राजा भृतहरि ने अपने नीति श्लोक में लिखा है कि मनुष्य का भाग्य उस व्यक्ति के समान है, जिसके मस्तक पर आगे तो केश है और पीछे से केश रहित है। अतः जब भी अवसर प्राप्त हो भाग्य को पकड़ लो अन्यथा वह हाथ से निकल जाता है और पुनः अवसर कई वर्षों बाद आता है।
सद्गुरुदेव बार-बार अपने प्रवचनों में कहते थे कि ‘विधाता लिखे ललाट पटले’ अर्थात् ब्रह्मा का कार्य तो एक कुम्हार की तरह संसार में मनुष्यों को बर्तनों की भांति बनाना है और विधाता अपनी लेखनी से उसके ललाट पर भाग्य अंकित करता है। क्या मनुष्य अपनी कर्मशक्ति, इच्छाशक्ति और ज्ञान शक्ति से स्वयं अपना भाग्य लिख सकता है? मनुष्य के लिए देवता आराध्य अवश्य है, लेकिन उसके साथ ही साथ वे उसके सहयोगी भी हैं और जो साधक साधना करता है, वह अपना भाग्य स्वयं लिखने में समर्थ हो जाता है और देवता भी उसके सहयोगी बन जाते हैं। आर्थिक दृष्टि से पूर्ण भाग्योदय की एक अनूठी साधना जिसे सम्पन्न कर आप अपने जीवन में नया अध्याय स्वयं प्रारम्भ कर सकते हैं।
जीवन में कर्त्तव्य आवश्यक हो सकते हैं, लेकिन जिस प्रकार से कर्तव्य आकर जीवन को ग्रसित कर लेते हैं, वह न तो आवश्यक होता है न सहज। बचपन, बचपन के बाद किशोरावस्था उसके बाद यौवन और इसी यौवन की प्रथम सीढ़ी पर पांव रखते ही कर्त्तव्यों का संसार भी प्रारम्भ हो ही जाता है। स्वयं खुद के भरण-पोषण के साथ-साथ माता-पिता का दायित्व छोटे भाई-बहनों का परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से दायित्व एवं स्वयं अपने परिवार की जिम्मेदारी-यही लगभग पचहत्तर प्रतिशत व्यक्तियों के जीवन की कथा है। शेष पच्चीस प्रतिशत में हो सकता है कि उन्हें पैतृक सम्पदा मिली हो, पारिवारिक दायित्व, किन्हीं अन्य सुविधाओं से या तो न हो अथवा सीमित हो, किन्तु फिर भी जीवन-यात्रा तो शेष रह ही जाती है।
20-22 वर्ष की अवस्था आते-आते व्यक्ति को अपने भविष्य और भावी जीवन की चिंतायें आकर घेर लेती हैं। स्व व्यवसाय अथवा नौकरी इनमें से किसका चुनाव किया जाय, इस बात का द्वंद्व प्रारम्भ हो जाता है। कुछ सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें पैतृक रूप से जीवन यापन का मार्ग मिल जाता है। घर का व्यवसाय या पैतृक सम्पत्ति मिल जाती है किन्तु सम्पति प्राप्त होना ही जीवन की पूर्णता और सफलता नहीं मानी जा सकती, इसके बाद भी विवाह, खुद का स्वास्थ्य, शत्रु-निवारण, गृह शांति जैसे बहुत से पक्ष शेष रह जाते हैं, वही सामान्य व्यक्ति को तो प्रारम्भिक बिन्दु अर्थात् धन के उपार्जन से ही अपने जीवन का प्रारम्भ करना पड़ता है।
जीवन के कर्त्तव्यों और इन आवश्यक प्राथमिक पक्षों को यदि क्षण भर के लिये परे रखकर देखें तो व्यक्ति की अपनी इच्छाओं और भावनाओं का भी संसार होता है और वह संसार ही उसके दैनिक जीवन में सरसता तथा गति का आधार होता है। लेकिन कब जीवन कर्त्तव्य भावना और वास्तविकताओं के बीच गड्ड-मड्ड होकर बीत जाता है इसका पता ही नहीं चलता और जब तक लगता है, जीवन में कुछ ठहराव आता है तब तक पता लगता है संतान खुद ही बड़ी हो गई लगती है। पता लगता ही नहीं कि यौवन की उस पहली सीढ़ी के बाद कब 20-22 वर्ष बीत गये और जीवन के उस चरण तक आने के बाद में उमंगे बची हो या ना बची हो जीवन में आशा शेष रह गयी हो या न रह गयी हो, कुछ कहा नहीं जा सकता।
