समाज की भीड़ से हम हट जाये, तो भी भीड़ हमारे अन्दर छिपी रहती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि भीड़ में बैठे हुये भी हम एकांत में हों, और ऐसा भी हो सकता है कि एकांत में हो और भीड़ में बैठे हों। इस भीड़ में भी कोई अगर शांत होकर बैठ जाये और अपना स्मरण करे तो दूसरे व्यक्तियों को भूल जायेंगे। इस भीड़ में भी बैठकर कोई अगर अपने स्मरण से भर जाये, तो दूसरों का स्मरण खो जाएगा। क्योंकि मन की एक अनिवार्य क्षमता है कि एक क्षण में मन के समक्ष एक ही मौजूद हो सकता है। अगर मैं अपने मन को अपनी ही मौजूदगी से भर दूं, तो दूसरे गैर-मौजूद हो जायेंगे। चूंकि मैं अपने मन में मौजूद नहीं होता, इसलिए दूसरों की मौजूदगी बनी रहती है।
एकांत का मतलब बहुत गौण है। एक ऐसी जगह बैठ जाना, जहां दूसरा मौजूद न हो। यह जगह बाहर की कम और अन्दर की ज्यादा है, यदि तुम बाजार में भी बैठे हो और तुम्हारे मन में दूसरा मौजूद न हो, तो तुम एकांत में हो। और ध्यान रखना भलीभांति कि अगर बाजार में बैठकर एकांत नहीं हो सकता, तो एकांत में भी एकांत नहीं हो सकेंगे। क्योंकि मन का एक दूसरा नियम है कि जो मौजूद नहीं होता, उसकी याद आती है। जहां हम नहीं होते हैं, वहां होने की आकांक्षा होती है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि बाजार में बैठे हुये तुम सोचते हो, एकांत में होते तो कितना अच्छा होता और एकांत में बैठे हुये तुम बाजार की वासना से भर जाते हो। हम जहां होते हैं मन वहां से ऊब जाता है और जहां हम नहीं होते वहां का रस लेने लगते है। जो चौबीस घंटे उपलब्ध नहीं है, उसके प्रति रस में बना रहता है। जो चौबीस घंटे उपलब्ध है, उसके प्रति रस क्षीण हो जाता है। इसीलिए जब हमें कोई चीज मिल जाती है, तो मिलते ही बेकार हो जाती है।
तुम सोचते थे एक बड़ा मकान बन जाये, वह बन गया। फिर दो-चार-आठ दिन बाद देखा कि वह व्यर्थ हो गया। उतनी भी सार्थकता न निकली उसकी जितनी कि सपनों में थी। बड़े मकान ने सपनों में जितना रस दिया था वह बनकर भी नहीं दे पाता। महीने-दो-महीने बाद तो तुम भूल ही जाओगे कि है भी उसी में रह रहे हो उसी में आ रहे हो जा रहे हो। दो-चार साल बाद दूसरों को तो दिखता रहेगा, परन्तु आपके मन को वह मकान नहीं दिखता।
मन जिसको पा लेता है, वह बेकार हो जाता है। क्योंकि मन का सारा रस अनुपलब्ध में हैं, जो नहीं मिला है, उसमें है, मन की सारी वासना उसके लिए है, जो तुम से दूर है तुम्हारे पास नहीं। मन दूर में रस लेता है। एक कहावत है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। वो दूरी की वजह से नहीं होते हैं, मन की वजह से होते हैं। दूरी जितनी होती है और किसी चीज को पाना जितना मुश्किल, जितना कठिन होता है, मन का रस उतना ही बढ़ जाता है। क्योंकि जब बाजार में होंगे तो एकांत चाहेगा और एकांत में होंगे, तो बाजार चाहेगा। मंदिर में बैठे होंगे तो वेश्यालय की याद आयेगी। और वेश्यालय में बैठे हुये व्यक्ति को भी मंदिर की याद आती है। ये जीवन बहुत सीधा है, परन्तु इसको जटिल मन ने बना दिया है। इसकी जटिलता को ठीक से नहीं समझोंगे तो ध्यान में जाना मुश्किल हो जाता है।
