इस बुनियादी बात को खूब खयाल में रख लेना।
भक्त कुछ कर नहीं सकता, करना उसके वश नहीं है। करना ही वश में हो तो भक्ति की कोई जरूरत नहीं है। भक्ति असहाय अवस्था है। बेसहारा! जब व्यक्ति अपने को पाता है कि अब मेरे किये कुछ भी न होगा, कुछ भी न होगा, मेरा सारा करना गिर गया, हार गया, मेरा कर्ता पुंछ गया, मिट गया, वैसी शून्य अवस्था में, जब करने को कुछ भी नहीं सूझता, आंखे अपने आप आंसुओं से भर जाती है, वही प्रार्थना है। वे आंसू ही फूल है चढ़ाने योग्य।
रूदन उठेगा, गाना भी उठेगा। मगर तुम्हें खींच-खींच कर लाना नहीं है, उठने देना है। तुम्हारे भीतर से उमगेगी प्रार्थना, जैसे वृक्षों में पत्ते निकलते है और फूल खिलते है। ऐसे तुम्हारे प्राणों में पत्ते खिलेंगे, फूल खिलेंगे, तुम हरे हो उठोगे, कोई गीत जन्मेगा, कोई एक कड़ी गूंजेगी। वही मंत्र है। जो दूसरे ने दिया, वह मंत्र नहीं है। जो तुमने पाया, जो तुम्हें मिला, जो परमात्मा से मिला, वह मंत्र है।
अब एक बात समझो कि तुम्हारे किये कुछ भी न होगा। जैसे सांस अपने से चलती है, तुम थोड़े ही चलाते हो, खून अपने से बहता है, तुम थोड़े ही बहाते हो, हृदय अपने से धड़कता है, तुम थोड़े ही धड़काते हो! सब अपने से हो रहा है, तुम अपने को बीच में मत लाओ। तुम हट जाओं, तुम रास्ता दे दो। तुम गिर पड़ो, तुम मिट जाओं। तुम करने की बात ही विस्मरण कर दो और तुम एक दिन अचानक पाओगे, होने का जन्म हुआ।
फिर प्रार्थना कैसी होगी, कहना कठिन है। प्रत्येक की अलग-अलग होगी। किस ढंग की सुगंध तुम्हारे भीतर उठेगी, कैसे पत्ते खिलेंगे, कैसे फूल-सब पौधे अलग है! किसी पर गुलाब खिलेगा, किसी पर चंपा, किसी पर चमेली। मगर एक बात समान होगी- खिलावट होगी। उस खिलावट का नाम प्रार्थना है।
प्रार्थना की कोई विधि नहीं है। प्रेम की कहीं विधि हुई है? जहां विधि आई, वहां कृत्रिमता आई। तुम प्रेम करना सीखते थोड़े ही हो, अभ्यास थोड़े ही करते हो! और अभ्यास किया हुआ प्रेम अभिनय होगा, वास्तविक नहीं होगा। मगर प्रेम के अभ्यास की जरूरत नहीं, तुम जन्मे हो प्रेम की क्षमता के साथ। तुम लाये हो अपने प्राणों में वह स्वर, वह पड़ा ही है, जरा अवसर चाहिये और अवसर क्या? इतना ही कि तुम्हारा बाहर का शोरगुल थोड़ा बंद हो।
तो करने के नाम पर नकारात्मक करना है। जैसे एक आदमी को, मैं फिर याद दिलाऊं, सोना है। वह क्या करें? सोने के लिये कोई अभ्यास करे? व्यायाम करे? उछलकूद करे? आसन लगाए? जो भी करेगा, उससे नींद में बाधा पड़ जायेगी। लेकिन फिर भी कुछ किया जा सकता है, वह करना नहीं है। कमरे का प्रकाश बुझा सकता है। उससे सहारा मिलेगा। दरवाजे-खिड़कियां बंद कर सकता है, विश्राम की अवस्था के लिये अंधेरा उपयोगी है। द्वार-दरवाजे बंद हो, अंधेरा हो, बाहर का शोरगुल न आता हो, यह सहयोगी है। मगर नींद तो अपने से घटेगी।
ऐसी ही प्रार्थना है। तुम बाहर के शोरगुल से थोड़ा अपने को निश्चिंत कर लो, चौबीस घंटे में एक घड़ी खोज लो, द्वार-दरवाजे बंद कर दो, बैठ जाओं, भूलो जगत को, प्रतीक्षा करो अज्ञात की। धैर्य रखो, आज नहीं होगा, कोई चिंता नहीं, आज नहीं खोद पाये कुआं, थोडी ही दूर तक गये, थोड़ा मिट्टी-पत्थर निकाला, मगर फिर भी काम शुरू हो गया, कुआं खुदना शुरू हो गया। कल थोड़ा मिट्टी-पत्थर निकाला, मगर फिर भी काम शुरू हो गया, कुआं खुदना शुरू हो गया। कल थोड़ा और खुदेगा, परसो थोड़ा और खुदेगा, एक दिन तुम पाओगे- जलधारा फूट गई। जल्दबाजी न करो।
भाव की धारा बहेगी। यद्यपि उस धारा को तुम विधि मत कहना, क्योंकि वह प्रत्येक की भिन्न होगी, अलग-अलग होगी। सबके आंसुओं का स्वाद अलग है। सबकी मुस्कराहट का ढंग अलग है। सबके प्रेम की शैली भिन्न है। यही तो व्यक्ति की गरिमा है। इसलिये सबकी प्रार्थनाये भी अलग होगी। दुनिया में प्रार्थना मर गई है, क्योंकि प्रार्थना सिखाई गई है। हिंदुओं ने एक तरह की प्रार्थना सीख ली है, बस वही दोहराए जा रहे है। व्यक्तियों को पोंछ कर हटा दिया गया है, विधियां थमा दी गई है। विधियां झूठी हो जाती है और जब तुम बाहर से सीखी कोई प्रार्थना दोहराओगे, तुम्हारे भीतर की प्रार्थना अजन्मी रह जायेगी।
