परम्पराएं, साधनाएं, विश्वास किस प्रकार से एक स्थान पर उत्पन्न होकर दूसरे स्थान पर पुष्पित एवं पल्लवित होती हैं, इसका एक रोचक उदाहरण मुझे अपने जीवन में देखने को मिला। कुछ समय पूर्व की घटना है, जब मैं घोर अर्थाभाव से पीडि़त था और एक प्रकार से जैसे भाग्य ही साथ नहीं दे रहा था, क्योंकि किसी भी नये काम को प्रारम्भ करते ही कुछ ऐसी अड़चनें आ जाती, कि वह कार्य प्रारम्भ तो होता था पर अन्तिम छण में आकर बंद कर देना पड़ता था। मेरा पैतृक व्यवसाय तो चौपट ही हो चुका था और जमा पूंजी भी लगभग खत्म सी हो चुकी थी। इन्हीं दिनों में मेरे एक पूर्व परिचित बंधु की ओर से मुझे निमंत्रण मिला, कि वे अपने बढ़ते कार्यभार को संभालने के लिए मुझे अपने पास बुलाने को आतुर हैं।
संभवतः उन्हें किसी अन्य प्रकार से मेरी व्यापारिक स्थिति का पता लग गया था और उन्होंने एक सभ्य ढंग से मुझे वास्तव में नौकरी ही देने का प्रयास किया था। मेरे पास स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता भी नहीं था क्योंकि आर्थिक स्थिति दृढ़ नहीं थी। लेनदारों और साथी व्यापारियों से मैं भी छुटकारा पाना चाहता था। मैंने अपने परिवार को तो घर पर ही छोड़ दिया तथा स्वयं अपने बन्धु के यहां चला गया।
वहां पहुंच कर मैंने देखा कि वे मेरे अनुमान से कहीं अधिक मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न व्यक्तित्व बन चुके थे। तीन पीढ़ी पहले उनके दादा और मेरे दादा ने एक समय में एक ही तरह का व्यापार साथ-साथ प्रारम्भ किया था। वे एक पीढ़ी बीतते-बीतते गृह नगर छोड़ गए थे और वर्तमान पीढ़ी को मैं स्वयं ही देख रहा था। इन्हीं साठ-सत्तर वर्षों में उन्होंने अपना व्यवसाय केवल एक शहर ही नहीं, बल्कि अन्य शहरों में भी और कुछ अन्य पूर्वोत्तर राज्य के नगरों में भी फैला चुके थे। अचल सम्पत्ति के रूप में वे देश के बड़े शहरों में अपनी सम्पत्ति का विस्तार कर चुके थे।
शांत दिखने वाले मेरे वे बन्धु एक बहुत बड़ी शख्सियत बन चुके थे। वे पूरे वर्ष में केवल एक बार अमावस्या की रात्रि में लगभग बारह बजे अपने घर के पूजा स्थान में जाते थे और सबको बाहर निकालकर, कपाट बंद कर, फिर प्रातः ही निकलते थे। वे क्या करते थे- इसका रहस्य उनके सबसे बड़े पुत्र और धर्म पत्नी तक को भी ज्ञात नहीं था। अत्यंत गम्भीर प्रकृति के होने के कारण किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि उनसे इस विषय में कुछ पूछ सकें।
कुछ समय बाद मैंने अपना परिवार भी अपने गृह स्थान से अपने पास बुला लिया और अपने इन्हीं बन्धु के आग्रह के कारण उसे वहीं रखा, जहां मेरे बन्धु का परिवार रहता था। अपने पास नहीं। शनैः शनैः उनका परिवार और मेरा परिवार पुनः उसी प्रकार से रहने लगा, जैसे तीन पीढ़ी पहले रहता था। उन्होंने मुझे स्वयं अपना अलग व्यापार आरम्भ करने की भी अनुमति नहीं दी, अपितु अपने बिजेनेस की और भी अधिक जिम्मेदारी मुझ पर सौंप दी तथा स्वयं सामाजिक कार्यों में व्यस्त होते चले गए। उनका लक्ष्य राजनैतिक रूप से उन्नति करने का बन गया था और फिर उन्होंने मुझे यह आज्ञा भी दे दी कि मैं आवश्यकता पड़ने पर उनकी धर्मपत्नी से तिजोरी की चाबी लेकर आवश्यक लेन-देन भी कर लिया करूं। अब उनका अधिकांश समय राजधानी में ही व्यतीत होने लग गया था।
