उठेंगी। हम प्रार्थना भी तभी करते है जब हम अहंकार को विदा कर रहे होते है। अहंकारी व्यक्ति प्रार्थना नहीं कर सकता।
जो स्वयं को असहाय मानता है, अज्ञानी मानता है वह ही विनम्र होता है। वह ही यह बात कह सकता है। हे अग्नि देव! मुझे उर्ध्वपात की ओर ले चल अर्थात् निरंतर उच्चता की ओर, आकाश की ऊचांइयों को छू संकू। मुझे कुछ भी मालूम नहीं है मैं निरा मूर्ख हूं, इन वाक्यों में स्वयं ही घोषणा है कि प्रार्थना करने वाला असहाय है, असमर्थ है, अज्ञानी है। तब साधक या भक्त आत्मीय भाव से ईश्वर से प्रार्थना करता है, मैंने जो किया वह उचित था या अनुचित था, मुझे मालूम नहीं लेकिन हे देव! आपको सब कुछ पता है और आपके किये से ही अब कुछ हो सकता है और आप ही मुझे ले चलो ऊँचाइयों की ओर। मेरे कर्मों को हे देव आप जानते हैं। मैंने जो भी किया अज्ञानता में किया। उस सब का मुझे कोई ज्ञान नहीं था। जो भी बुरा हुआ वह मेरी अज्ञानता थी और जो अच्छा होगा वह आपके सद्ज्ञान से ही संभव हो सकेगा। केवल आप सभी ज्ञान व कर्मों को जानते हैं, मेरे सभी पाप पूर्ण कर्मों को भस्म करके मुझे सन्मार्ग दिखाईये। आपको बारम्बार प्रणाम करता हूं।
हमें किसी भी वस्तु की, पदार्थ आदि की अशुद्धियों को समाप्त करना हो तो उसे अग्नि से ही गुजारते है तथा जो शेष बचता है वह शुद्ध होता है। सोना हो, चांदी हो अथवा कोई भी वस्तु हो, जल हो आदि। राख को (भस्म) को भी शुद्ध कहा गया है हमारे शास्त्रों में जल स्नान के अलावा भस्म स्नान भी करना बताया गया है। अर्थात् भस्म शुद्ध होती है जो अग्नि के सम्पर्क मे आकर ही यह स्वरूप लेती है और अग्नि भी अपने सम्पर्क में आये हुये का रूप भी परिवर्तन कर देती है तो ऋषियों ने अग्नि को अद्वितीय देवता माना है। यह दिव्य देवता है जो मनुष्य की उर्ध्वगमन वृत्तियों का प्रतीक कहा जा सकता है।
और मनुष्य को सद्मार्ग पर अग्रसर होने के लिये ही किसी देवता रूपी गुरु की सहायता और मार्गदर्शन चाहिये। सद्मार्ग पर बढ़ने के लिये राह में आई बाधाओं के कारण उसके पग डगमगाते है अन्यथा किसी भी असद्मार्ग पर जब वह बढ़ता है तो स्वयं ही बढ़ता जाता है और पानी की तरह अपना मार्ग स्वयं खोजता हुआ अपनी मंजिल पर पहुंचता है। अतः अधोगमन का रास्ता स्वयं की वासनाओं का कारण है तथा उर्ध्वगमन का रास्ता स्वयं के अहंकार को खोने का रास्ता है। प्रार्थना असहाय होकर अहंकार रहित होकर रोम-रोम से, हृदय की गहराई से करनी है जिससे वह प्रार्थना की शक्ति हमें सन्मार्ग की ओर ले चले जो हमारे पाखण्ड पूर्ण कर्मों को जलाकर हमें शुद्ध कर ऊर्ध्वगति युक्त ऊँ मय बनाती है।
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