बद्रीनाथ सबसे पवित्र हिन्दू तीर्थ स्थलों में से एक है, जो उत्तराखंड अलकनंदा नदी के किनारे गढ़वाल हिमालय में स्थित है। बद्रीनाथ के पीछे किंवदंती यह है कि यह कभी बद्री नामक एक महान ऋषि का स्थान था। बद्री भगवान विष्णु के बहुत बड़े भक्त थे और उन्होंने उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुये और उससे पूछा कि वह क्या चाहता है। बद्री ने एक ऐसा स्थान मांगा जहाँ वह हमेशा भगवान विष्णु की उपस्थिति में रह सकें। तब भगवान विष्णु बद्री को इस स्थान पर ले गए और उनसे कहा कि वह हमेशा आध्यात्मिक रूप में वहाँ रहेंगे। बद्रीनाथ तब एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बन गया और तब से ऐसा ही है। हर साल हजारों तीर्थयात्री भगवान विष्णु को श्रद्धांजलि देने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ का मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिरों में से एक है और किसी भी हिंदू के धार्मिक यात्रा कार्यक्रम का एक अनिवार्य हिस्सा है।
बद्रीनाथ धाम में श्री बद्रीनारायण भगवान के पाँच स्वरूपों की पूजा अर्चना होती है। विष्णु के इन पाँच रूपों को ‘पंच बद्री’ के नाम से जाना जाता है। बद्रीनाथ के मुख्य मंदिर के अलावा अन्य चार बद्रीयों के मंदिर भी यहां स्थापित है। श्री विशाल बद्री पंच बद्रीयों में से मुख्य है। इसकी देव स्तुति का पुराणों में विशेष वर्णन किया जाता है। ब्रह्मा, धर्मराज व त्रिमूर्ति के दोनों पुत्र नर के साथ ही नारायण ने बद्री नामक वन में तपस्या की, जिससे इन्द्र का घमण्ड चकनाचूर हो गया। बाद में यही नर नारायण द्वारा युग में कृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतरित हुये। जिन्हें हम विशाल बद्री के नाम से जानते हैं। इसके अलावा श्री योगध्यान बद्री, श्री भविष्य बद्री, श्री वृद्ध बद्री, श्री आदि बद्री इन सभी रूपों में भगवान बद्रीनाथ यहां निवास करते है। बद्रीनाथ से जुड़ी किंवदंतियां अनेक और विविध हैं।
बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है-मुनि नारद एक बार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मी जी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि ‘‘हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है इस हेतु आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है इसी कारण आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।”
पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गई तथा इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई। मान्यतानुसार भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया और रूदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है।
विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए-नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया। यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी, महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रह्माकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं।
कुछ स्रोतों के अनुसार, यह मन्दिर आठवीं शताब्दी तक एक बौद्ध मंदिर था, जिसे आदि शंकराचार्य ने एक हिन्दू मन्दिर में परिवर्तित कर दिया। इस तर्क के पीछे मन्दिर की वास्तुकला एक प्रमुख कारण है, जो किसी बौद्ध विहार के समान है; इसका चमकीला तथा चित्रित मुख-भाग भी किसी बौद्ध मन्दिर के समान ही प्रतीत होता है। अन्य स्रोत बताते हैं कि इस मन्दिर को नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया गया था। हिंदू अनुयायियों का कहना है कि बद्रीनाथ की मूर्ति देवताओं ने स्थापित की थी। जब बौद्धों का प्रभाव हुआ तो उन्होंने इसे अलकनन्दा में फेंक दिया। शंकराचार्य ने ही अलकनंदा नदी में से बद्रीनाथ की इस मूर्ति की खोज की और इसे तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में स्थापित किया। तदनन्तर मूर्ति पुनः स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।
बद्रीनाथ मन्दिर में आयोजित सबसे प्रमुख पर्व माता मूर्ति का मेला है, जो माँ पृथ्वी पर गंगा नदी के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। इस त्यौहार के दौरान बद्रीनाथ की माता की पूजा की जाती है, जिन्होंने माना जाता है कि, पृथ्वी के प्राणियों के कल्याण के लिए नदी को बारह धाराओं में विभाजित कर दिया था। जिस स्थान पर यह नदी तब बही थी, वही आज बद्रीनाथ की पवित्र भूमि बन गई है। बद्री केदार यहाँ का एक अन्य प्रसिद्ध त्यौहार है, जो जून के महीने में बद्रीनाथ और केदारनाथ, दोनों मन्दिरों में मनाया जाता है। यह त्यौहार आठ दिनों तक चलता है और इसमें आयोजित समारोह के दौरान देश-भर से आये कलाकार यहाँ प्रदर्शन करते हैं।
मन्दिर में प्रातःकाल होने वाली प्रमुख धार्मिक गतिविधियों में महाभिषेक, अभिषेक, गीतापाठ और भागवत पूजा शामिल हैं, जबकी शाम को पूजा में गीत गोविन्द और आरती होती है। सभी अनुष्ठानों के दौरान अष्टोत्रम और सहस्रनाम जैसे वैदिक ग्रन्थों का उच्चारण किया जाता है। आरती के बाद, बद्रीनाथ की मूर्ति से सजावट हटा दी जाती है और पूरी मूर्ति पर चन्दन का लेप लगाया जाता है। मूर्ति पर लगा ये चन्दन अगले दिन भक्तों को निर्मल्य दर्शन के दौरान प्रसाद के रूप में दिया जाता है। भक्त मन्दिर में बद्रीनाथ की मूर्ति के सामने पूजा करने के साथ-साथ अलकनंदा नदी के एक कुण्ड में भी डुबकी लगाते हैं। प्रचलित धारणा यह है कि इस कुण्ड में डुबकी लगाने से व्यक्ति की आत्मा शुद्ध होती है। बद्रीनाथ मन्दिर भारत के उन कुछ पवित्र स्थलों में से एक है, जहाँ हिंदू लोग पुजारियों की सहायता से अपने पूर्वजों के लिये बलि चढ़ाते हैं।
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