प्रार्थना के नाम पर तुम कुछ मांगना मत। तुम किसी अधूरी वासना को पूरा करने की आकांक्षा मत करना। वहीं लोग करते है। प्रार्थना नहीं करते है। भिखमंगापन उनकी प्रार्थना में प्रकट होता है। यह मिल जाये, वह मिल जाये, ऐसा हो जाये, वैसा हो जाये। अगर तुमने कुछ भी मांगा, तो तुमने प्रार्थना गंदी की, अपवित्र की। तुमने अपनी प्रार्थना में वासना जोड़ी कि तुमने प्रार्थना के पंख काट दिये और प्रार्थना के गले में पत्थर बांध दिये। वह पक्षी फिर उडे़गा नहीं, यही तड़फड़ाएगा, यही गिरेगा, यहीं मरेगा।
इतना ही ख्याल रखना, प्रार्थना में मांग न हो। कुछ भी मत मांगना, परमात्मा को भी मत मांगना, क्योंकि मांग तो बस मांग है, मांगा कि चूके।
अब बड़े दुःख की बात है कि प्रार्थना शब्द का अर्थ ही मांगना है। मांगने वाले को हम प्रार्थी कहते है। सदियों से प्रार्थना के नाम पर मांगा गया है। इसलिये प्रार्थना का शब्द ही गलत हो गया, शब्द ही विकृत हो गया, उसका अर्थ ही मांगना हो गया और इसलिये प्रार्थना कभी खिल नहीं पाती।
तुम सिर्फ किसी उन्मेष में आंदोलित होना, किसी उमंग में डोलना, मांगना कुछ भी मत। बिना मांगे मिलता है, मांगने से चूक जाता है। तुम न मांगोगे तो सब मिलेगा। तुम मांगोगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा और जब कुछ भी न मिलेगा तो विषाद घिरेगा और जब बिन मांगे मिलता है, प्रसाद बरसता है, तो आह्लाद का जन्म होता है।
तुम निष्क्रिय में गति करो। बैठ रहो घड़ी भर, न सोचो कि क्या करना है, बैठे रहो घड़ी भर। पक्षी गीत गाते हो, सुनो, सूरज की किरणें तुम्हारे ऊपर नाचती हों, अनुभव करो, हवा का झोंका आता हो, तुम्हारे वस्त्रों को कंपा जाता हो, नचा जाता हो, अनुभव करो, बस बैठे रहो। तुम चकित होओगे यह जान कर कि अगर तुम बैठ सको घड़ी भर, बिना किसी व्यस्तता के, प्रार्थना एक दिन तुम्हारे भीतर ऐसे ही जन्म जायेगी, कि चमत्कार।
तुमने कहानी सुनी है न बच्चो की कि एक आदमी ने बड़ी मेहनत से, तंत्र-यंत्र-टोटके से एक प्रेत को को जगा लिया। प्रेत तो जग गया और उसने कहा, आपकी सेवा में सदा हाजिर रहूंगा, लेकिन एक बात ख्याल रखना- मुझे काम चाहिये, चौबीस घंटा काम चाहिए, अगर जरा भी मुझे काम नहीं मिला, तो मैं तुम्हारी गर्दन मरोड़ दूंगा। मैं बिना काम के नहीं रह सकता। बिना काम मुझे एक क्षण कठिन हो जाता है। फिर मैं कुछ का कुछ कर दूंगा।
वह आदमी तो बड़ा खुश हुआ, उसने कहा, इसीलिये तो तुझे जगाया है कि हजारों काम पड़े है मेरे, जो हो नहीं पाते, जो मैं नहीं कर पाता, वही तो तुमसे करवाने है, तू फिकर मत कर, यही तो मैं चाहता हूँ, ऐसा ही सेवक चाहिये था।
मगर जल्दी ही गड़बड़ हो गई। क्योंकि वह काम दे और वह भूत उसे क्षण न लगे और पूरा कर दे। महल बनाओ! वह महल बना दे। वह खड़ा है क्षण भर बाद कि महल बन गया। जल्दी ही काम चुक गये। काम ही कितने है? महल भी बन गये, किले भी खड़े हो गए, स्वर्ण अशर्फियों के ढेर भी लग गये, सुंदर स्त्रियां भी आ गई, भोजन की थाल भी सज गये, अभी घड़ी भी नहीं बीती और उसने सब निपटारा कर दिया। वह आदमी बड़ा घबड़ाया। उसे एकदम सूझे ही न कि अब काम इसे क्या दूं? अब यही मुश्किल हो गई कि काम इसे क्या दूं? क्योंकि काम न दूं तो यह गर्दन दबा दे और वह भूत आ-आ कर खड़ा हो जाये। वह आदमी एक फकीर के पास गया। उसने कहा, कुछ रास्ता बताओं, मैं बड़ी झंझट में पड़ गया हूँ। उस फकीर ने पास में पड़ी एक नसेनी उसे दे दी और कहा, इसे जमीन में गाड़ दे और उस भूत से कह-पहले ऊपर जा, फिर नीचे आ। फिर उपर जा, फिर नीचे आ। जब तेरे पास कोई खास काम हो करवाने का तो करवा लेना, अन्यथा नसेनी बता देना।
वह नसेनी गाड़ दी गई आंगन में, भूत को काम मिल गया-वह बड़ा प्रसन्न, ऊपर जाये, नीचे आए, ऊपर जाये, नीचे आए, ऊपर जाये, नीचे आए, अब उसका कोई अंत नहीं है, चलता रहे। जब जरूरत हो उस आदमी को किसी काम की, वह काम करवा ले, अन्यथा नसेनी बता दे।