मन के अन्दर हमने अपनी ही एक दुनियां बनाये हुये हैं। वहीं भीड़ है। वासनायें पहले मन में निर्मित होती है और हजार वासनाओं में से एक ही बाहर तक पहुंच पाती है। कितनी योजनायें मन में ही निर्मित होती है, जिनमें से शायद सौ में से एक भी पूरी नहीं हो पाती। यदि तुम ठीक से जीने का हिसाब लगाओ, तो यदि कोई व्यक्ति सौ साल जीता हो, तो वह कम-से-कम अस्सी साल अपने अन्दर की वासनाओं में जीता है और बीस साल बाहर। और ये जो अन्दर जीने की प्रक्रिया है, यही हमारी भीड़ है। इसलिए हम कहीं भी चले जायें, तो कम-से-कम हम स्वयं वहां होंगे ही। सबको छोड़ कर चले जाये जंगल में, तो भी स्वयं को कहां छोड़ जाओंगे? अपने आप को तो पीछे नहीं छोड़ पाओंगे और जब मैं अपने स्वंय के साथ पहुंच जाऊंगा तो अनिवार्य रूप से मेरे मन की सारी कल्पनायें, मेरे मन की सारी वासनायें, मेरी सारी योजनायें, मेरे मन के सारे संबंध, सब मेरे साथ इक्ट्ठे हो जायेंगें। और वो सब मेरी भीड़ हैं। इस आंतरिक भीड़ को मिटाने का नाम ही एकांत हैं।
इसलिए एकांत स्थिति ज्यादा अच्छी है। एकांत स्थान में बैठ जायें, लेकिन ये मत समझना कि एकांत इतने से हो जाएगा। उपयोगी हो सकता है एकांत स्थान परन्तु पर्याप्त नहीं है। एकांत स्थिति भी चाहिए। और यह स्थिति बन जाये, तो फिर स्थान का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता, आदमी कहीं भी एकांत में हो सकता है कही भी! एक बार अन्दर से मन एक हो और ये जो मन की जो दुनियां है इसकी पकड़ ढीली हो जाए और हम इसके जाल के बाहर हो जायें, तो व्यक्ति एकांत स्थिति को भी और एकांत स्थान को प्राप्त कर लेता है। स्थिति अन्दर और स्थान बाहर की बात है। स्थान गौण है, स्थिति मूल्यवान है। जमीन खींच रही है शरीर को नीचे की तरफ। उसका जो खिंचाव है, वहीं अपना बोझ है। जिसको आप वजन कहते हैं तराजू पर खड़े होकर, वो वजन वस्तु का नहीं है, वह वजन जमीन की कोशिश का है। जितना जोर से जमीन खींचती है-तराजू नीचे झुक जाता है। अगर हम गुरुत्वाकर्षण को हटा दें, तो तराजू पर कितना ही वजन रखें वह नीचे नहीं झुकेगा। इस गुरुत्वाकर्षण में भी गुरुत्व जुड़ा हुआ हैं। जैसे गुरुत्वाकर्षण आदमी को नहीं छोड़ता, वैसे ही गुरु भी अपने शिष्यों का भी जन्मों जन्मों तक साथ नहीं छोड़ते है।
कभी तुमने ख्याल किया कि जब आपके आँसू बह जाते हैं तो अन्दर एक हल्कापन छोड़ जाते हैं। लेकिन आँसूओं का दुख से कोई भी संबंध नहीं है। आँसू खुशी में भी आ जाते हैं। आँसू हर्ष का अतिरेक हो जाए तो भी आ जाते हैं। आँसू प्रेम ज्यादा हो जाए तो भी आ जाते हैं। दुख ज्यादा हो जाए तो भी आ जाते हैं। आँसू आंखों का अपने दमन को हटाने का उपाय है। आँसू अन्दर जो भी दब जाता है, उसे फेंकने का उपाय हैं।
तुम कुछ भी कर लो, सत्तर-अस्सी साल में शरीर बूढ़ा हो जायेगा। अगर ठीक से आदमी पर काम हो, तो उसकी जड़ मानी हुई मान्यताओं में से बहुत-सी मान्यतायें गलत सिद्ध होते ही आदमी को तकलीफ शुरू हो जाती है। आदमी मानने को तैयार नहीं कि उसकी कोई मान्यता गलत है। और मजा यह है कि अपनी ही मान्यताओं के कारण वह सब तरह के दुख में पड़ा है। पूछने जाता है कि मेरा दुख कैसे मिटे? लेकिन अगर उससे कहा कि तुम्हारी मान्यतायें ही तुम्हें दुख दे रही है। तुम्हीं अपने दुख के निर्माता हो, तो मान्यताओं को बदलने को तैयार नहीं है।
आदमी ऐसा है कि खुद ही अपना कारागृह बनाकर, उसमें ताला लगाकर, चाबी को फेंक देता है बाहर। और फिर चिल्लाता है कि मैं बहुत दुख में हूं, बहुत बंधन में पड़ा हूं, मुझे छुड़ाओं और जब गुरु उसको बताता है कि यह तेरी ही मूढ़ता का फल है, तो फिर उसको क्रोध आता है। अगर क्रोध को शून्य में प्रगट करोगे, खाली आकाश में क्रोध को प्रगट करो और आकाश की छाती बहुत बड़ी है, लौटाएगी नहीं क्रोध को। अगर हम अपने सब दमित वेगों को प्रगट कर सकें, तो निर्जरा हो जाती है, तो ‘कैथार्सिस’ हो जाती है। तो शरीर शुद्ध हो जाता है। और जब शरीर शुद्ध होता है, तो ध्यान में पंख लग जाते हैं। आदमी ध्यान में उड़ने लगता है। उसको चलना नहीं पड़ता उसकी उड़ान शुरू हो जाती है।
