थोडी-थोडी जेसे सुबह कभी-कभी तुम्हारी अवस्था होती हे- नींद भी नहीं, जागे भी नहीं, थोड़ा-थोड़ा जाग भी गये हैं। राह पर कोई गुजरता है तो आवाज भी सुनाई पड़ती है। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करते हैं तो आवाज सुनाई पड़ती है। पत्नी रसोई में चाय बनाने लगी है तो केतली में होती आवाज सुनाई पड़ती है। चाय की सुगंध भी तुम्हारे नथुनों तक आने लगी है। सुबह के सूरज की किरणें तुम्हारे चेहरे पर पड़ रही हैं, उनकी गर्मी भी मालूम हो रही है। लेकिन फिर तुम एक करवट लेकर सो गये हो। सोचते हो अभी और पांच-मिनट! सोये भी नहीं हो। जागे भी नहीं हो। ऐसी होती है ध्यान की अवस्था, न तो सोये न जागे हुए।
ध्यान बाहर के प्रति अंधा हो जाना! ताकि सारी जीवन-ऊर्जा, देखने की सारी शक्ति और क्षमता अंतर्मुखी हो जाए। ताकि जो प्रकाश वस्तुओं पर पड़ता था वह स्वयं पर पडने लगे। अपनी मशाल में अपने को देखने की क्षमता। अभी अपनी मशाल में तुमने दूसरों को देखा है, औरों को देखा है, सारा संसार छान डाला है। लेकिन दीया तले अंधेरा। दीये से तुम सब खोजते फिर रहे हो और खुद दीये के तले अंधेरा इकट्ठा होता चला जा रहा है। यह दीप समान ज्योति अंतर्मुखी होनी चाहिए।
नींद में तुम हो और किसी का निशाना अचूक हो, तब तो बचने का उपाय भी नहीं। ऐसी ही दशा है। माया से तलाक लो। माया से तलाक का नाम ही जीवन की बन्धन मुक्त स्थितियां है। और माया से तलाक का अर्थ क्या होता है? यह नहीं होता कि भाग खड़े हुये जंगल की तरफ। माया के तीर जंगल तक पहुंच जायेंगे, अगर तुम नींद में हो। माया का फैलाव काफी बड़ा हे। दूर-दूर तक उसके तीर पहुंच जायेंगे। इसलिए सवाल भागने का नहीं है, जागने का है। तुम जहां भी हो जाग जाओ, फिर माया का कोई तीर तुम तक नहीं पहुंच सकता। माया ही मर जाती है। इधर तुम जागे कि उधर माया मरी। तुम जब तक सोये हो, माया जीवित है। तुम्हारी निद्रा ही माया है।
संसार की दृष्टि में अंधे बन जाओ। आंख बंद कर लो, अंतर्यात्रा पर चलना प्रारम्भ करो। लोग पागल कहेंगे, दीवाना कहेंगे, सब कुछ कहेंगे। उनकी टेन्सन मत करना, क्योंकि वे बहुत कम लोग ही है, जो इतनी हिम्मत करते हें बाहर के प्रति अंधे हो जाने की स्वयं को जानने की। और जिसने कोयल की कूक में भी उसका अपना ही कंठ है और फूल की सुगंध में अपनी सुगंध हे और पहाड़ों की ऊंचाइयों में अपनी ऊंचाई है और सागर की गहराई में अपनी गहराई है। तब सारा अस्तित्व उसे स्वयं का विस्तार मालूम होता है कि वह अहं ब्रह्मास्मि! स्वरूप है। जहां ध्यान नहीं वहां ज्ञान कैसे होगा, ध्यान की ही सुगंध है ज्ञान।