मन की कहानी है यह। मन को काम चाहिये। वह जो तुम माला फेरते हो, वह नसेनी है। फिर फेरे जा रहे गुरिए पर गुरिए, इधर से उधर तक, फिर वे एक सौ आठ हो गए, फिर फेरो, फिर फेरो। कोई मंत्र का जाप कर रहा है, वह कहता है, एक करोड़ दफे जाप करना है। कोई बैठा राम-राम लिख रहा है। वह नसेनी है। चढ़ते रहो, उतरते रहो। काम मिल जाता है, मगर काम से कहीं राम मिला है? राम तो मिलता है निष्काम दशा में, जब चित्त में कोई व्यस्तता नहीं होती। प्रार्थना अव्यस्तता का नाम है। वहीं ध्यान का अर्थ है, वही प्रार्थना का अर्थ है।
बैठो! और तुम पाओगे-आंसु भरे, आंखे डबडबाई, हृदय नाचा, रोमांच हुआ, कोई दूर का संगीत सुनाई पड़ा, कोई अज्ञात की गंध तुम्हारे नासापुटों में उतरी, यह होता है। यह यहां अनेक को हो रहा है कोई कारण नहीं कि तुम्हें क्यों ने हो? तुम कभी बैठे ही नहीं अव्यस्त होकर, तुमने कभी खाली होने का अवसर नहीं दिया, तुम कभी रिक्त नहीं हुये, इसीलिये रिक्त रह गए हो।
प्रार्थना यानी रिक्त हो जाओ और तुम परमात्मा से भर उठोगे। परमात्मा प्रतिपल उत्सुक है कि तुम्हारे भीतर राह बना ले। तुम राह देते नहीं। तुम नसेनी चढ़ते-उतरते। तुम कुछ न कुछ उपद्रव करते रहते। उस उपद्रव को तुम बड़े अच्छे-अच्छे नाम देते हो, कहते हो-आलंबन। प्रार्थना निरालंब दशा है प्रार्थना निराधार अवस्था है। प्रार्थना निराकार अवस्था है। घटती है, घटाई नहीं जाती।
जब तक पूर्ण का बोध है, तब तक अपूर्ण से छुटकारा नहीं। यह तो द्वंद्व का ही खेल है-पूर्ण-अपूर्ण, संत-असंत, साधु-असाधु, पाप-पुण्य, भला-बुरा, यह सब द्वंद्व का ही खेल है। पहुँच गया जो वह न तो पूर्ण होता है, न अपूर्ण होता, वह न तो संत होता है, न असंत होता है, वह न तो शुभ होता है, न अशुभ होता है। पहुँच गया जो, जाना जिसने, जागा जो, वह अचानक पाता है कि सारे द्वंद्व विसर्जित हो गये। अब द्वंद्व कहाँ?
इस निर्द्वंद्व अवस्था को ही मैं भगवता कहता हूँ। भगवता उन थोड़े से शब्दों में से एक है, जिसका विपरीत नहीं है। संत भी भगवता में है, असंत भी भगवता में है। लेकिन असंत ने असंत से अपना तादात्म्य कर रखा है और संत ने संत से अपना तादात्म्य कर रखा है। दोनों ने अपनी भ्रांतियां बना लीं।
ऐसी ही दशा साधु-असाधु की है। साधु सोचता है, मैंने जो अच्छे कृत्य किये है, वह मैं हूँ। असाधु सोचता है, मैंने जो बुरे कृत्य किये है वह मैं हूँ, मगर दोनों कृत्यों से अपने को जोड़ रहे है और तुम कृत्य नहीं हो, तुम कर्ता नहीं हो। तुम साक्षी मात्र हो। साक्षी के सामने अच्छा कृत्य, बुरा कृत्य, दोनों उसके सामने है, वह उन दोनों के पार है। इसलिये साक्षी न तो पूर्ण होता है, न अपूर्ण होता है, न शुभ होता है, न अशुभ होता है।
साक्षी किसी अनुभव के साथ अपने को जोड़ता नहीं। अगर जोड़ ले, तो कर्ता हो जाता है, पतन हो गया। न तो साक्षी कह सकता है मैं दुःखी हूँ, न कह सकता है मैं ज्ञानी हूँ। दोनों अनुभव है। साक्षी का अर्थ होता है, अब कोई अनुभव की जकड़ न रही, सब अनुभव दूर खड़े रह गये, सारे अनुभवों के बंधन टूट गये।
फिर साक्षी को क्या कहोगे? पूर्ण कहोगे? संत कहोगे? असंत कहोगे?
तुम बेचैन हो गये होओगे, क्योंकि तुम्हें साक्षी की कोई अनुभूति नहीं है। लोग अपने ही अनुभव से अर्थ करते है। स्वाभाविक है।
तुम तो काशी जाते हो बहुत-गंगा काशी में रूकती है? तुम जिसके लिये काशी जाते हो, वह काशी में नहीं रूकती। वह भागी जा रही है, उसे सागर तक पहुँचना है। काशी से गुजर जाती है, काशी में रूक नहीं जाती, नहीं तो गंदा डबरा हो जाती। तुम्हें भी काशी से गुजर जाना है और काबा से भी, और कैलाश से भी। सागर तक पहुँचना है। परमात्मा को पाना है।
इतनी याद बनी ही रहे कि ये साधन है, साध्य नहीं। जिसने साधन को साध्य समझा, उसे मैं पागल कहता हूँ।
मुझे सुनते वक्त बहुत धीरज और सहानुभूति की जरूरत है। अन्यथा नासमझी होगी। लाभ नहीं होगा, हानि हो जायेगी। तुम कुछ लेने आये हो, बिना लिये चले जाओंगे, खाली हाथ चले जाओगे और तुम्हीं जिम्मेवार होओगे। मैं तुम्हारी झोली पूरी भर देने को तैयार हूँ। लेकिन कम से कम तुम्हें मेरे साथ थोड़ा धैर्य रखना होगा। तुम्हें मेरे रंग-ढंग समझने होंगे। तुम्हें मेरी भाषा से थोड़ी पहचान बनानी होगी।
एक साहित्यिक डॉक्टर अपने रोगी से बोला, रात्रि को निद्रादेवी आई थी क्या?
