महाराणा प्रताप के जन्मस्थान पर दो धारणाएँ है। पहली महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवं जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ। दूसरी धारणा यह है कि उनका जन्म पाली के भिल्ल जनजाति में हुआ। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता, भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे, भील अपने पुत्र को कीका कहकर पुकारते है, इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे।
जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्ध और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर के शक्तिशाली राठौड़ी राजा राजामालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे सबसे शक्तिसम्पन्न थे एवं जयवंता बाई के पिता पाली के शासक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक थे। इस कारण पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था और रणबंका राठौड़ो की सेना के सामने अकबर की शक्ति बहुत कम थी, अतः जयवंता बाई को पाली भेजा गया। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयास प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध मे बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया।
महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिये अकबर ने प्रताप को समझाने के लिये चार राजदूत नियुक्त किये जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह 1573 ई. में, भगवान दास सितम्बर 1573 ई. में तथा राजा टोडरमल दिसम्बर 1573 ई. में प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
हल्दीघाटी युद्ध 18 जून 1576 ई. में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से भील सेना के सरदार, पानरवा के ठाकुर राणा पूंजा सोलंकी तथा एकमात्र मुस्लिम सरदार थे-हकीम खाँ सूरी। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकी उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिये जीवित रहे। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। शक्ति सिंह ने अपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इस युद्ध में मेवाड़ के महाराणा प्रताप विजय हुए थे, जैसे ही अकबर का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। राजपूतों ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिये थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी। हल्दीघाटी के युद्ध में और देवर और चप्पली की लड़ाई में महाराणा प्रताप को सर्वश्रेष्ठ राजपूत राजा और उनकी बहादुरी, पराक्रम, चारित्र्य, धर्मनिष्ठा, त्याग के लिए जाना जाता था। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद, उन्हें ‘‘हिंदुशिरोमणी’’ माना गया।
राजस्थान के इतिहास 1582 में देवर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ति हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रूप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स ने इस युद्ध को ‘‘मेवाड़ का मैराथन’’ कहा है। मेवाड़ के उत्तर छोर का देवर का नाका अन्य नाकों में से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था। यहाँ की उत्पत्यकाताओं में इस जाती के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाती के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी बस्तियाँ आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतर गिर्वा तक प्रसारित हो गई। देवड़ाओं के पश्चात यहाँ रावत शाखा के राजपूत बस गये । इन विभिन्न समुदायों के दिवेर में बसने के कई कारण थे। प्रथम तो दिवेर का एक सामरिक महत्व रहा है, जो समुदाय शौर्य के लिये प्रसिद्ध रहे हैं, वे उत्तरोत्तर अपने पराक्रम के कारण यहाँ बसते रहे और एक-दूसरे पर प्रभाव स्थापित करते रहे। दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह रहा कि इसकी स्थिति ऐसे मार्गों पर है, जहाँ से मेवाड़, मालवा, गुजरात, अजमेर के आदान-प्रदान की सुविधा रही है। महाराणा प्रताप छप्पन के पहाड़ी स्थानों में बस्तियां बसाने तथा अकबर अपने छप्पन की सैनिक चौकियों को पोषण भेजने में व्यस्थ थे। प्रताप मेवाड़ की चौकियों को निर्बल बनाने में अवश्य सफल हो गये परंतु देवर का केंद्र अब भी मुगलों के लिये सुदृढ़ था।
महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ और मदारिया के मुगली थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इन दोनों स्थानों पर महाराणा का अधिकार होना देवर पर कब्जा करने की योजना का संकेत था। अचानक महाराणा की फौज देवर पहुँची तो मुगल दल में भगदड़ मच गई। मुगल सैनिक घाटी छोड़कर मैदानी भाग की तलाश में उत्तर के दर्रे से भागने लगे। अन्ततोगत्वा घाटी के दूसरे छोर पर जहाँ कुछ चौड़ाई थी और नदी का स्त्रोत भी था, वहां महाराणा ने उन्हें जा धर दबोचे। अकबर के सेना के सुलतान खाँ और बहलोल खाँ मारे गये। इस युद्ध में विजयश्री महाराणा के हाथ लगी। देवर की विजय प्रताप के जीवन का एक उज्ज्वल कीर्तिमान है। जहाँ हल्दीघाटी का युद्ध नैतिक विजय और परीक्षण का युद्ध था, वहाँ देवर-छापली का युद्ध एक निर्णायक युद्ध बना। इसी विजय के फलस्वरूप संपूर्ण मेवाड़ पर प्रताप का अधिकार स्थापित हो गया। एक अर्थ में हल्दीघाटी के युद्ध में राजपूतो ने रक्त का बदला देवर में चुकाया। देवर की विजय ने यह प्रमाणित कर दिया कि महाराणा का शौर्य, संकल्प और वंश गौरव अकाट्य और अमिट है, इस युद्ध ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि महाराणा के त्याग और बलिदान की भावना के नैतिक बल ने सत्तावादी नीति को परास्त किया। प्रताप की देवर विजय की दास्तान सर्वदा हमारे देश की प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।
महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लम्बी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिये एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अन्त 1585 ई. में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गये, दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई। महाराणा के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सिधारने के बाद आगरा ले आया था।
‘‘एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिये अमर हो गए।’’
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