एक बार की बात है, मैंने उनकी तिजोरी को उनकी धर्मपत्नी से चाभी लेकर खोला, तो पाया कि सामने की ओर एक सोने के पात्र पर कुछ बीजाक्षर उत्कीर्ण हैं और उसका विधि पूर्वक पूजन भी किया गया है। मैंने अपने जीवन में अनेक प्रकार के शुभ चिन्हों का स्थापन तो बिजनेस वर्ग के मध्य देखा था, किन्तु वह सोने का पात्र उन सभी से बिल्कुल ही अलग था। रात गई बात गयी और मैं भी अन्य कार्यों में व्यस्त होता चला गया। यद्यपि बिजेनेस के सिलसिले में दूसरे नगरों में जाने पर भी उस प्रकार का अंकन दूसरे बिजेनेस मैन के प्रतिष्ठान में, पूजा स्थान पर ढूंढता रहता था।
मैं एक बार आवश्यक कार्यवश अपने इन्हीं बंधु के साथ गुवाहाटी सेन्टर पर गया, तो वहां के प्रबन्धक ने मुझे रोक लिया और कामाख्या देवी के दर्शन करके ही वापिस जाने को कहा। अगले दिन जब मैं दर्शन करके वापिस जाने का उपक्रम कर ही रहा था, कि उनके पारिवारिक गुरु का उनके गृह स्थान पर आगमन हुआ। स्वागत-सत्कार के बाद व्यक्तिगत समस्याओं आदि की चर्चा चल पड़ी। मुझे इसमें कोई रूचि नहीं थी, क्योंकि मेरा सहज झुकाव मात्र पारम्परिक पूजा पद्धति में ही था, किसी अन्य पद्धति अथवा तंत्र-मंत्र में नहीं।
वे तांत्रिक महोदय इस बात को ताड़ गए और उन्होंने मुझसे स्वतः ही चर्चा प्रारम्भ कर दी। मैंने कुछ अलग ढंग से उनसे पूछ लिया, कि क्या वे किसी ऐसे अंकन को जानते हैं, जिसे मैंने अपने मित्र की तिजोरी में देखा था। मेरे यह पूछते ही उनके चेहरे का रंग ही बदल गया और उन्होंने अन्य सभी को बाहर जाने की आज्ञा देकर, मुझसे इस विषय में विस्तार-पूर्वक बताने को कहा।
मैंने तो केवल ऐसे ही एक बात कह दी थी और मुझे वह सोने के पात्र पर अंकन स्पष्ट रूप से याद भी नहीं था, अतः मैं याद करने के पश्चात भी अस्पष्ट ही उन्हें बता पाया। उत्तर में उन्होंने मुझे बताया कि यदि मैं वह अंकन उन्हें स्पष्ट रूप से बता सकूं तो वे भी मुझे एक अत्यन्त दुर्लभ रहस्य बतायेंगे, जिसके फलस्वरूप फिर मुझे कभी किसी की नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि इतना अधिक धनागमन का स्त्रोत उत्पन्न हो जायेगा, जिससे कई पीढि़यां ऐश्वर्यपूर्वक रह सकेंगी।
यह सुनकर मेरी दबी भावनाएं जाग्रत हो उठीं क्योंकि भले ही सब सुख और आवश्यक सुविधाएं हो, धन-धान्य की पूर्णता हो, किन्तु स्वयं को किसी का अधिकारी बनाना मुझे अच्छा अनुभव तो होता ही नहीं था। मैंने उनकी बात स्वीकार कर ली तथा उनका पता लेकर अगली बार मिलने का दिन भी निर्धारित कर लिया।
मैंने घर जाने पर प्रयास कर इस विषय में अपने बन्धु से आज्ञा भी ले ली, कि मैं उनकी तिजोरी में बने उस यंत्र की चित्र ले लूं। शायद गुरुदेव की मुझ पर कृपा थी, अतः उन्होंने मुझे यह अनुमति पता नहीं किस कारणवश दे दी। शायद उन्होंने सोचा होगा, कि मैं इसकी नकल उतार भी लेता हूं तो उनकी क्या हानि होगी। मैं यह नकल बिना उनकी अनुमति के भी उतार सकता था, किन्तु मेरा मन नहीं माना और मेरी इस याचना से उनका विश्वास मेरे ऊपर और अधिक बढ़ ही गया। शायद इसी भावना से उन्होंने मुझे आज्ञा दे दी। कारण कोई भी रहा हो, मैं उस यंत्र अंकन की प्रति लेकर शीघ्र ही उन तांत्रिक महोदय से मिला, जिनसे मेरी भेंट कुछ दिन पहले हो चुकी थी।
उस अंकन को देखते ही उनका चेहरा खिल उठा और वे एक जीर्ण-शीर्ण भोजपत्र का मिलान मेरे द्वारा लाये गए अंकन से करने लगे। कुछ क्षण के अध्ययन के उपरांत उन्होंने मुझे मेरे द्वारा लाया गया अंकन तो लौटा ही दिया, साथ ही अत्यंत प्रसन्नता के साथ बोले- ‘तुम्हें पता नहीं होगा कि तुमने अनायास किस सम्पदा की प्राप्ति कर ली है।’’ मैं स्तम्भित होकर उनका मुख देख रहा था। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, किन्तु उन्होंने कुछ ही शब्दों में सारा रहस्य प्रकट कर दिया।
