भारतीय विचारधारा में चार्वाक दर्शन का अन्य दर्शनों से अलग हटकर ही स्थान है, यह भिन्न इसलिये है, कि यह मात्र इस भौतिक संसार के अस्तित्व को ही स्वीकार करता है, ईश्वर या परमात्मा का इस दर्शन में कोई स्थान नहीं है। कुछ विद्वानों का कहना है, कि चार्वाक एक ऋषि हुये है। जबकि कुछ अन्य का मानना है कि चार्वाक एक विचारधारा का नाम है, जो समाज के एक हिस्से के लोगों की थी। ‘चर्र’ का अर्थ है ‘चबाना’ अथवा ‘खाना’। इस चार्वाक दर्शन का मूल मंत्र है- ‘खाओ, पिओ और मौज करो’
चार्वाक के अनुसार आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती है, जो भी जीवन है, वह जन्म से लेकर मृत्यु तक ही है, न उसके पहले कुछ था और न बाद में ही कुछ होता है, इसलिये क्यों परलोक सुधारने के लिये समय बर्बाद किया जाये? क्यों पितरों की तृप्ति के लिये पिण्डदान किया जाये। जितना भी जीवन है, उसे पूरी तरह सुख पूर्वक पूर्ण ऐश्वर्य और विलास के साथ जीना ही बुद्धिमानी है। जो इन्द्रियों से समझा जा सकता है, वही सत्य है और यदि ईश्वर दिखता नहीं है, तो उसका अस्तित्व भी नहीं है, इसलिये जीवन में अपने सुख को ही प्रधानता देना श्रेष्ठता है।
धर्म और मोक्ष का खण्डन कर चार्वाक ‘अर्थ’ और ‘काम’ को ही जीवन का लक्ष्य स्वीकार करता है। मनुष्य के जीवन में अर्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मानव धन के उपार्जन के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। धन कमाने के लिये व्यक्ति भिन्न-भिन्न कार्यो में संलग्न रहता है, परन्तु चार्वाक अर्थ को जीवन का चरम लक्ष्य नहीं मानता है। अर्थ की उपयोगिता इसलिये है कि यह सुख अथवा काम की प्राप्ति में सहयोग प्रदान करता है। धन एक साधन है जिससे सुखसाध्य की प्राप्ति मात्र होती है। धन का अपने आप में मूल्य नहीं है, बल्कि इसका मूल्य दर्शन के अनुसार ‘काम’ ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है-
अर्थात् पूछा जाय तो चार्वाक के अनुसार काम की प्राप्ति या सुखोपभोग ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।
‘काम’ अर्थात् ‘कामना या इच्छाओं की तृप्ति’ ही मानव का चरम लक्ष्य है। मानव के सारे कार्य काम अथवा सुख के निमित ही होते है। जब हम मनुष्य के कार्यो का विश्लेषण करते है, तो पाते है, कि प्रत्येक कार्य के पीछे सुख की भावना विद्यमान रहती है। मनुष्य स्वभावतः सुख की कामना करता है। प्रत्येक व्यक्त्ति उसी वस्तु की ओर अग्रसर होता है, जिससे सुख मिल सके। उस वस्तु से सुख के बजाय दुःख भले ही मिले, परन्तु जब वह वस्तु की कामना करता है, तो उसका मूल ध्येय सुख की प्राप्ति ही रहता है। इस मत के अनुसार मनुष्य को वही काम करना चाहिये, जिससे सुख की प्राप्ति हो। शुभ जीवन वही है, जिसमें अधिकतम सुख हो और न्यूनतम दुःख हो। अच्छा काम वह है, जिससे अत्यधिक सुख की प्राप्ति हो।
कुछ लोग होते है, जो सांसारिक सुखों के त्याग का आदेश देते है। वे कहते है, कि यदि कोई व्यक्ति सुखोपभोग की कामना करता है, तो उसे कुछ-कुछ दुःख उठाना पड़ेगा। इसलिये मानव को सुख की कामना नहीं करनी चाहिये, तथा पाशविक प्रवृत्तियों का दमन करना चाहिये। चार्वाक का कहना है, कि दुःख के डर से सुख का त्याग करना महान मूर्खता है। भूसे से मिश्रित होने के कारण क्या बुद्धिमान व्यक्ति अन्न को छोड़ देता है? गुलाब में कांटा रहने के कारण कोई गुलाब का फूल तोड़ना तो बंद नहीं कर देता और न ही किसान जानवर के फसल चर जाने के डर से खेत में बीज बोना बंद कर देता है।
