-जिसके पास बैठने से मन में अपूर्व शान्ति का एवं आनन्द का अनुभव हो।
-ऐसा प्रतीत हो, कि इनका और मेरा अत्यन्त अंतरंग सम्बन्ध है।
-ऐसा लगे कि इनके और मेरे बीच कोई भेद या दूरी है ही नहीं।
-जिनके बिना जीवन व्यर्थ और बेमानी लगे।
-वही गुरू- है, वही ‘पथप्रदर्शक है।
गुरू की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि गुरू बहुत कुछ देना चाहता है। कोई गुरू यह नहीं चाहता कि मेरा नाम हो या मैं ही दुनिया मैं पूजा जाऊं, गुरू तो यह चाहता है, कि मैं शिष्य को समर्थ, योग्य और अद्वितीय बनाऊं, ऐसा बनाऊं जिससे कि वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त करें।
छोटी मोटी सफलता जीवन की सफलता नहीं कहीं जा सकती, सफलता का तात्पर्य तो यह है कि, हम जिस क्षेत्र में हो अद्वितीय हो……. और यदि जीवन में सफलता प्राप्त होगी तो केवल साधनाओं के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है।
हमारे अन्दर एक तूफान हो, संकल्प शक्ति हो, द्वंद शक्ति हो और फौलाद की तरह विचार हों। यह निश्चय हो कि या तो दैवी कृपा प्राप्त करके रहूंगा या शरीर को समाप्त हो जाने दूंगा…. जब ऐसा चैलेंज, ऐसी संकल्प शक्ति उसके मन में उसके विचारों में आती है, तब उसे ‘साधक कहा जाता है।
जिस प्रकार एक लोटे का जल समुद्र में डाल दिया जाता है, तो वह लोटे का जल भी समुद्र बन जाता है, ठीक उसी प्रकार जब सामान्य शिष्य गुरू की सेवा करता हुआ उनसे एकाकार हो जाता है, तो वह पूर्ण गुरूमय बन जाता है। इस गुरूमय बनने की क्रिया को ही ‘सिद्धि’ कहते हैं।
जब शिष्य के विचार उसका चिन्तन, उसका ध्यान, उसकी धारणा गुरूमय हो जाती है, वह जो भी करता है गुरू के निमित करता है, तब वह गुरूमय बन जाता है…… और तब वह गुरू के द्वारा समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर पूर्ण ‘सिद्धि पुरूष’ बन जाता है, विश्व में अद्वितीय बनकर दैदीप्यमान हो उठता है।
जिसका गौत्र ही गुरू बन जाता है, जिसकी चेतना ही गुरू बन जाती है, जिसका रक्त ही गुरूमय बन जाता है, वही गुरू पुरूष बन पाता है, वही तेजस्विता युक्त और चेतना युक्त बन पाता है, वही सही अर्थो में शिष्य बन पाता है।