एक प्रकार से देखा जाये तो प्रायः पच्चीस वर्ष की अवस्था में कंधों पर कर्त्तव्यों का जो जुआ लाकर रख दिया जाता है, वह फिर मृत्यु के साथ ही उतरता है और उतरता कहां है? व्यक्ति जाते-जाते अपनी संतानों के कंधे पर रखकर चला जाता है, इसका क्या कारण है, इसका क्या उपाय है, यह सोचने के अवसर जीवन में आते ही नहीं क्योंकि धन कमा कर कुछ फुर्सत पायी तो पत्नी की बीमारी सामने आकार खड़ी हो गयी, पत्नी स्वस्थ हुई तो बेटा पढ़ाई में कमजोर पड़ने लगा, उससे निपटे तो कहीं धन फंस गया ज्यों-ज्यों उसको भी निबटाया तो खुद का स्वास्थ्य——
साधक के मन में एक प्रश्न शेष रहता है कि जीवन पूरी तरह से क्यों नहीं संवर रहा है उन्हें शंका होती है कि मैंने अमुक-अमुक साधनायें, दीक्षायें भी ली, किन्तु पूर्णरूप से लाभ नहीं है क्योंकि प्रत्येक जागरूक साधक अपनेी ओर से अपनी क्षमता भर प्रयास करता ही है, इसमें कमी केवल यह रह जाती है कि उनके जीवन में प्रत्येक साधना आवश्यक होते हुए भी फल अपने विशेष स्वरूप के अनुसार ही देती है, जबकि जीवन की सफलताएं अनेक पक्षों में निर्मित होती हैं।
जीवन के अनेक पक्ष और वे भी पूर्णता से प्रत्येक साधना नहीं समेट सकती जबकि एक इच्छा के बाद दूसरी इच्छा का जन्म होता ही है, एक स्थिति में सफलता मिलने के बाद दूसरी स्थिति में सफलता सामने आती ही है और इनकी पूर्ति करना भी कोई दोषयुक्त कार्य भी नहीं। जीवन के ऐसे चिंतन को लेकर योगियों ने वे सूत्र ढूंढ़ने चाहे जो जीवन के आवश्यक सूत्र हैं और उनके साथ ही साथ कोई ऐसी साधना भी प्राप्त करनी चाही जो जीवन के सभी प्रारम्भिक और आवश्यक तत्वों को अपने साथ समेटती हो। उन्होंने अपने निष्कर्षों में पाया कि जीवन के ऐसे पक्ष कुल 14 हैं, जिनमें धन प्राप्ति, स्वास्थ्य, पारिवारिक सुख, शत्रु बाधा निवारण, राज्य सम्मान, विदेश यात्रा योग, पुत्र सुख इत्यादि सम्मिलित किये और यह निष्कर्ष निकला कि जीवन में इन चौदह रत्नमय स्थितियों को प्राप्त होना ही जीवन की पूर्णता है जिसे उन्होंने ‘सर्व दुर्गति नाशक’ के नाम से वर्णित किया, जिसके द्वारा जीवन की प्रारम्भिक स्थितियों को सुधारने के साथ ही साथ जीवन की भावी योजनाओं की पूर्ति भी हो सके। दुर्गति नाशक साधना से सम्बन्धित कुछ विशेष बातें निम्न हैं-
1- दुर्गति नाशक साधना शुक्ल पक्ष में ही सम्पन्न करनी चाहिए।
2- दुर्गति नाशक साधना से पहले गुरु मंत्र का अनुष्ठान करना आवश्यक है।
3- दुर्गति नाशक साधना सर्वार्थ सिद्धि योग, गुरु पुष्य, रवि पुष्य योग में प्रारम्भ करनी चाहिए।
4- दुर्गति नाशक साधना प्रातः भोर काल में सम्पन्न करनी चाहिए, रात्रि में सम्पन्न करना उचित नहीं है।