अनपढ़ रोगी बोला, के मालूम साब, मैं तो बीने जानूं भी कोनीं। अर दूसरा, मैं तो सूत्यो थो। क्या मालूम साहब, मै तो जानता भी नहीं और दूसरी बात, मैं सो रहा था। तो निद्रादेवी आई कि नहीं, क्या पता!
सदमे खाओ! जागो! चोट तुम्हें पहुँचाता हूँ। तुम्हें चोट पहुँचा रहा हूँ, क्योंकि तुम्हें जगाना है। तुम्हें चोट पहुँचाने के लिए कभी-कभी मुझे ऐसे सख्त शब्दों का भी उपयोग करना पड़ता है जो मैं स्वयं चाहूंगा कि न करता तो अच्छा था। लेकिन कोई और उपाय दिखाई नहीं पड़ता।
सत्य सदा सूली पर। झूठ सदा सिंहासन पर। क्योंकि झूठ तुम्हारी फिकर करता है, तुम्हें जो रूचे, वही कहता है, तुम्हें जो भाये, वहीं कहता है, तुम्हें चोट नहीं पहुँचाता। तुम्हें फुसलाता है, तुम्हें मलहम-पट्टी करता है, तुम्हें सांत्वना देता है। झूठ तुम्हारी सेवा में रत होता है, इसलिये तुम झूठ से बड़े राजी और प्रसन्न होते हो। सत्य तुम्हारी सेवा में रत नहीं है, सत्य तो सत्य की सेवा में रत है। तुम्हें चोटें पहुँचती है।
तुम अगर मेरे आईने में झांकोगे तो सोच कर, समझ कर झांकना, आईने पर नाराज मत हो जाना, क्योंकि आईना तुम्हारी शक्ल बतलायेगा। अब अगर आईने में बंदर झांकेगा तो बंदर ही दिखाई पड़ेगा, कोई देवता दिखाई नहीं पड़ सकता, यह ख्याल रखना। और बंदर को जब आईने में बंदर दिखाई पड़ेगा तो बंदर नाराज हो जाये, यह भी स्वाभाविक है, आईने को तोड़ने-फोड़ने को तैयार हो जाये, यह भी स्वाभाविक है।
तुम्हें चोट लगती है मुझसे, चोट तुम्हें लगनी ही चाहिए, मगर चोट इसलिये ही है कि तुम जागो। चोट तुम्हें किसी तरह से अपमान करने के लिये नहीं है, चोट तुम्हारा सम्मान है। इसलिये फिर कहूँ, मेरी बात को बहुत धीरज से, बहुत शांति से समझने की कोशिश करना, जल्दी निष्कर्ष मत लेना।
मैं तुम्हें ऊपर की यात्रा पर ले चला हूँ। तुम जितना समझने लगोगे, उतने ऊपर की बात कहूंगा। एक-एक सीढ़ी तुम चढ़ते हो, जो सीढ़ी तुम चढ़ जाते हो, वह मैं इनकार कर देता हूँ, ताकि आगे की सीढ़ी पर बढ़ो। हर सीढी तुमसे छीन लेनी है, ताकि तुम बढ़ते ही जाओ और एक दिन उस अनंत में प्रवेश कर जाओं जहां कोई सीढ़ियां नहीं है, जहां केवल छलांग होती है।
अहंकार हटाने से जायेगा भी नहीं। हटायेगा कौन? जो हटाता है वहीं तो अहंकार है। अगर हटा दिया किसी तरह, तो विनम्रता का अहंकार पैदा हो जायेगा और कुछ भी न होगा। एक अकड़ हो जायेगी कि मुझ जैसा विनम्र कोई भी नहीं। देखो मैं कितना सीधा-सादा! कितना झुका हुआ! समर्पित! यह नया अहंकार होगा। तुम जो भी करोगे, उससे अहंकार बढ़ेगा। तुम्हारे करने से अहंकार घट ही नहीं सकता। अहंकार नई शक्ले ले सकता है, नये रूप ले सकता है, नये वेश-परिधान ले सकता है, लेकिन अहंकार मिटेगा नहीं।
अहंकार को समझो, मिटाने की जल्दी करो ही मत। जल्दी क्या है? अहंकार को समझो कि क्या है। जो आदमी मिटाने को कोशिश करता है, वह समझने की कोशिश से बच रहा है और बिना समझे अहंकार जाता नहीं। अहंकार मिटाया नहीं जाता, जब समझ का दीया जल जाता है तो अहंकार नहीं पाया जाता। जैसे दीया जला कि अंधेरा गया। अहंकार अंधेरा है।
हटाने का तो मतलब यह हुआ कि तुम मानते हो कि अहंकार कुछ है। अहंकार कुछ भी नहीं, भ्रांति है। इसको हटा नहीं सकते। भांति को कोई कैसे हटायेगा? समझो राह पर तुमने एक रस्सी पड़ी देखी और तुम्हें अंधेरे में दिखाई पड़ा कि सांप है! और किसी ने तुमसे कहा कि व्यर्थ भागे जा रहे हो, कहाँ भागे जा रहे हो, वहां कोई सांप-वांप नहीं है, मुझे भलीभांति पता है, मैने दिन के उजाले में देखा है, रस्सी पड़ी है, सच तो यह है कि मैंने ही फेंकी है, तुम मेरी बात का भरोसा करो, वहाँ कोई सांप-वांप नहीं है। तुम करते हो, अच्छा मान लिया कि सांप नहीं है, मगर अब सांप को हटाया कैसे जाये? तो मैं बंदूक लेने जा रहा हूँ, कि तलवार उठाने जा रहा हूँ। तुम समझे ही नहीं। अहंकार हटाया कैसे जाये, इसका मतलब हुआ कि अहंकार है, कोई वास्तविक पदार्थ है अहंकार।
अहंकार कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है, भ्रांति है। तुमने अपने को ठीक से नहीं देखा, इसलिये जैसा तुम अपने को समझ रहे हो, वह भ्रांति है। जब ठीक से देखोगे, अचानक पाओगे-अहंकार नहीं है, आत्मा है, अहंकार नहीं है, परमात्मा है। इस जिंदगी को गौर से समझने की कोशिश करो। अहंकार ने किन बातों का सहारा लिया है, उनकी जरा परख करो।
तुमने जिंदगी का सहारा लिया अहंकार के लिये और जिंदगी क्या है? रेत पर खींची गई लकीरें या रेत पर बनाये गए महल। या कागज की नाव। इस जिंदगी पर इतने इतरा रहे हो? जो अभी है और अभी नहीं हो जायेगी। इस जिंदगी को सहारा लेकर अहंकार को खड़ा कर रहे हो?
