इसका प्रमुख कारण मन की चंचलता होती है और जब मन चंचल होता है तथा उसके सामने कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता है तो वह इधर-उधर भटकने लगता है और साधना के मार्ग पर दृढ़ नहीं हो पाता है। वास्तव में साधना के क्षेत्र में निर्बल मन सदैव असमर्थ है। संसार के आकर्षण उसे अपनी ओर खीचे बिना नहीं रहते है। प्रत्येक मनुष्य की आत्मा उसे अच्छे कार्यों की ओर लगाने का प्रयत्न किया करती है, लेकिन आलस्य तथा स्वार्थ के कारण मनुष्य कभी-कभी आत्मा की पुकार को भी अनसुनी कर देता है और कर्त्तव्य को भूल जाता है। मन से भयभीत व्यक्ति की सभी शक्तियां निकम्मी बन जाती है। मन को शक्तिशाली, संस्कारी, संवेदनशील बनाना चाहिये मन को जितना ऊँचा ले जायेंगें उतना ही जीवन ऊँचा बनेगा।
मन चाहे तो मनुष्य को भगवान भी बना सकता है और चाहे तो पशु भी बना सकता है मनुष्य को कही भी ले जाने की शक्ति मन के पास है। मन और बुद्धि शरीर के वाहक है। अतः मन को शक्तिशाली बनाना चाहिये। अपने मन को समस्त संकल्प विकल्प से ऊपर उठा कर एक मात्र गुरु चरणों में दृढ़ करे क्योंकि साधना की सफलता से सद्गुरुदेव का महत्त्व सर्वोपरि बताया गया है। अतः प्रकृति का चक्रो-उपत्यिकाओं, इड़ा पिंगला, सुषुम्ना आदि नाड़ियों का, उनके परिष्कार का ज्ञान गुरु कृपा से ही मिलता है। गुरु मनुष्य रूप में वस्तुतः सच्चिदानन्द धनरूपी परमात्मा का दर्शन कराने वाली झरोखे रूपी सत्ता है। उसी के माध्यम से हमें अनन्त का विस्तार दिखाई पड़ता है। गुरु के बिना अनुभवो में समग्रता नहीं आ पाती। साधना एक प्रकार से शरीर रूपी मकान में वायरिंग के समान है। उसका स्विच ऑन करने का काम गुरु ही करता है।
परन्तु अधिकांशतः होता यह है कि जब हम एक साधना में सिद्धि नहीं प्राप्त कर पाते है तो उसे छोड़ कर यह सोचते है कि दूसरे साधना में हमें शीघ्रता से सफलता मिल जायेगी, ऐसा सोच कर हम डाल डाल दौड़ते रहते है और यह संशयात्मक प्रकृति तथा श्रद्धा की कमी है तथा ऐसी स्थिति इसलिये आती है क्योंकि हम वास्तव में अपने गुरु को समझ ही नहीं पाते उसके स्वरूप को पहचान ही नहीं पाते और भ्रम जाल में फंसे रहते हैं।
जब हमारे समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न हो तो हमे समस्त साधनाओं को छोड़कर एक मात्र गुरु चरणों में समर्पित हो जाना चाहिये। क्योकि सभी साधनाओं रूपी वृक्ष के मूल तो गुरु ही है।
और फिर हमे किस प्रकार का संशय या भ्रम है? क्योंकि हमारे गुरु डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी तो साक्षात ब्रह्म स्वरूप ही हैं। यद्यपि उन्होने मानव रूप धारण किये थे परन्तु हम उन्हें साधारण मानव नहीं कह सकते है क्योंकि वह मानव देह इस संसार में मानवीय आदर्श स्थापित करने के लिये धारण किये थे। वो तो हमे इस दुःख भरे संसार में आनन्दमयी जीवन देने के लिये अवतरित हुये थे। पर वास्तविक स्वरूप तो उनका सत् चित तथा आनन्द है। सत का अर्थ है ऐसा त्रिकालबधित पदार्थ जो कभी विकृत न हो, ‘एकरूपेण ह्यवस्थितो षोडर्थः स परमार्थः’ हमारे गुरु तो प्रत्येक अवस्था में, प्रत्येक काल में विकार हीन एवं नित्य है, वह सत्यं ज्ञानमनन्तम है।
वह नित्य प्रबद्ध तथा पूर्ण होने से आनन्दवर्धक है। हम अपने गुरु श्री नारायण दत्त श्रीमाली जी को अन्य भौतिक वस्तुओं के शब्द चित्र अथवा रूप चित्र द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते है। उनकी किसी सांसारिक पदार्थ से उपमा भी नहीं दी जा सकती है। उपमा भी समान धर्मा वस्तु से ही हो सकती है तथा उपमा का प्रयोजन सत्य के एक पक्ष का संकेत करना मात्र है, किन्तु हमारे गुरु किसी पदार्थ का समान धर्मा नहीं है। वह तो अवाड़मनसगोचर है यदि ऐसे ब्रह्म स्वरूप गुरु के चेतना से चेतन्य हो कर भी हम साधना के क्षेत्र में संशय और भ्रम जाल से घिरे हो तो हमारे जैसा भाग्यहीन व्यक्ति कोई हो ही नहीं सकता।
अतः यह अवसर है कि आप अपने गुरु को पहचानिये एवं ऐसे स्वर्णिम क्षण को खोने न दीजिये। यही बात समझाते हुये श्री रामकृष्ण परमहंस शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। परन्तु उन्हें समझ नहीं आया तब गुरु ने एक शिष्य से कहा कि कल्पना करो, तुम मक्खी हो सामने एक कटोरा में अमृत रखा है, तुझे पता है कि यह अमृत है, बता उसमें कूदेगा या किनारे बैठकर स्पर्श करने का प्रयास करेगा? उत्तर मिला किनारे बैठकर चाटने का, बीच में कूंदने पर जीवन ही समाप्त हो जायेगा।
साथियों ने शिष्य की बात को सराहा परन्तु गुरु मुस्कराये और बोले अरे मूर्ख जिसके स्पर्श से तू अमरता की बात करता है उसके बीच में कूद कर भला मृत्यु कैसे?
अतः इससे स्पष्ट होता है कि जब साक्षात ब्रह्म ही गुरु स्वरूप हमारे सामने है तो फिर हम क्यों किसी छोटी-छोटी सिद्धियों के पीछे भ्रमित हुये भटकते रहें। हमें तो उस गुरु के चरणों में अपने को पूर्णरूपेण न्यौछावर कर देना चाहिये तथा जब शरीर और मन बेच दिया तो खरीदने वाले की आज्ञा पर चलने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं।
यह समर्पण एवं गुरु की इच्छा में अपनी हर इच्छा का विसर्जन जैसे-जैसे प्रगाढ़ होता चला जाता है, साधना उच्चतर आयामों पर पहुँचने लगती है। अतः यह समस्त प्रक्रिया धीरे-धीरे एवं पूर्णमनोयोग से ही संभव है। प्रत्येक गुरु सर्वप्रथम अपने शिष्यों के समस्त बुराइयों एवं पापों को समाप्त करके उसे योग्य पात्र बनाते है। ताकि उनकी दी हुई सिद्धियां कहीं व्यर्थ न हो जाये इसके लिये हमें एक मात्र दृढ़ निश्चय करके गुरु चरणों में लीन होने की आवश्यकता है न कि इधर उधर भटकने कि क्योंकि-
काहे को होत अधीर
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