ध्यान का ही संगीत है ज्ञान। ध्यान की वाणी पर ही जो संगीत उठता है उसका नाम ज्ञान है। कोई भी नहीं मरता, सिर्फ शरीर और आत्मा का संबंध छूट जाता है। और तुम संबंध को ही अगर जीवन समझते हो, तो फिर संबंध छूटने को तुम मृत्यु समझ लेते हो। संबंध को जीवन समझने की क्रांति से मृत्यु पैदा होती है। संबंध यानी तादात्म्य। तुमने अगर यह मान रखा है कि मैं शरीर हूं, तो फिर मृत्यु बढेगी ओर तुम अगर जान लो कि मैं शरीर नहीं हूं, फिर केसी मृत्यु! शरीर मरेगा, मरा ही हुआ था। और आत्मा मर नहीं सकती, आत्मा अमृत है।
अगर हम संसार की वस्तुओं को अपने भीतर अत्यधिक भर लें कि उनमें ही जीवन आसक्तन हो जाए, तो जीवन में उन वस्तुओं के कम या ज्यादा होने से संताप उत्पन्न होता है। इसलिये संसार की वस्तुओं की चिन्ता न करते हुए अपने भीतर एक आनन्द को उत्पन्न करना, अपने भीतर एक पूर्णता को बनाना ही तो संन्यास है।
संन्यास तो शक्ति और परमात्मा से मिलने की स्थिति है। परमात्मा के दिये हुए संसार को ठुकराकर, भगोड़ा बनकर कोई भी व्यक्ति परमात्मा से नहीं मिल सकता है। जीवन में संकट से भागना संन्यास नहीं है, क्योंकि भले ही वह संन्यासी बन जाये परन्तु व्यक्ति अपने आपसे नहीं भाग सकता है। जो व्यक्ति जीवन में लड़ने का सामर्थ्य नहीं जुटा पा रहा हे, वह संन्यास केसे ग्रहण कर सकता है? संन्यास संसार की जलन और आग का अतिक्रमण है, जो संसार की आग और जलन को पार कर सकता है, उस पर विजय प्राप्त कर सकता है, वही तो संन्यासी है। संन्यास संसार से विरोध अथवा पलायन नहीं, अपितु संन्यास तो संसार की सम्पूर्ण समझ ओर संघर्ष का फल हे।
संन्यास में संसार नहीं, अज्ञान का त्याग करना होता है। अपने ज्ञान का जागरण ही तो संन्यास है, अपने आपको पूर्ण मौलिकता से परिवर्तन कर देना ही संन्यास है। जिस प्रकार प्रकाश के आगमन पर अंधकार चला जाता है, वैसे ही ज्ञान के आगमन पर जीवन में जो कुछ कलुषित है, वह समाप्त हो जाता है और जो शुद्धता शेष रहती है, वही संन्यास है। संन्यास ‘स्व शुद्धि’ है, अपने आपको संसार की आग और जलन में तपाकर शुद्ध होना है, परिर्वतित कर देना है, वहीं संन्यास है। जब संन्यस्त भाव का जन्म होता है तो ज्ञान, दृष्टि, आचरण बदल जाता है, क्योंकि संन्यास विजय का नाम है, पराजय का नहीं। संन्यासियों का बढ़ता हुआ सैलाब, उनकी बढ़ती हुई बाढ़, हजार-हजार तरह की गालियां मेरे लिए लाएगी। तुम उनकी चिंता मत लेना। वे गालियां मेरे पास आकर गालियां नहीं रह जाती। जैसे कि तुम सरोवर में अगर अंगारे भी फेंको तो सरोवर में गिरते ही बुझ जाते हैं, अंगारे नहीं रह जाते। मेरी तरफ आने दो गालियों को जितनी आये। जितनी ज्यादा आये उतना अच्छा, क्योंकि उतना तहलका मचेगा, उतना तूफान उठेगा।