यह तो टूट जाने वाली है। जिंदगी को ठीक से पहचानो, यह क्षणभंगुर है, पानी का बबूला है फिर अकड़ कहाँ? अकड़ तभी तक है जब तक तुम सोचते हो-जिंदगी कुछ टिकने वाली चीज है।
जिसको तुम घर समझ रहे हो, वही कब्र बन जायेगी। वे ही चार तिनके तुम्हारा कफन बन जायेंगे जिनको तुमने आशियाना समझा है। जरा जिंदगी को गौर से देखो। यही सब तो मर रहा है। यहाँ सब तो धू-धू कर जल रहा है। यहाँ हर चीज तो मृत्यु के मुँह में चली जा रही है। हम सब तो मृत्यु के मुँह में सरक रहे है। कतार लगी है, लोग मृत्यु में डूबते जा रहे है, विदा होते जा रहे है। इस जिंदगी में है क्या जिसके सहारे तुम अस्मिता को संगृहीत करते हो? कहते हो मैं हूँ?
अहंकार की कोई वास्तविकता नहीं है। फिर अहंकार की क्या व्याख्या करें? अहंकार की व्याख्या इस भांति समझो। तुम बाहर देख रहे हो, तो अहंकार है, तुम भीतर देखोगे, अहंकार विदा हो जायेगा। ध्यान में लगो, अहंकार से लड़ने की फिकर ही छोड़ो। अहंकार से लड़ना वैसे ही है जैसे कोई अंधेरे से लडे और अंधेरे को धक्के दे और निकालना चाहे। नहीं, मैं कहता हूँ, तुम दीया जलाओ, ध्यान में लगो, प्रार्थना में लगो, दीया जलाओं, भीतर मुडो, आँख बंद करो और भीतर देखना शुरू करो-क्या है? तुम एक बात पाओगे, अहंकार कभी न पाओगे और जहाँ अहंकार नहीं है, वही परमात्मा है। परमात्मा तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है, अहंकार तुम्हारी भ्रांति है। जैसे सांप में रस्सी देख ली किसी ने, या रस्सी में सांप देख लिया किसी ने, ऐसी अहंकारी भ्रांति है। कुछ का कुछ देख लिया है। जो है उसको वैसा ही देख लेना परमात्मा-अनुभव है।
और निश्चित ही संन्यास लेने से अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन संन्यास अहंकार से मुक्त होने से सबसे बड़ा साधक है। ये दोनो बाते खयाल में रखो। इन दोनों में से चुनो। ये दोनों संभावनाएं खुलती है। अगर तुम संन्यास की तरफ झुकने लगे तो अहंकार से मुक्त होने लगोगे। अगर तुम अहंकार की तरफ झुकने लगे तो संन्यास लेना कठिन होता जायेगा। इसलिये मैं कहता हूँ, अहंकार बाधा है। इसका यह मतलब नहीं है कि जब अहंकार तुम्हारा मिटेगा तब तुम संन्यास ले सकोगे। यह चुनाव है। तुम एक दोराहे पर खड़े हो, जहाँ एक राह अहंकार की तरफ जाती है, एक संन्यास की तरफ जाती है। एक पर ही चला जा सकता है। इसलिये मैं कहता हूँ, अहंकार बाधा है। अगर अहंकार को चुना और अहंकार को रास्ते पर चले, तो संन्यासी ने हो सकोगे। अगर संन्यास के रास्ते पर चले, तो अहंकारी न हो सकोगे।
लेकिन तुम्हारा धन बड़ा होशियार है। तुम संन्यास लेने से डरते भी होओगे, संन्यास लेने से बचना भी चाहते होओगे। तुम्हें मेरी बात में सहारा मिल गया। तुमने सुना कि अरे, अहंकार बाधा है, तब तो बात मिल गई, कुंती मिल गई। अब संन्यास कैसे ले? जब तक अहंकार न मिटे तब तक संन्यास कैसे लेंगे? और अहंकार पहले मिटना चाहिये, फिर सोचेंगे संन्यास की बात। न मिटेगा अहंकार, न लेंगे संन्यास। झंझट मिटा। न रहा बांस, न बजेगी बांसुरी।
तुम मेरी बात से अपने मतलब मत निकालो। जब मैने कहा कि अहंकार बाधा है, तो मैने सिर्फ इतना ही कहा कि अगर तुम अहंकार चुनते हो, तो संन्यास न चुन सकोगे। अगर संन्यास चुनते हो, तो फिर अहंकार न चुन सकोगे। ये दोनो विपरीत है। इनमें से एक को ही संभाल सकते हो, दोनो को साथ नहीं संभाल सकते। अब तुम्हारे हाथ में है, क्या चुनते हो। दोनो रास्ते खुले है। अगर सच में ही अहंकार से मुक्त होना चाहते हो, सन्यास चुनो। और अभी अहंकार है, यह भी सच है। लेकिन संन्यास को चुनते ही रूपांतरण की क्रिया शुरू हो जायेगी। बीमार हो, माना, लेकिन औषधि न लोगे तो बीमारी मिटेगी कैसे?
