गुरु संसार छोड़ने को नहीं कह रहा, ना ही परिवार त्यागने का तुमसे आग्रह कर रहा है, अपितु कह रहा है अपने सिर को, अपनी बुद्धि को, अपनी समझ-बूझ को एक तरफ रख दो, क्योंकि इस यात्र में यह बाधक ही है। जब तक इसका त्याग नहीं होगा, वह रूपान्तरण नहीं हो पाएगा, जिसका मानव जगत अधिकारी है। सद्गुरु कहते हैं भूल जाओ, छोड़ दो सब, आ जाओ मेरी बाहों में———हो जाओ मुझ में एकाकार और बन जाओ ब्रह्माण्ड, उतार लो पूरे ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर। जीवन में वह स्थिति कब आयेगी, जब जमीन से छः फूट ऊंचाई पर बैठ करके साधना कर सकेंगे? जमीन पर ऐसा कोई सा भाग नहीं है, जहां पर रूधिर न वह हो। धरती का प्रत्येक इंच और प्रत्येक कण अपने आपमें रूधिर से सना हुआ है, अपवित्र है, उस भूमि पर साधना कैसे हो सकती है?
इस शरीर को पवित्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में चले जायें। जब प्राण तत्व में जायेंगे, तो फिर देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं, फिर जीवन में सारे क्रियाकलाप तो होंगे, मगर फिर मल-मूत्र की त्याग की जरूरत नहीं रहेगी, फिर भोजन और प्यास की जरूरत नहीं रहेगी, फिर शून्य सिद्धि आसन लगा सकेंगे, फिर शरीर से सुगन्ध प्रवाहित हो सकेगी और एहसास हो सकेगा, कि आप ही सर्व श्रेष्ठ हैं, आप ही अहम् ब्रह्मास्मी स्वरूप है। यह सब क्रिया सहस्त्र नाड़ी-प्राण विखंडन चेतना को आत्मसात करने से ही सम्भव हो पाता है।
प्राण तत्व में जाकर आपमें चेतना उत्पन्न हो सकेगी, अन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, सारे वेद, सारे उपनिषद् कंठस्थ हो पायेगे। जीवन में सहस्त्र नाड़ी-प्राण विखंडन क्रिया को देवता भी आत्मसात कर इस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने के लिए तरसते हैं। राम के रूप में जन्म लेते हैं, कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं, बुद्ध के रूप में जन्म लेते हैं, महावीर के रूप में जन्म लेते हैं, ईसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैं, पैगम्बर मोहम्मद के रूप में जन्म लेते हैं।
ऊँ तत्वमसी, अहम् ब्रह्मास्मी, सोऽहं, प्रज्ञानम् ब्रह्म
साधक शिष्य जो कार्य करता है, एक प्रकार से अंधेरे में हाथ पांव मारने के समान है। वह पुस्तकों में लिखित क्रियाओं को सम्पन्न कर अर्चना, ध्यानादि करता है, भले ही वह क्रिया उसके लिए अनुकूल हो या नहीं हो। संकोच करते हैं, भ्रमित होते हैं और अपने व्यर्थ के आभूषणों- अहंकार, मोह, लोभ आदि से चिपके रहते हैं जो कि व्यर्थ का ही है। इसके विपरीत शिष्य वह है, जो कार्य, मन, वाणी और धन से गुरु में लीन होकर, गुरु में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, ईष्या, द्वेष वैमन्स्यता, शत्रुबाधा, ज्ञान-अभिमान से परे हो जाता है। जब ऐसा होने लगता है, तब उसके अन्दर सद्गुरु तत्व शाश्वत चैतन्य हो जाता है। जिससे प्राण विखंडन की प्रक्रिया प्रारम्भ होने लग हो जाती है।
इस क्रिया से एक क्षण में ही कि सोया हुआ भाग्य करवट बदलकर एकदम से उठ बैठता है और व्यक्ति के जीवन में विविध रंग बिखरने लगते हैं। शिष्य और साधक स्वयं अनुभव करने लगता है कि वह पूरे ब्रह्माण्ड में विचरण कर सकता है और अपने आप को ब्रह्माण्ड में उतारने की क्रिया, सद्गुरु की चैतन्यता, जीवन की पूर्णता को श्रेष्ठ रूप से जीने की कला का ज्ञान हो जाता है, इन्हीं सब का नाम सहस्त्र नाड़ी प्राण विखंडन दीक्षा है।
अगले पृष्ठ पर अंकित पांच पत्रिका सदस्य बनाने पर उक्त दीक्षा उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी।
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