नाग अथवा सर्प की पूजा का स्वरूप पूरे भारतवर्ष में मिलता है, प्रत्येक गांव में ऐसा स्थान अवश्य होता है, जिसमें नाग देव की प्रतिमा बनी होती है और उसका पूजन किया जाता है। नागपंचमी के दिन को तो एक उत्सव रूप में मनाया जाता है, इसके पीछे ठोस आधार है, कारण है। समय के अनुसार मूल स्वरूप को भूला दिया गया है।
जिस प्रकार मनुष्य योनी होती है, उसी प्रकार नाग योनि भी होती है। पहले नागों का स्वरूप मनुष्य की भांति होता था, लेकिन नागों को विष्णु की अनन्य भक्ति के कारण वरदान प्राप्त होने से इनका स्वरूप बदल गया और इनका स्थान विष्णु की शय्या के रूप में हो गया। वेदों और पुराणों में नागों के रूप, जाति, भेद आदि का वर्णन मिलता है। पुराणों के अनुसार नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू से हुई, इनका निवास स्थान पाताल लोक है। नाग कन्याओं को अप्सराओं के समान ही सुन्दर माना जाता है। भगवान विष्णु की शय्या सहस्त्र फनधारी ‘शेषनाग’ हैं, भगवान शिव के कण्ठ में हर समय नाग देवता विराजते हैं, इस प्रकार से नाग भी देवरूप ही हैं। ‘‘नीलतम पुराण’’ के अनुसार-
अर्थात् ‘‘अनन्त, वासुकी, शेष, पद्यनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिय, जो इन नौ प्रकार के नागों के नाम का ध्यान, पूजा-पाठ करता है, उसके जीवन के सभी संकट समाप्त हो जाते हैं। प्रात-सायं नित्य स्मरण करने से ये अपने आराधक को हर क्षेत्र में विजयी बनाने में सहायक होते हैं।’’
प्राचीन काल से ही नागों का पूर्ण विधि-विधान सहित पूजन किया जाता रहा है। गाँवों में तो नागोपासना करने की परम्परा है। अनेकों घटनाएं हमारे ग्रंथों में वर्णित हैं, जिससे यह प्रत्यक्ष प्रमाणित होता है, कि नागों की उपासना और साधना हमारे जीवन के लिए कितनी आवश्यक और महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है।
पर्वतीय क्षेत्र की वह रूपसी, जिसे बचपन से ही नागों से विशेष प्रेम था, न तो उसे उनसे डर लगता था और न ही वह मौत की परवाह करती थी, किन्तु उसके जीवन में धन का अभाव था। धीरे-धीरे उम्र के साथ-साथ इच्छाएं बढ़ने लगीं, किन्तु वह मन मसोस कर रह जाती, रोज ताने सुनती, कि ‘‘घर में तो खाने को रोटी नहीं है और इच्छाएं महारानियों जैसी हैं, एक जटाधारी साधु, लम्बी-लम्बी दाढ़ी, सीना विशाल समुद्रवत् और दिप्-दिप् करता चेहरा, जो उसे अन्य व्यक्ति से अलग श्रेणी में खड़ा कर रहा था, उसके व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था, कि उसे देखकर रूपसी से रुका न गया, बोली- ‘‘बाबा! आपको देखकर ऐसा लगता है, जैसे आप साधारण व्यक्ति नहीं, वरन् बहुत ही पहुँचे हुए साधु हैं’’
वे मुस्कुरा दिये और कहा – ‘‘तुमने ठीक पहिचाना’’- ‘‘तो क्या आप मेरे हृदय की बात जान सकते हैं’’
हाँ में उत्तर मिलने पर उसने अपनी समस्या का समाधान पूछा, उसकी जिज्ञासा को देखकर वे उसे ‘‘वासुकी नाग’’ की कहानी सुनाने लगे, कहानी का सीधा असर रूपसी के दिल पर हुआ और नागप्रिय होने के कारण पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ दृढ़ निश्चय कर उसने उनकी आराधना की, और वासुकी भी उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर एक दिन बगीचे में घूमते हुए उसे प्रत्यक्ष दिखाई दिये और कहा- ‘‘मैं तुम्हारी सेवा-भावना और तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हूँ, मेरा आशीर्वाद है, तुम्हारी इच्छा शीघ्र ही पूर्ण होगी’’।
यह कहकर वे अचानक ही लुप्त हो गये, किन्तु वहाँ एक गोल घेरा-सा बन गया, उसके शरारती दिमाग ने उस स्थान को धीरे-धीरे खोदना शुरू कर दिया, तो उसे कुछ खड़खड़ाहट सुनाई दी, भयभीत होकर वह घर लौट आई और सारी बात अपने माता-पिता को बताई, पिता ने उस स्थान को खोदा, तो एक सन्दूक निकला, जिसमें बहुत-सा कीमती सामान और धन रखा हुआ था। यह तो वासुकी की कृपा का ही फल था और उस साधु के प्रताप का चमत्कार, उस घटना ने उन्हें रंक से राजा बना दिया।
इस प्रकार के अनेकों प्रमाण हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं, कि ये घटनाएं कोरी कल्पना नहीं हैं, ये तो वे घटनाक्रम हैं, जो सत्य पर आधारित हैं, जहाँ भक्त जन श्रद्धा-भावना से नाग देवता की पूजा-अर्चना करते हैं, वे अपने जीवन में सुख, सम्पन्नता और समृद्धि सभी कुछ प्राप्त कर लेते हैं।
मंत्र-जप के पश्चात् उस दूध को किसी मन्दिर में चढ़ा आयें। मुद्रिका, माला तथा यंत्र को किसी तालाब या कुएं में विसर्जित कर दें।
साधना काल में तेल का दीपक जलते रहना चाहिए और एक समय भोजन करें।
यह सरल सा दिखने वाला प्रयोग तीव्र प्रभावकारी है।
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