और यह भी ध्यान रखना कि बीमारी औषधि के काम करने में बाधा डालती है। इसीलिये तो समय लगता है। कोई एकाध घूंट औषधि पी लेने से तो बीमारी नहीं मिट जाती, महीनों दवा लेनी पड़ती है तब धीरे-धीरे बीमारी जाती है। दवा में और बीमारी में संघर्ष होगा। मगर तुम कहोगे कि जब तक मैं बीमार हूँ, दवा कैसे पीऊ? क्योंकि बीमारी दवा के काम में बाधा डालती है। मैं तो दवा तब पीऊंगा जब बीमारी मिट जायेगी। लेकिन तब दवा किसलिये पीओगे? फिर पागल हो गये हो? फिर और बीमार होना है?
अहंकार मिट गया, फिर संन्यास का क्या करोगे? संन्यास औषधि है, अहंकार व्याधि है और अहंकार अड़चने डालेगा संन्सास की प्रक्रिया में। लेकिन तुम हो सकोगे। हिम्मत करो! अहंकार बाधा इतनी नहीं डाल रहा है जितनी तुम सोच रहे हो। क्योंकि जिन्होंने संन्यास लिया है, उनके लिये भी यही सवाल था। तुम्हारे लिये भी वही सवाल है। अहंकार को किनारे हटाओं और छलांग लो।
अहंकार से भी ज्यादा बड़ी बाधा भय है। तुम डरते होओगे-लोग क्या कहेंगे? लोग हंसेगे। कहेंगे-पागल हो गये? सम्मोहित हो गये? भले-चंगे गये थे, यह क्या हो गया? संत्संग करने गये थे, यह क्या हो गया? तुम लोगों से डरे हुये हो। तुम जरा शांत बैठ कर सोचना, कल्पना करना कि तुमने संन्यास ले लिया। गैरिक वस्त्र पहन कर, माला डाल कर, पागल बन कर अपने गांव पहुँचे हो-जरा कल्पना करना-स्टेशन पर उतरे हो, स्टेशन मास्टर पूछता है कि अरे, क्या हो गया? कुली हंसता है कि भई ये कैसे कपड़े पहन लिये? ये तो कुलियों के कपड़े है! ये तो हम पहनते है। यह आपको क्या हो गया? तांगावाला नीचे से ऊपर तक देखेगा। आप ही है क्या? पूछेगा! अच्छे-भले गये थे दस दिन पहले, अब क्या हुआ? और मन कहने लगेगा- क्या करे, स्टेशन जाकर कपड़े बदल लें? क्योंकि अभी तो बस्ती की शुरूआत भी नहीं हुई है! अभी तो सारा गाँव चौंकेगा! अभी तो भीड़ इकट्टी हो जायेगी बाजार पहुँचेते ही लोग हजार तरह की सलाह देंगे। लोग सलाह तो मुफ्त देते है। जिन्हें कुछ स्वाद नहीं है संन्यास जैसी किसी बात का कोई अनुभव नहीं है वे भी कहेंगे कि यह क्या किया? जिनको तुम सलाह देते थे, वे तुम्हें सलाह देने आयेंगे। जरा आज बैठ कर दो घड़ी इसकी कल्पना करना।
इसकी सारी कल्पना करना बैठ कर आज। उससे तुम्हें पता चल जायेगा कि असली अड़चन क्या हो रही है। उस कल्पना से ही तुम्हें सूत्र मिल जायेगा। सिर्फ भय है! अहंकार इत्यादि की आड़ में मत छिपो, सिर्फ भय है। सिर्फ एक साहस चाहिये, पागल होने का साहस, फिर तुम संन्यासी हो सकते हो।
हालांकि ज्यादा देर नहीं चलेगा यह उपद्रव । दो-चार दिन चर्चा रहेगी, खबर रहेगी, लोग विचार करेंगे, बात करेंगे, पूछेंगे, फिर सब रास्ते पर आ जाता है। फिर अपने आप सब दुनिया चलने लगती है जैसी चलती थी। कोई जिंदगी भर यह सवाल नहीं रहने वाला है। एक सप्ताह ज्यादा से ज्यादा ! क्योंकि गाँव में दूसरी घटनायें भी तो घटती है। फिर और घटनाये घटती है, लोग उनमें उलझ जाते है। किसी की पत्नी भाग गई, किसी के घर डाका पड़ गया, कोई चुनाव हार गया। फिर अब तुम्हारी ही बात थोड़े ही लिये बैठे रहेंगे! फिर दो-चार दिन बाद तुम्हारी कोई फिकर नहीं करेगा, कि ठीक है, बात समाप्त हो गई। स्वीकार कर लिये जाओगे।
तुम खयाल रखना, तुम मर भी जाओगे तो भी लोग कितने दिन तुम्हारी बात करेंगे? तुम मर भी जाओगे तो कौन सा काम कितनी देर अटकेगा? रो-धो कर लोग निपट लेते है, फिर सब शुरू हो जाता है। लोगो को जीना है आखिर। अब तुम मर गये, तुम्हारा तो छूटकारा हुआ, उनको तो जीना है आखिर। दुकान भी खुलेगी-दो-चार दिन बंद रहेगी, फिर खुलेगी, कोई और चलायेगा। पत्नी भी मुस्कुरायेगी। कितने दिन रोयेगी? आखिर उसे जीना है। रो-रो कर कोई कितने दिन जी सकता है? बच्चे भी नाचेंगे, फिर खेलेंगे, फिर कूदेंगे। दुनिया चलती रहती है। तुम मर भी जाओं तो भी चलती रहती है।
संन्यास से कुछ अटक जाने वाला नहीं है। मगर तुम्हारे जीवन में क्रांति आ जायेगी। संन्यास का अर्थ यही होता है, मरने के पहले मर जाना और दुनिया में इस तरह जीने लगना जैसे तुम हो ही नहीं। अपूर्व आनंद है उस घड़ी जब तुम दुनिया में ऐसे जाने लगते हो जैसे हो ही नहीं। दुनिया में होते हो और दुनिया तुम्हारे भीतर नहीं होती।
