यह सुनकर राजा भयभीत हो गये क्योंकि मुनि अपने वर्ण के नहीं थे तथा दरिद्र एवं वृद्ध थे लेकिन मना करने पर उन्हें मुनि द्वारा शाप दिये जाने का भय था। तब राजा ने मुनि से कहा मुनिवर! हमने कन्यादान के लिये शुल्क निर्धारित किया हुआ है, यदि उसे आप देने में सक्षम हो तो मैं अपनी कन्या का विवाह कर दूंगा। तब मुनि ने कहा- राजा! कन्या का शुल्क कितना निर्धारित है मुझे बताओ।
तब राजा ने कहा- कि वायु के समान वेग वाले श्वेत रंग के सात सौ घोडे, जिनका एक-एक कान श्याम रंग का हो, मेरी कन्या के शुल्क के रूप में ही प्राप्त होने चाहिये। ऐसा सुनकर मुनि ने कहा – बहुत अच्छा। और वहां से चलकर उन्होने गंगा के किनारे बैठकर श्वेत वर्ण तथा श्याम कर्ण के घोडो की प्राप्ति हेतु चौंसठ ऋचाओं वाले सूक्त का अनुष्ठान किया। तब वे घोडे गंगा जल से ही प्रकट हो गये जिनका वर्ण श्वेत तथा एक कान श्याम था वे सभी वेगवान तथा सवार सहित थे।
उन घोडों को राजा गाधि को देने पर राजा गाधि ने वचनानुसार अपनी कन्या का विवाह मुनि से कर दिया। लेकिन विवाह के पश्चात् मुनि ऋचीक अपनी अति सुंदर पत्नी राजकुमारी की ओर से निष्काम हो गये और बोले- सुंदरी! मैं तपस्या के लिये वन में जाना चाहता हूं। तुम कोई वर मांग लो।
मुनि के बातों को सुन कर राजकुमारी दुःखी मन से अपनी माता के पास गई तथा उन्हें पूरा वृतान्त सुनाया तब माता ने कहा – बेटी! तुम्हारे पति तुम्हे मनोवांछित वरदान देने में समर्थ है और यदि वह देने के लिये राजी हो तो उनसे स्वयं के तथा मेरे लिये पुत्र होने का वरदान दे देने की प्रार्थना करो जो तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हो वह ब्राह्मणोचित गुणों वाला हो तथा मेरे गर्भ से क्षत्रियों चित गुणों वाला पुत्र उत्पन्न हो मुनिवर से ऐसी प्रार्थना करना, जिसे प्राप्त कर तुम्हारे साथ-साथ हम सब का भी भला होगा।
तब राजकुमारी माता की बात मानकर मुनि के पास गई तथा उनसे उसी प्रकार वर मांगा जिस प्रकार उसकी माता ने कहा था। राजकुमारी की बात सुन कर मुनि ऋचीक ने पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न कर दो प्रकार की चरु (खीर) का निर्माण किया, एक में उन्होंने ब्राह्मणोचित तेज का तथा सम्पूर्ण यश का स्थापन किया, दूसरे में सम्पूर्ण क्षात्रतेज का स्थापन किया तथा पहले उन्होने अपनी पत्नी को चरु दे कर कहा कि तुम इसको ग्रहण करने के पश्चात् पीपल वृक्ष का आलिंगन करना। जिससे तुम्हें इसके प्रभाव से ब्राह्मणोचित तेज एवं गुणों से परिपूर्ण बालक उत्पन्न होगा और दूसरे चरू को अपनी माता को दे देना जो इसे खाने के पश्चात् वह वट वृक्ष का आलिंगन करे। ऐसा करने से उन्हें क्षात्रतेज से युक्त श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति होगी। तब वे दोनों चरु को लेकर घर आ गयी।
घर आने के पश्चात् माता ने पुत्री से कहा- बेटी! इस संसार में हर कोई स्वयं के लिये उत्तम वस्तु ही चाहते है इसीलिये तुम्हारे लिये जो चरु मुनि ने दी है वह अवश्य ही कुछ अधिक विशिष्ट होगी अतः तुम अपना चरु मुझे दे दो और मेरा तुम लेलो। माता ऐसा कहने पर पुत्री ने चरु को बदल लिया और ग्रहण कर उसी के अनुसार वृक्षों के आलिंगन भी किये।