चार्वाक के अनुसार पारलौकिक सुख और आध्यात्मिक सुख को अपनाने के उद्देश्य से इस जीवन के सुख का त्याग करना पागलपन है, इसके विपरीत मानव को वर्तमान भौतिक सुख को अपनाने का ध्येय रखना चाहिये, जो प्राप्त हो सके। वर्तमान सुख पर चार्वाक अधिक जोर देता है, कल क्या होगा वह अनिश्चित है इसके लिये अभी से चिन्ता करना समझदारी नहीं है। चार्वाक का सिद्धांत है, कि जो भी सुख हो उसे वर्तमान में ही भोग लेना चाहिये, क्योंकि कब मृत्यु हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। तृष्णाओं को दबाना अप्राकृतिक है।
चार्वाक दर्शन की बहुत आलोचना हुई है, कारण क्योंकि उसके सिद्धान्त वैदिक संस्कृति के विपरीत है, ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते है, मात्र भौतिकता में ही लिप्त रहने में विश्वास रखते है। परन्तु यदि सूक्ष्मता से आंकलन किया जाये, तो चार्वाक की सब बातों में एक बात यह तो सही है कि इच्छाओं की पूर्ति , कामनाओं की तृप्ति ही मानव का लक्ष्य है और यह गलत भी तो नही है।
जब तक मनुष्य की आकांक्षाये पूरी नहीं होंगी तब तक वह मुक्त नहीं होगा, इसलिये इच्छाओं का दमन करना नहीं अपितु उन्हें यत्न पूर्वक पूर्ण करना पुरूषार्थ है। जीवन में धन हो, वैभव हो, ऐश्वर्य हो, आज्ञाकारी पुत्र हो, सुमधुर लक्षणा पत्नी हो, नौकर हो, विपुल सम्पदा हो, यही तो जीवन है और भौतिक दृष्टि से यही पूर्णता है। यह मानव की पहली आवश्यकता है, भौतिक पूर्णता के बाद ही आध्यात्मिक पूर्णता की बात सोचनी चाहिये। इसमें कहीं कुछ गलत नहीं है।
ठीक से खाने को है नहीं, पहनने को है नहीं, रहने के लिये अच्छा आवास है नहीं, कई और समस्यायें ऊपर से है और इन सब से जब व्यक्ति दुःखी है, तो मन ईश्वरीय चिन्तन, अध्यात्म अथवा साधनाओं के बारे में कैसे एकाग्र हो सकता है। नहीं हो सकता है! इसीलिये पहले हर प्रकार की अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति आवश्यक है, भौतिक पूर्णता आवश्यक है। भौतिक दृष्टि से पूर्णता के लिये ही एक प्रयोग यहां दिया जा रहा है, जो वस्तुतः जीवन में अर्थ और काम प्राप्ति की ही साधना है।
इस साधना को किसी भी शुक्रवार को प्रारम्भ किया जा सकता है, इसमें किसी भी प्रकार के वस्त्र धारण कर सकते है। समय का भी कोई बन्धन नहीं है, प्रातः अथवा सायं कभी भी इस प्रयोग को कर सकते है। इसके लिये ‘भौतिक सिद्धि यंत्र’ ‘4 काम बीज’ एवं ‘श्री फल’ पहले से प्राप्त कर लें।
किसी पात्र में अक्षत का आसन देकर भौतिक सिद्धि यंत्र को स्थापित कर दें। यंत्र का कुंकुंम, अक्षत एवं सुगन्धित इत्र से पूजन करें। इसके बाद यंत्र के पूर्व , उत्तर, पश्चिम व दक्षिण दिशाओं में एक-एक काम बीज अक्षत की एक-एक ढेरी बनाकर उस पर स्थापित करें। श्री फल को यंत्र के ऊपर स्थापित करें। इसके बाद निम्न मंत्र का 24 मिनट तक जप करें-
इस प्रकार मात्र 11 दिनों तक करें। बाद में समस्त सामग्री को जल में प्रवाहित कर दें।
इस साधना से व्यक्ति का भौतिक जीवन जब सुदृढ़ हो जायें, उसकी भौतिक कामनायें, इच्छायें पूरी तरह तृप्त हो जाये, उसके बाद अन्य किसी साधना या आध्यात्मिक चिन्तन में उतरना चाहिये, तब उसे सफलता आसनी से मिल जाती है।