साधक तथा शिष्य अपने गुरु के पास इसी उद्देश्य से आता है, कि वह अपने आपको पूर्ण समर्पित कर गुरु के दिव्य ज्ञान एवं प्रभाव से अपने भीतर के विकारों का, अपने इस जन्म और पूर्व जन्म के दोषों का नाश कर दें, शिष्य अपना मार्ग स्वयं नहीं पहिचान सकता, वह केवल गुरु द्वारा बताये गये मार्ग पर चलना जानता है, और जब वह सही मार्ग पर चलता है, तो उसे सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है।
दीक्षा का ताप्तर्य केवल गुरु-मन्त्र शिष्य को देना ही नहीं है, दीक्षा का तात्पर्य है, गुरु की कृपा और शिष्य की श्रद्धा का संगम, गुरु आत्म-दान और शिष्य का आत्म समर्पण, यह दीक्षा है, यह शक्तिपात की एक विशेष प्रक्रिया है, जो शिष्य के भीतर सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने की प्रक्रिया है, दीक्षा का तात्पर्य है, गुरु द्वारा ज्ञान, शक्ति और सिद्धि का दान, तथा शिष्य के अज्ञान और पाप का क्षय, जब तक पापों का मोचन, दोषों का शमन, पूर्ण रूप से नहीं हो जाता है तब तक शिष्य में पूर्णता नहीं आ सकती।
‘रूद्रयामल तन्त्र’ के अनुसार जो साधक अपने गुरु के पास आकर पूर्ण सिद्धि प्राप्त करना चाहता है तो किसी भी रूप में भूत शुद्धि करा कर पाप मोचनी दीक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिये, इस दीक्षा का स्वरूप अत्यन्त ही उपयोगी और प्रभावकारी है, वह तो आगे बढ़ने की दिशा में पहला प्रयास है।
व्यक्ति यदि जीवन में पूर्ण दरिद्रता युक्त जीवन जी रहा है या यदि वह किसी घातक बीमारी की चपेट में है, जो कि समाप्त होने का नाम नही ले रही हो, तो यह समझ लेना चाहिये, कि उसके पाप आगे आ रहे हैं—
नीचे कुछ स्थितियों को स्पष्ट किया गया है, जो कि व्यक्ति के पूर्व पापों के कारण जीवन में प्रवेश करती हैं-
1- घर में बार-बार कोई दुर्घटना होना, आग लगना, चोरी होना आदि।
2- पुत्र या संतान का न होना या होने पर तुरन्त मर जाना।
3- घर के सदस्यों की अकाल मृत्यु होना।
4- जो भी योजना बनायें, उसमें हमेशा नुकसान होना, व्यापार या कार्य में निरन्तर घाटा ही घाटा होना।
5- हमेशा शत्रुओं का भय होना।
6- विवाह में अत्यन्त विलम्ब या घर में कलह पूर्ण वातावरण तनाव आदि।
7- हमेशा पैसे की तंगी होना, दरिद्रतापूर्ण जीवन, बीमारी और अदालती मुकदमों में पैसा पानी की तरह बहना।
ये कुछ स्थितियां हैं, जिनमें व्यक्ति जी-जान से कोशिश करने के उपरान्त भी यदि उन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर पाता, तो समझ लेना चाहिये, कि यह पूर्व कर्मों के दोष के कारण ही घटित हो रहा है। इसके लिये फिर उन्हें दीक्षा प्राप्त कर साधना का मार्ग अपनाना ही चाहिये, जिसके द्वारा उसके समस्त दोष नष्ट हो सकें और वह जीवन में सभी प्रकार से वैभव, शांति और श्रेष्ठता प्राप्त कर सके।
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