मानव जीवन को गतिमय करने में जितना मनुष्य का स्वयं का कर्म निर्भर करता है उतना ही उसका भाग्य भी और यदि मनुष्य इसके साथ ही देवी-देवताओं का आश्रय भी ले लेता है तो स्वयं भी पुरुषार्थ से ही अपनी भाग्य लिपि को लिख लेता है।
दैविक शक्तियां भी उन्हीं को सहयोग प्रदान कर पाती हैं, जो स्वयं में दृढ़ निश्चयी हों तथा स्वयं पर और अपने कार्यों पर पूर्ण विश्वास रखते हों। ऐसे ही व्यक्तियों को साधक कहा गया है और साधक अपने जीवन में जो इच्छा, जो कामना करता है वह फलीभूत होती ही है। वह सदैव ऐसे अवसरों की ताक में रहता है, जब वह साधनाये सम्पन्न कर अपने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के जीवन की पूर्णता प्रदान कर सके।
साधक ही तपस्वी होता है क्योंकि साधना का तात्पर्य ही जीवन में निश्चित सिद्धान्त अपनाकर निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये सदैव कर्मशील रहना है। सबसे विशेष तथ्य यह है कि तपस्वी का सम्बन्ध भगवती श्री विद्या से है और श्री विद्या का ही नाम राज-राजेश्वरी है। ऋग्वेद के वृहचोपनिषद् में इस पर सुलेख है कि एक मात्र देवी ही सृष्टि का पूर्व थी और राज राजेश्वरी से ही सभी देवता प्रादुर्भूत हुये।
राज राजेश्वरी की उपासना से आत्मज्ञान, शोकोत्तीर्णता से युक्त भोग और मोक्ष भी सुलभ है-
श्री सुन्दरी सेवन तत्पराणां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।
श्री विद्या चारों पुरूषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की दात्री है। श्री राज राजेश्वरी के आयुध है- पाश, अंकुश, इक्षुधनु और पंचपुष्प वाणं अर्थात पाश इच्छा का प्रतीक, अंकुश ज्ञान का प्रतीक, बाण व धनु क्रिया शक्ति का प्रतीक है। श्री राज राजेश्वरी उस परम चैतन्य परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न है।
माघी गुप्त नवरात्रि पर दस महाविद्या चेतनामय राज राजेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने से दस महाविद्याओं की चेतना से जीवन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पूर्णता की प्राप्ति हो सकती है। साथ ही साधक के जीवन की समस्त बाधाओं को समाप्त कर उसे पूर्णता और सफलता के उच्चतम सोपान पर प्रतिष्ठित कर देती हैं। और गृहस्थ जीवन में सुहाग सौभाग्य, आरोग्यता, संतान सुख, कार्य-व्यापार, रोजगार, कृषि, धन लक्ष्मी की सुस्थितियों में वृद्धि होती है।
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