शब्द भोजन से पेट तो नहीं भरता और शब्द पानी से प्यास भी नहीं बुझती और शब्द आग से तुम आंच न ले सकोगे। शब्द तो शब्द है, संकेत है, प्रतीक है। यथार्थ उनमें नहीं है। उनसे इशारा लो और यथार्थ की खोज में लग जाओ। तो एक दिन जब तुम सत्य को जानोगे, तो ज्ञान होगा। ज्ञान तुम्हारे और सत्य के बीच घटने वाला है, तुम्हारे और शास्त्र के बीच नहीं। तुम्हारे और शास्त्र के बीच जो घटता है वह स्मृति है, ज्ञान नहीं।
और वहीं भेद साफ समझ लेना। स्मृति ज्ञान नहीं है। शास्त्र कंठस्थ कर लिया तो तुम तोते हो गये। तुम ठीक-ठीक लगे गीता, तो भी तुम कृष्ण तो नहीं हो जाओगे गीता दोहराने से। तुम यह तो नहीं कहोगे कि अब मैं ठीक वही तो बोल रहा हूँ जो कृष्ण ने बोला था। अब फर्क क्या रहा? मात्रा का भी भेद नहीं है, ठीक-ठाक वही बोल रहा हूँ जो कृष्ण ने बोला था, जैसा बोला था वैसा ही बोल रहा हूँ। लेकिन क्या तुम इससे कृष्ण हो गये? ये शब्द स्मृति है। कृष्ण के भीतर से आ रहे थे, तुम्हारे भीतर से नहीं आ रहे है। तुम्हारे हृदय में इनकी कोई जड़े नहीं हैं।
पंख तुम्हारे भीतर ऊगने चाहिये। किसी और के पंखों से तुम कैसे उड़ोगे? किसी और की आँखो से तुम कैसे देखोगे? मेरी आँख तुम्हें उपलब्ध है, लेकिन फिर भी तुम मेरी आँख से तो न देख सकोगे। देखोगे तो अपनी ही आँख से। ज्यादा से ज्यादा मेरी आँख पर भरोसा कर सकते हो, लेकिन भरोसा थोड़े ही ज्ञान है। विश्वास कर सकते हो, लेकिन विश्वास थोडे ही अनुभव है। प्रत्यक्ष कैसे होगी? प्रतीति कैसे होगी? स्वानुभव कैसे होगा? और स्वानुभव स्वतंत्रता है।
मैंने सुना है, दिल्ली में एक आदमी बस से टकरा कर गिर पड़ा। लोग उसे चारों ओर से घेर कर खडे़ थे। इतने में उसे होश आया, उसने पूछा, भाई में कहाँ हूँ? भीड़ में से तुरंत एक आदमी ने एक किताब उसकी ओर बढ़ाई और कहा, यह लीजिये दिल्ली-गाइड, कीमत सिर्फ 30 रूपये।
किताब बेचने वाले लोग है। उनकी उत्सुकता इतनी ही है कि तुम उनकी किताब मान लो, कि तुम उनकी किताब के पीछे खड़े हो जाओ, कि तुम भी उनके शब्दों में भरोसा कर लो।
शब्दों के व्यवसाय से सावधान होना। शब्द सत्य की खोज में बड़ी बाधा बन जाते है। बनने तो चाहिये साधक, बन नहीं पाते साधक। तुम उन्हीं में बैठ जाते हो। तुम सोच लेते हो कि प्रेम शब्द सीख लिया तो प्रेम आ गया और प्रार्थना शब्द सीख लिया तो प्रार्थना आ गई और परमात्मा शब्द को दोहराने लगे तोते की तरह तो परमात्मा मिल गया। यह सस्ती बात हो गई, बड़ी सस्ती बात हो गई। जीवन इतने सस्ते हाथ नहीं आता। जीवन के लिये कीमत चुकानी पड़ती है।
दर्द में ही दवा है। दर्द के अतिरिक्त और कोई दवा नहीं है। इसीलिये तो मैनें तुमसे कहा कि विरह में मिलन छिपा है। आँसुओं में मुस्कराहट छिपी है। अगर तुम हृदयपूर्वक रो सको, तो मिलन हो जाये। तुम दर्द ही नहीं उठने देते, वही तकलीफ है, वहीं अड़चन है। तुम दवा की तलाश में हो और दवा दर्द की गहराई में है। इसलिये तो तुमसे बार-बार कहता हूँ-रोओ! पुकारो! चीखो! तड़पो! मछली की तरह तड़पो! जैसे मछली को किसी ने सागर से खींच कर किनारे पर पटक दिया हो। तुम ऐसी ही मछली हो जिसका सागर खो गया है और संसार की कड़ी धूप और गर्म रेत में तुम पड़े हो। तड़पो! दवा की तलाश मत करो। पूकारो! उछालो-कूदो! उसी उछल-कूद से सागर में वापस लौट जाने की व्यवस्था है। जिस दिन दर्द इतना गहरा हो जाये कि दर्द ही बचे और दर्द न बचे, उसी दिन दवा हो जाती है। दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना।
जब तक तुम छोटी-छोटी पीड़ाओं में पड़े हो, तुम पानी की चंद बूंद हो। धन के लिये रो रहे। यह भी कोई रोना है! आँसू जैसी कीमती चीज धन जैसी बेकीमत चीज के लिये गंवा रहे हो! क्योंकि जो मरना ही था, वह मर गया, वह मरने ही वाला था। यहाँ सब मरणधर्मा है। अमृत के लिये रोओ! मरणधर्मा के लिये रोकर तुम व्यर्थ ही अपना समय खराब कर रहे हो। अपनी आँखे गला रहो हो। मकान गिर गया और तुम रो रहे हो? यहाँ सब मकान गिर जाने है। यहाँ कोई मकान टिकने वाला नहीं है। यहाँ सब मकान खंडहर हो जाने वाले है। तुम किन चीजों के लिये रो रहे हो? आँसू जैसी बहुमूल्य चीज कहाँ गंवा रहे हो? इनसे तो हीरे खरीदे जा सकते है, तुम कंकड़-पत्थरों में गिरा रहे हो।
