श्री लिंग महापुराण में वर्णित है-
सुगन्धि वह सूक्ष्म परमेश्वर महादेव सभी जगह, समस्त जीवों, त्रिगुणात्मिक प्रकृति, इन्द्रियों तथा अन्य देवताओं और गणों में उसी प्रकार अधिष्ठित है, जैसे फूलों में सुगन्ध विद्यमान है।
आदि काल से भगवान शिव समस्त जगत्, विष्णु ब्रह्मा, मुनियों, जीवों, और इन्द्र आदि देवताओं का पुष्टिवर्धन करते हैं। उन्हीं त्रयम्बकेश्वर की पुष्टि स्वरूप प्रकृति है। जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृजन करते हैं। इसलिये अमृत रूपी महादेव का कर्म, तपस्या, साधना, पूजन, अभिषेक, योग तथा ध्यान द्वारा आराधना करनी चाहिये।
त्रयम्बकेश्वर स्वरूप में भगवान शिव मानव जीवन की मृत्यु पाश का शमन कर जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति प्रदान करते हैं, जिस सूर्य की किरणों से पककर अपने मूल बन्धन से उर्वारूक (ककड़ी) मुक्त होता है, उसी प्रकार शिवत्व को आत्मसात करने वाला व्यक्ति सभी सांसारिक समस्याओं से मुक्त हो जाता है।
वास्तविक रूप से इस मंत्र का जो मूल स्वरूप है, वह कालान्तर में विस्मृत होता गया। समाज ने यह धारणा बना ली कि जब कोई असाध्य रोग हो या समय पूर्व मृत्यु जब जीवन के अत्यन्त निकट हो तो महामृत्यंजय दीक्षा या साधना, मंत्र जप सम्पन्न कर लेना चाहिये।
यह विडंबना है कि इस संसार कि ऐसे तेजस्वी मंत्र के प्रभाव को कुछ तथ्यो में समेट दिया गया। जबकि इस श्लोक में शिव भक्त द्वारा यह प्रार्थना की गई है कि हे रूद्र महादेव! समस्त संसार की पुष्टि करने वाले मुझे इस जीवन बंधन से मुक्ति प्रदान कर मोक्ष दें।
तब भगवान शिव कहते हैं- मैं तुझे मोक्ष नहीं मृत्यु से मुक्ति प्रदान करता हूं, अर्थात् जीवन के सभी पाप, दोष, रोग-शोक, दुःख, दरिद्रता, मृत्यु तुल्य स्थितियों से मुक्ति प्रदान करता हूं।
इसीलिये सदाशिव को त्रयम्बकेश्वर, महामृत्यंजय, महाकाल, अमृतेश्वर कहा गया है, शिव ही काल से ऊपर महाकाल हैं, मृत्यु को जीतने वाले महामृत्युंजय हैं, जीवन के सभी मृत्यु रूपी स्थितियों से बार-बार बचाकर अमृत फल देने में समर्थ हैं।
शिवोपासना के द्वारा ही इस परम तत्व अथवा शिवत्व की प्राप्ति सम्भव है। अतः उनकी कृपा दृष्टि प्राप्त करने के लिये उनका ही अवलम्बन ग्रहण करना चाहिये। वे अपने भक्त की अल्प आराधना से भी शीघ्र ही प्रसन्न होकर उसका तत्क्षण परम कल्याण करते हैं।
इस संसार में कर्म फल देने के लिए ही सृष्टि होती है। व्यक्ति अपने जीवन में अनेक प्रकार के सुख और दुख भोगता हुआ अन्ततः पूर्ण सृष्टि में विलीन हो जाता है। इसलिये भगवान शिव को प्रलय का देव कहा गया है जो साधक जीवन के सब दुखों को हर लेते हैं, इसीलिये वे हर हैं और प्रार्थना में भी कहा जाता है- हर-हर महोदव अर्थात् जो सभी विपदाओं का हरण करने वाले हैं, वे ही तो महादेव हैं।
शिव का अर्थ ही है, शुभ है, मंगलदायक है, जीवन में पूर्णता देने में शिव अग्रणी हैं, उनका रूप विलक्षण होते हुये भी पूर्ण है, उनकी स्वर्णिम लहराती जटा उनकी सर्वव्यापकता की सूचक है, जटा में स्थित गंगा कलुषता नाश तथा चन्द्रमा अमृत का द्योतक है, गले में लिपटा सर्प, कालस्वरूप है, इस सर्प अर्थात् काल को वश में करने से ही मृत्युंजय कहलाये। ललाट पर त्रिपुण्ड तीन नाडि़यां इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना की द्योतक हैं, और तीसरा नेत्र आज्ञा-चक्र का द्योतक होने के साथ ही भविष्यदर्शन का प्रतीक है, उनके हाथों में स्थित त्रिशूल तीन प्रकार के कष्टों दैहिक, दैविक, भौतिक समस्याओं के विनाश का सूचक है, तो त्रिपल युक्त आयुध सात्विक, राजसिक, तामसिक तीन गुणों पर विजय प्राप्ति को प्रदर्शित करता है, कर स्थित डमरू उस ब्रह्म निनाद का सूचक है, जिससे समस्त वाघ्मय निकला है, कमण्डल, समस्त ब्रह्माण्ड के एकीकृत रूप का द्योतक है, तो व्याघ्रचर्म मन की चंचलता के दमन का सूचक है, शिव के वाहन नंदी धर्म के द्योतक हैं, जिस पर वे आरूढ़ रहने के कारण ही धर्मेश्वर कहलाते हैं, उनके शरीर पर लगी भस्म संसार की नश्वरता की द्योतक है।
त्रयम्बकेश्वर महामृत्युजंय शिवाभिषेक दीक्षा परम पूज्य सद्गुरूदेव महातपोभूमि त्रिवेणी संगम में सभी साधकों को प्रदान करेंगे, जिससे रक्षा, श्री, कीर्ति, कान्ति और आर्थिक सुदृढ़ता से युक्त जीवन में शिवत्व, गुरूत्व और शक्ति तत्व से आपूरित हो सकेंगे।
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