जब कोई साधक धूम्र वाराही साधना सम्पन्न करता है, तो भगवती वाराही प्रसन्न होकर साधक के शत्रुओं का भक्षण कर लेती हैं और साधक को अभय प्रदान करती हैं। धूमावती शत्रुओं पर प्रचण्ड वज्र की तरह प्रहार करने वाली मानी जाती है। ये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दोनो ही रूपो में सहायक सिद्ध होती ही हैं। ये शत्रु का भक्षण करने वाली वाराही महाशक्ति स्वरूपा और दुखों से निवृत्त करने वाली हैं। बुरी शक्तियों से पराजित न होना और विपरीत स्थितियों को अपने अनुकूल बना देने की शक्ति साधक को इनकी साधना से प्राप्त होती है। कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है और उसके आगे सबको हार माननी पड़ती है, किन्तु कर्ण पिशाचिनी शक्ति से युक्त होने के कारण इस साधना के द्वारा साधक पूर्व में ही सभी विपरीत स्थितियों से अवगत हो जाता है। उसे पूर्व में ही सुरक्षित मार्ग का ज्ञान हो जाता है। वह समय से भी ज्यादा बलशाली कहलाता है। जो भयग्रस्त, दीन-हीन और अभावग्रस्त जीवन जीते हैं, वे कायर और बुजदिल कहलाते हैं, किन्तु जो बहादुर होते हैं। वे सब परिस्थितियों से अवगत होकर उन पर विजय प्राप्त करते हैं। जो कुछ उनके भाग्य में नहीं है, उसे भी साधना के बल पर प्राप्त करने की सामर्थ्य रखते हैं। आज समाज में जरूरत से ज्यादा द्वेष, ईर्ष्या, छल कपट, हिंसा और शत्रुता का वातावरण बन गया है, फलस्वरूप यदि व्यक्ति शांतिपूर्वक रहना चाहे, तो भी वह नहीं रह सकता। अतः जीवन की असुरक्षा समाप्त करने की दृष्टि से यह साधना विशेष महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय है। सृष्टि में जितने भी दुःख हैं, व्याधियां हैं, बाधायें हैं, इनके शमन हेतु ये साधना श्रेष्ठ है। इस साधना के द्वारा धन-धान्य, समृद्धि की कमी नहीं होने पाती, क्योंकि इस साधना के माध्यम से लक्ष्मी प्राप्ति में आने वाली बाधाओं का पूर्ण दमन होता है।
यह साधना 19 अक्टूबर अथवा किसी भी माह की अष्टमी या सोमवार के दिन सम्पन्न करें। रात्रि 9 बजे के बाद स्नान आदि से निवृत्त् होकर साधना कक्ष में पश्चिम दिशा की ओर मुंह कर लाल धोती पहन लाल ऊनी आसन पर बैठ जायें। फिर प्लेट में लाल वस्त्र बिछाकर धूमावती चित्र व तांत्रोक्त वाराही कर्ण पिशाचिनी यंत्र स्थापित करें, यंत्र को जल से धोकर उस पर कुंकुम से तीन बिन्दु लाईन से लगा लें, धूप व दीप जला कर पूजन सम्पन्न करें। सद्गुरू का ध्यान करते हुये बायें हाथ में धूम्र वाराही गुटिका को मुटठी में दबाकर शत्रु दमन माला से निम्न मंत्र का 5 माला नित्य 7 दिन तक जप करें।
जप-समाप्ति के सात दिन बाद सभी सामग्री लाल कपड़े में लपेट कर आठवें दिन शाम को किसी जन-शून्य स्थान में जाकर गढ्ढा खोदकर दबा दें और पीछे मुड़कर न देंखें। घर आकर हाथ-पैर धो लें। पूर्ण मनोभाव से साधना करने पर निश्चिन्त रूप में सुफल की प्राप्ति होती ही है।
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