अपने गुरु को प्रणाम करके। जिस शक्ति में भी, जहां भी परमात्मा के होने की पहली झलक मिली हो, परमात्मा पहली दफा अर्थ पूर्ण मालूम पड़ा हो, परमात्मा के अस्तित्व की तरफ पहली दफा दृष्टि गयी हो, उसको स्मरण करके। हृदय के अंतर्प्रवेश के लिए यह स्मरण महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि वह गुरु आपके भविष्य की घोषणा है। जो आप हो सकेंगे, वह उसकी घोषणा है। वह अभी है। जो कल आपको होगा, वह उसके लिए आज है। जो आपका भविष्य है, वह उसका वर्तमान है। आपको अपने भविष्य की भी रूपरेखा कुछ पता नहीं, लेकिन उस गुरु का स्मरण आपके भविष्य को दिशा देगा। आपकी जीवन-ऊर्जा को बहने का मार्ग बनाएगा। उसके स्मरण का कुल मतलब ही इतना है कि मेरी सारी जीवन-ऊर्जा अब एक दिशा में बहेगी। गुरु को स्मरण करके अपने हृदय-कमल से सब दोषों को निकाल कर, दुख व शोक से परे हुए उस विशुद्ध भक्ति-तत्त्व का सम्यक चिंतन करना ही ध्यान है।
जीवन में प्रार्थना ही सबसे मुख्य आधार है परन्तु इसके लिए यह जरूरी है कि हम जो प्रार्थना करें वह विश्वास पर आधारित हो। जब तक किसी कार्य में हमारा पूर्ण विश्वास नहीं होगा। तब तक उस कार्य में जीवन्तता नहीं आ सकती। यदि जीवन को सही ढ़ग से जीना है, तो जीवन में सौन्दर्य और प्रेम दोनों को ही महत्वपूर्ण स्थान देना होगा। लक्ष्मी मेधा, वरा शिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा एवं मति स्वरूप में अष्ट सरस्वती की चेतना को जीवन में धारण कर जीवन को धन, लक्ष्मी, ज्ञान, वाक् चार्तुयता, सौन्दर्य, संगीत, उमंग, अनंग शक्ति से गृहस्थ जीवन को सुख-समृद्धि युक्त कर सकेंगे। अष्ट सरस्वती ज्ञान धन लक्ष्मी वृद्धि दीक्षा और सरस्वती बीज मंत्र अंकन से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति की क्रियायें, प्रवचन, दीक्षा, पूज्य सद्गुरुदेव के सानिध्य में वसंतोमय ज्ञान धनलक्ष्मी साधना महोत्सव 11-12 फ़रवरी 2016 को कालीका माता ट्रस्ट धर्मशाला, रतलाम (म-प्र) में सम्पन्न होगा।
शिव-शक्ति-गुरु रूपी संगम में पूर्णतः क्रियाशील होने की चेतना अमृतमय त्रिवेणी संगम के तेजमय भूमि पर सम्पन्न होगी। मोक्षदायिनी गंगा, यमुना और ज्ञान प्रदायिनी सरस्वती के ज्योर्तिंमय पवित्र जल से स्वः रूद्राभिषेक सम्पन्न कर साधक पाप-दोष-संताप से मुक्त होकर महादेव गौरीमय शक्ति को पूर्णतः से आत्मसात कर सकेंगे। जिससे जीवन हर स्वरूप से शिव परिवारमय निर्मित हो सकेगा। मृत्यु तुल्य स्थितियां धनहीनता, क्लेश, रोग, बाधा, पीड़ा के शमन हेतु त्रयम्बकेश्वर महामृत्युंजय शिवाभिषेक दीक्षा और अघेरेश्वर गौरी अष्ट लक्ष्मी दीक्षायें शिव स्वरूप परम पूज्य सद्गुरूदेव कैलाश जी प्रदान करेंगे। जिससे धन, सुख-समृद्धि, सम्पन्नता, पूर्णता, ज्ञान सफलता युक्त श्रेष्ठ जीवन निर्मित होगा साथ ही शिव-शक्ति-गुरू रूपी त्रिवेणी संगम की चेतना से आपूरित हो सकेंगे। प्रयागराज इलाहाबाद में महाशिवायै गौरी धन लक्ष्मी शक्ति साधना महोत्सव 05,06,07 मार्च को काली मार्ग सड़क, शास्त्री पुल के पास, माघमेला क्षेत्र में सम्पन्न होगा। आप सभी का सहृदय से सपरिवार स्वागत है!
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,