संन्यास सर्व विजयश्री का नाम है और विजयश्री के लिए संकल्पवान होना आवश्यक है। जीवन की शिथिलता और निराशा को मिटाने के लिए पहले संन्यास की आवश्यकता है ओर संन्यास के उन क्षणों में उसे सांसारिक संन्यासी बनाकर गुरु उसे उच्च व्यक्तित्व, शक्तियुक्त, संकल्पयुक्त और आत्मयुकत बनाते हैं। जब तक व्यक्ति के जीवन में दुविधा, संघर्ष, बेचेनी, तनाव, निर्णय-अनिर्णय होता है तभी तक तो वह निराश हो सकता है। उस समय उसके भीतर की आत्म शक्ति को जाग्रत कर उसे विषाद और संताप से मुक्त करना ही गुरु का कर्त्तव्य है। निराशा तो कोई भी दे सकता हे, पूरा संसार देता ही है, यहाँ नास्तिक भाव और दासता का चिंतन मिलने पर कुविचार और संताप की स्थितियां बनती है और इन भावों को तोड़ना और अपने आप को दूसरो से ऊंचा उठना ही सांसारिक स्वरूप में संन्यस्त भाव की क्रिया है।
गुरु जब अपनी दिव्य शक्ति से उस “अहं’ भाव को समाप्त कर ‘स्व’ भाव को जाग्रत करते हैं, तो उस क्रिया को संन्यास दीक्षा कहा गया है। अपने आत्म ज्ञान को चेतन्य करना ओर उस आत्म ज्ञान के माध्यम से केवल मनुष्य ही नहीं देव भी सहयोग देने के लिए आतुर हो उठें, वही तो सच्चा संन्यासी है। संन्यास के लिए तो अपनी शारीरिक और मानसिक रूग्णता को संकल्प के साथ मिटाने की स्थिति बनानी आवश्यक है। ऐसा ऊर्ध्वमुखी जीवन जीने के लिए जिसमें निरन्तर उन्नति हो, तो बीज को मिटना ही पड़ता है, बीज मिटकर ही अपने आप में विशाल वक्ष बन सकता है। बीज में जीवन है, लेकिन उसके ऊपर कड़ा आवरण हे। सद्गुरु अपनी शक्ति द्वारा इस कठोर आवरण को तोड़ देते हैं। सामाजिक जीवन में लीक पर चलना, डर-डर कर काम करना, हर समय आशंकित रहना, ये सब अपने ‘स्व’ के ऊपर पडे हुए आवरण ही तो हैं। इन आवरणों को फोड्कर जो प्रस्फुटित हो जाता है, वह जीवन में संन्यासी बन जाता है, उसके लिए हिमालय में और दिल्ली में अंतर नहीं रह जाता, क्योंकि उसने ‘स्व’ का विकास करना सीख लिया है। और जब स्व विकास की संन्यासी प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती हे, तो सांसारिक बंधन उसे तुच्छ और बोने अनुभव होते हैं।
अपनी अलग पहचान स्थापित करना ही तो संन्यास हे ओर शिष्य या साधक ही अपनी अलग पहिचान विशाल स्वरूप में कर सकता है, वह गुरु से शक्ति प्राप्त कर अपनी स्वयं की शक्ति को एक प्रचण्ड विस्फोट देता हे। गुरु द्वारा प्रदत्त शक्ति एक- श्रृंखलाबद्ध रूप से एक साधक के भीतर विषाद रूपी अज्ञान का विखण्डन कर नया जीवन प्रदान करती है और जिसने यह नया जीवन देख लिया वह आत्मानन्द की अनुभूति प्राप्त कर लेता है।
संन्यास दिवस एक नूतन पर्व हे, यह तो सड़ी-गली मान्यताओं, जर्जर व्यवस्थाओं का त्याग कर अपने भीतर नूतनता अनुभव करने का पर्व है। संन्यास की शक्ति एक सर्वथा अद्वितीय अनुभव हे, उसमें ओर सोसारिक जीवन में वेसा ही अंतर हे जैसा एक बदबूदार नाली ओर सुन्दर सुगन्धित उपवन में हे। इसलिए इस बात के लिए सहज रहना होगा, कि सामाजिक सुरक्षा कवच इतना भी तीव्रतम रूप में नहीं जकड़ ले कि व्यक्ति अपना अस्तित्व ही भूल जाए, सामाजिक सुरक्षा बड़े बन्धन बनकर नहीं रह जाए। समाज में रहकर बन्धनमुक्त होना ही तो संन्यास पर्व है और यह पर्व दो दिन में समेटा नहीं जा सकता, लेकिन पर्व की शुरूआत तो कहीं से करनी आवश्यक है।