कुछ समय पश्चात् राजकुमारी ने गर्भ धारण कर लिया और राजकुमारी में क्षत्रिय तेज के लक्षण परिलक्षित होने लगे। वह मन ही मन हाथी, घोडे, रथ आदि पर चढ़ने तथा राज्य करने की बातें सोचने लगी तथा युद्ध संबन्धी बातों में रूचि रखने लगी। तब मुनि ने उसके क्षत्रियोचित कर्मों को देख कर क्रुद्ध होते हुये पूछा – पापिनी! तुमने यह क्या किया? तुमने अवश्य ही चरु व वृक्ष में परिवर्तन कर लिया है, इसीलिये अब निश्चित रूप से, तुम्हारा भाई ब्रह्मतेज से परिपूर्ण होगा लेकिन तुम्हारा पुत्र क्षत्रिय तेज से युक्त होगा। तुम्हारे गर्भ के लक्षणों से ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि गर्भिणी स्त्री के मन में जिस प्रकार के विचार, अभिलाषा उत्पन्न होती है उसी प्रकार के गुणों से युक्त संतान उसके गर्भ से उत्पन्न होती है।
तब राजकुमारी ने विनती पूर्वक मुनि ऋचीक से कहा आपकी बात सच है हमने चरु तथा वृक्ष का आपस में परिवर्तन किया है, यह अपराध मुझसे हुआ है, मुझे क्षमा कर मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरे गर्भ से ब्राह्मणोचित तेज से युक्त बालक ही उत्पन्न हो। तब ऋचीक ने कहा – मैने जो कुछ भी ब्राह्मणोचित तेज व गुण होते है वह सब मैने तुम्हारी चरु में स्थापित किये थे और तुम्हारी माता के चरु में क्षत्रिय गुणों का स्थापन किया था। यह सब शास्त्र सम्मत किया गया था अतः अब शास्त्रों के विपरीत इस में कैसे फेरबदल किया जा सकता है?
लेकिन राजकुमारी के अधिक प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा- मैं केवल इतना ही कर सकता हूं कि तुम्हारा पुत्र क्षात्र तेज से युक्त न होकर तुम्हारा पौत्र क्षत्रियोचित तेज से विभूषित होगा। वह अपने क्षात्रतेज के कारण युद्ध में शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष होगा। तब राजकुमारी ने कहा – प्रभु ऐसा ही कर दो। इस प्रकार राजकुमारी को परम पवित्र ब्रह्मतेज से युक्त पुत्र उत्पन्न हुआ जो जमदग्नि के नाम से लोकों में विख्यात हुये। तथा जमदग्नि के पुत्र क्षात्रतेज से विभूषित परशुराम उत्पन्न हुये, जिन्होने अपनी शक्ति से 21 बार क्षत्रियों से पृथ्वी को खाली कर दिया था। और दूसरी चरु के प्रभाव से गाधि राज्य की महारानी को जो पुत्र हुआ वह क्षात्रतेज से विभूषित थे जो विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुये लेकिन राज्य को करते हुये भी उनका मन ब्राह्मणों के आदर-सत्कार तथा उनकी सेवा में लगा रहता था।
विश्वामित्र एक राजा थे। एक बार वे हिंसक पशुओं का शिकार करते हुये दोपहर में प्यास से व्याकुल हो गये। तथा वन में स्थित ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ के आश्रम पर जा पहुंचे तब वशिष्ठ जी ने राजा विश्वामित्र को आया देख कर उनका स्वागत किया तथा कहा – राजन्! आप मेरे आश्रम में आये हो आपका कौनसा अभीष्ट कार्य करूं।
तब विश्वामित्र ने उनसे जल पिलाने का आग्रह किया। और वशिष्ठ जी ने उन्हें शीतल जल पिलाकर उनकी प्यास को बुझाया। इसके पश्चात् विश्वामित्र जी ने चलने के लिये आज्ञा मांगी और कहा – ऋषिवर! मेरी प्यास बुझ गयी है अतः मुझे वापस जाने की आज्ञा दीजिये।
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