जिस दिन से तुम्हारे आँसू परमात्मा की तलाश में निकल पडे़गे, तुम्हारे भीतर तलवार पैदा हो जायेगी। तुम पर धार आ जायेगी। तुम्हारे भीतर प्रतिभा का आविर्भाव होगा। दर्द को दबाओं मत। देखते हो, दवा शब्द बड़ा अच्छा है, उसका मतलब ही होता है-दबाना। दर्द को दबाओ मत, दवा की तलाश मत करो। दर्द को उभारो। दर्द को जगाओ।
पाने की इतनी जल्दी मत करो। पाना तो हो जायेगा। विरह का भी आनंद है। यह दर्द भी मीठा है। इस दर्द की मिठास अभी लो। एक दफा मिलन हो गया, फिर यह दर्द की मिठास दुबारा नहीं संभव होगी। इस दर्द की मिठास को भोग लो। यह दर्द मिटायेगा। यह दर्द तुम्हें गलायेगा। यह दर्द तुम्हें समाप्त कर देगा। उसी समाप्ति में तो दवा है। उसी समाप्ति में तो मिलन है।
मगर एक ही बात खयाल रखो। मिटने में बुराई नहीं है। अगर विराट के लिये मिट रहे हो तो सौभाग्य है। क्षुद्र के लिये मत मिटना।
परमात्मा के लिये अगर बर्बाद हो जाओ तो और सौभाग्य क्या होगा?
इस दर्द को दबाओ मत। मेरा काम ही यही है कि तुम्हारा दर्द उकसाऊं, जगाऊं। तुम्हारे हृदय को छूउं। तुम्हारे आंसुओं को गतिमान करूं। तुम्हारी प्यास को उकसाऊं, अग्नि बनाऊं। जिस दिन तुम्हारा दर्द परिपूर्णता पर पहुँचेगा, उसी घड़ी, ठीक उसी घड़ी, एक क्षण का भी फिर देर नहीं होती, विरह का पूर्ण हो जाना मिलन की शुरूआत है।
जल्दी नहीं, अधैर्य नहीं, अभी तो दर्द को और मांगो, अभी दवा नहीं। अभी तो दर्द के लिये झोली और फैलाओ। अभी तो दर्द को गिरने दो, अभी तो दर्द को बरसने दो मेघ बन कर-ऐसा कि बाढ़ आ जाये दर्द की।
अभी तो पुकारो कि मेरी वीणा को और कसो। अभी तो पुकारो-मुझे और जलाओं, दग्ध करो। इसी दग्धता में दवा है।
फूल के पास तुमने देखी एक परम तृप्ति! इसीलिये तो फूल इतना आकर्षक मालूम होता है। आकर्षक क्या है? रंग ही नहीं है आकर्षण, क्योंकि रंग तो प्लास्टिक के फूल में भी होता है, कागज के फूल में भी होता है- शायद और भी अच्छा रंग हो सकता है, सुगंध ही नहीं है, क्योंकि कागज के फूल पर भी हम इत्र छिड़क दे सकते है। फिर क्या है फूल में जो आकर्षित करता है? फूल तृप्त है। अब की दफे जब फूल को देखो, तो ख्याल करना। वृक्ष आनंदित है, मंझिल आ गई, खिलाव हो गया, जो छिपा था, प्रकट हो गया, अप्रकट हो गया, अभिव्यंजना हो गई आत्मा की, अपना गीत गा लिया, अब तृप्ति है, अब कोई भागदौड़ नहीं, आपाधापी नहीं। फूल में यह है राज। फिर फूल चाहे गेंदे का, चाहे गुलाब का, चाहे चमेली का, चाहे चंपा का, फिर चाहे फूल घास का और चाहे बड़ा कमल, कोई भेद नहीं पड़ता भेद बहुत है, विरोध जरा भी नहीं है।
एक तो मिलन हो सकता है दो ज्ञानियों का, जो कि व्यर्थ है। दूसरा एक मिलन होता है दो अज्ञानियों का, वह भी व्यर्थ है। क्योंकि उसमें मारा-मारी काफी होती है, लेकिन परिणाम कुछ नहीं होता। दो अज्ञानी बातचीत तो बहुत करते है, मगर एक-दूसरे की सुनते ही नहीं। दो ज्ञानी बातचीत हीं नहीं करते, पर एक दूसरे को सुन लेते है। बिना बोले बात सुन ली जाती है। बिना बोले समझ ली जाती है। दो अज्ञानी बकवास तो बहुत करते है, लेकिन कौन किसकी सुन रहा है? अपनी -अपनी हाँकते है। यह दूसरा मिलन। ये दोनों मिलन बेकार है। दो अज्ञानियों का मिलन बेकार है, दो ज्ञानियों का मिलन बेकार है।
सार्थक तो मिलन है अज्ञानी और ज्ञानी का। क्योंकि वहाँ कुछ घट सकता है। वह तीसरा मिलन है। बस ये तीन ही तरह के मिलन हो सकते है। जब ज्ञानी और अज्ञानी का मिलन होता है तो शिष्य और गुरू की घटना घटती है। तो कुछ घटता है। क्योंकि ज्ञानी की तरफ से धारा बहती है और अज्ञानी अगर लेने को तैयार हो उस धारा को आत्मसात् करने को तो रूपांतरित हो जाता है।
परम पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,