इस साधना की मूलशक्ति मां भगवती महालक्ष्मी हैं और जहां केवल महालक्ष्मी साधना सम्पन्न करने से साधक को धन, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है वहीं महालक्ष्मी को आधार बनाते हुए इस दिवस की दुर्गति नाशक साधना सम्पन्न करने से उसे सर्वसिद्धि सौभाग्य प्राप्त होता है। एक प्रकार से महा-लक्ष्मी अपने एक हजार आठ वर्णित स्वरूपों के साथ पूर्ण कृपालु हो जाती है और विशेष यंत्रों के माध्यम से विशेष प्रक्रिया के द्वारा उनको चिर स्थायित्व दिया जा सकता है, जिससे साधक के जीवन में हर कदम पर बाधाएं और अड़चनें न आएं।
इस साधना में केवल तीन सामग्रियों की आवश्यकता होती है- दुर्गति नाशक पारद श्रीयंत्र, सौभाग्य शंख, लक्ष्मी माला इसके अतिरिक्त इस साधना में किसी विशेष विधि-विधान, पूजन की आवश्यकता नहीं है। यदि साधक के पास महा-लक्ष्मी के किसी भी स्वरूप का प्राण प्रतिष्ठित नूतन चित्र है अन्यथा प्राप्त कर उसे साधना हेतु मंगवाकर स्थापित कर लें।
साधना दिवस के दिन प्रातः भोर काल में अवश्य बैठ जाए और समय को इस प्रकार से निश्चित कर लें कि साधना प्रातः नौ बजे के पहले-पहले अवश्य पूर्ण हो जाय। महालक्ष्मी के चित्र के सामने घी का बड़ा दीपक लगाएं, कुंकुंम, केशर, अक्षत, पुष्प की पंखुडियों एवं नैवेद्य से उनका पूजन करने के उपरान्त केसर से स्वास्तिक चिन्ह अंकित कर उस पर सौभाग्य शंख स्थापित करें और पहले से ही चुनकर रखे चावल के 108 बिना टूटे हुए दानों को मंत्रोच्चार पूर्वक सौभाग्य शंख पर समर्पित करें।
इस पूजन के उपरान्त लक्ष्मी माला से श्रीयंत्र पर त्राटक करते हुए निम्न मंत्र की एक माला मंत्र जप करें।
मंत्र जप के उपरान्त भगवती महालक्ष्मी की आरती करें और प्रार्थना पूर्वक अपने स्थान को छोड़े। उस सम्पूर्ण दिवस पूजा स्थान को अव्यवस्थित न करें। सांयकाल गोधूलि के पश्चात् उपरोक्त मंत्र की एक माला जप पुनः करें तथा सौभाग्य शंख चढ़ाये। चावलों और पुष्पों की पंखुडि़यों को किसी रेशमी कपड़े में बांध लें जो आपके जीवन में स्थायी सौभाग्य के रूप में विद्यमान रहेंगे। सौभाग्य शंख एवं लक्ष्मी माला को अगले दिन प्रातः जल में विसर्जित कर दें और श्रीयंत्र को पूजा स्थान में स्थापित कर दें।
जीवन की दुर्गति के विनाश में और सौभाग्य प्राप्ति में सहायक यह विशेष सिद्धि सफल साधना किसी भी आयु-वर्ग का कोई भी साधक या साधिका सम्पन्न कर सकता है।
जीवन के अनेक पक्ष और वे भी पूर्णता से प्रत्येक साधना नहीं समेट सकती जबकि एक इच्छा के बाद दूसरी इच्छा का जन्म होता ही है, एक स्थिति में सफ़लता मिलने के बाद दूसरी स्थिति में सामने आती ही है, और इनकी पूर्ति करना भी कोई दोषयुक्त कार्य भी नहीं है। जीवन के ऐसे चिन्तन को लेकर योगियों ने वे सूत्र ढूंढने चाहे जो जीवन के आवश्यक सूत्र है और उनके साथ ही साथ कोई ऐसी साधना भी प्राप्त करनी चाही जो जीवन के सभी प्रारम्भिक और आवश्यक तत्वों को अपने साथ समेटती हो।
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