यदि आप जब देवभूमि की ओर कदम ही नहीं बढ़ायेंगे, अपने गुरु का सानिध्य और सहयोग ही नहीं लेंगे तो अपने उन लक्ष्यों को केसे प्राप्त करेंगे। ठिठक कर रह जाना, डर से अपने आप को नपुंसक या कमजोर बना देना ही जीवन की न्यूनता है और ऐसी न्यूनता आप अनेक-अनेक रूपों में पिछले तीस चालीस वर्षो से भोग रहे हैं और उसके फलस्वरूप जीवन में अनेक-अनेक संताप और दुःख प्राप्त हो रहे हैं। यदि अब भी आप ठिठक कर रह गये तो जीवन में कोई चेतना, कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। देह आपकी है, जीवन आपका है विचार आपको ही करना हे कि में कहां हूं? और कहां मुझे पहुंचना है, मुकाम किस तरह हासिल करना है वह मैंने आपको बता दिया हे।
जब व्यक्ति सम भाव से जीवन जीना प्रारम्भ कर देता है तथा समष्टि भाव आ जाता है। तब व्यक्ति स्वंतत्र हो जाता है और वही संन्यासी बन सकता है। जीवन चक्र से मुक्त होना, जीवन से भागना नहीं है। संन्यास दिवस के अवसर पर साधक या शिष्य प्रयत्न करके भी गुरु चरणों में पहुंचे, भक्ति भाव के साथ उनके चरणों में बैठे। गुरु तो श्रेष्ठ ज्ञान और सांसारिक जीवन में हर तरह की श्रेष्ठता को किस तरह से प्राप्त करना है ऐसा मार्ग दर्शन शिष्य को देने का प्रयत्न करता है, जो उनके लिए हमेशा हितकर होता है। इसी हेतु पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में शिव-शक्ति संन्यास महोत्सव का आयोजन 5-6 नवम्ब२ 2014 को लखनऊ ( उ.प्र.) में सम्पन्न होगा यह संन्यास महोत्सव संकल्प का पर्व है साधक द्वारा संकल्प धारण करने से जीवन में निरन्तर क्रियाशील रहने की शक्ति प्राप्त होती है इसी हेतु जीवन में सुस्थितियां निर्मित करने के लिये शक्ति का भाव होना परम आवश्यक है। अपने आपको शिव स्वरूप गुरुत्व शक्ति से युक्त करने हेतु ऐसे कार्तिक पूर्णिमा संन्यास महोत्सव पर संकल्प के साथ तीन पत्रिका सदस्य बनाकर अहम ब्रह्मास्मि शिव-शक्ति चैतन्य दीक्षा ग्रहण कर जीवन में सर्व शक्ति से निश्चित रूप से आपूरित होंगे ही क्यों कि ये दिवस हमारे प्राणेश्वर के है ओर अपने सद्गुरुदेव की सर्व शक्तियों को रोम-रोम में आपूरित करने की क्रिया हे।
अपने समस्त पाप ताप दोषों के शमन हेतु अपने आप को प्रेम, हर्ष आनन्द और रस युक्त बनाने की जीवन्त जाग्रत क्रियायें जिससे जीवन में पूर्णमद: की स्थितियां प्राप्त हो सके और आने वाले नूतन वर्ष में वह सब कुछ प्राप्त कर सके जिसके लिए आपके अर्न्तमन में निरन्तर निरन्तर इच्छा उत्पन्न होती रहती है। अपने जीवन को नूतन शक्ति से युक्त करने हेतु शनिश्चरीय काल भेरव समलेश्वरी शक्ति महोत्सव पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में 15- 16 नवम्बर को बालांगीर उड़ीसा में महामाया शक्ति समलेश्वरी की तपोभूमि पर सम्पन्न किया जायेगा।
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