उन्होंने बताया की यह यंत्र तेरहवीं शताब्दी के एक प्रकांड तांत्रिक के द्वारा रचित है, जिसका जीर्ण-शीर्ण भाग एवं तत्सम्बन्धी मंत्र तो उन्हें भोजपत्र पर अपनी गुरु परम्परा से मिल गया था, किन्तु स्पष्ट न होने के कारण वे इसे सम्पन्न नहीं कर पा रहे थे।
उन्हीं तांत्रिक महोदय से मुझे पता चला कि यह अटूट धन प्राप्ति का एक ऐसा दुर्लभ रहस्य है जिसे उनकी परम्परा में ‘नखुनिया साधना’ कहा जाता है। जिस किसी के पास इस प्रकार का दुर्लभ साधना रहस्य होता है, वह एक प्रकार से आजीवन लक्ष्मीपति बनकर ही रहता है, उसे धन या किसी भी आवश्यकता के लिए न तो याचना करनी पड़ती है, न ही चिंता। उसके सोचे हुए समस्त कार्य स्वतः ही सम्पन्न होते जाते हैं तथा उसके शत्रु और बाधाएं स्वतः ही समाप्त भी होते जाते हैं।
उनकी यह बात सुनकर मेरे सामने अपने उन्हीं बन्धु का चित्र खिंच गया। वास्तव में उन्हें न तो किसी बात की चिंता करनी पड़ती थी, न ही किसी संकट के समाधान के लिए उन्हें कभी चिंतित होते ही मैंने देखा था।
अपने वचन के अनुसार उन तांत्रिक महोदय ने मुझे न केवल इस प्रयोग की सारी साधना विधि समझाई, वरन आवश्यक उपकरण एवं रहस्यमय मंत्र की भी उपलब्धि कराई। उन्होंने मुझे इस साधना हेतु दुर्लभ सामग्री ‘षोडश पद्म चरण’ उपलब्ध कराये और अपने साहचर्य में ही साधना को सम्पन्न करने के लिए कहा और कहा कि यह अमावस्या की रात्रि में ही सम्पन्न की जाने वाली साधना है।
अमावस्या की रात्रि में उनके पास पहुंचने पर उन्होंने मुझे यह साधना सम्पन्न कराई और अगले वर्ष पुनः अपने साहचर्य में ही इसे सम्पन्न करने की आज्ञा दी। दुर्भाग्यवश उस अमावस्या के दो माह बाद ही उनका देहान्त हो गया और मेरी यह साधना एक प्रकार से अधूरी ही रह गयी थी।
मुझे इस साधना के मंत्र एवं यंत्र के विषय में तो रहस्य ज्ञात हो चुका था, किन्तु इसमें प्रयोग किए जाने वाले आवश्यक षोडश पद्म चरणों के रहस्य, उनकी प्राण-प्रतिष्ठा आदि के विषय में कोई ज्ञान नहीं था, जिनके अभाव में सब कुछ व्यर्थ ही था। मैंने छटपटाहट में कई ओर हाथ-पैर मारे, किन्तु एक-से-एक उच्चकोटि के तांत्रिकों ने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी।
इन्हीं दिनों मेरा सम्पर्क मेरे एक पुराने मित्र से हुआ। उसी के घर में मैंने ‘प्राचीन मंत्र-यंत्र विज्ञान’ मासिक पत्रिका को पढ़ा। गुरुदेवजी के विषय में बहुत कुछ सुन चुका था। मैंने अपने प्रयासों की एक कड़ी के रूप में उनसे भी मिलना उचित समझा और एक उपयुक्त अवसर पर उनसे भेंट भी की।
गुरुदेव ने मेरे समस्त विवरणों को सुना और मुझे षोडश पद्म चरण की उत्पत्ति, मंत्रसिद्धि, प्राण-प्रतिष्ठा तथा इस साधना विशेष के लिए चैतन्यता के सम्पूर्ण क्रम से परिचय कराया और मैंने भी इस साधना से सम्बन्धित समस्त रहस्य, मंत्र उनकी पत्रिका के माध्यम से स्पष्ट करने की उनकी आज्ञा मान ली।
मैं एक प्रकार से ऐसा करने के लिए विवश ही था, साथ ही मैंने अनुभव किया, कि मेरे सामने उपस्थित यह व्यक्तित्व अपने लिए तो कुछ मांग ही नहीं रहा है, अतः मैंने आज्ञा मानने की वचन बद्धता प्रकट की। मैंने पूज्य गुरुदेव से दीक्षा प्राप्त की और गुरुदेव के विशेष प्रयास स्वरूप मुझे इस साधना की दुर्लभ सामग्री तो उपलब्ध हो सकी, साथ ही अब मैं प्रतिवर्ष कम-से-कम अमावस्या के अवसर पर उनके सानिध्य में रहकर उस साधना को तो सम्पन्न करता ही हूं। शेष उनके सम्पर्क में रहकर मैंने जो कुछ प्राप्त किया, वह अलग विषय है।
आज मैं पूज्य गुरुदेव की कृपा से समाज में उस स्थान पर हूं, जहां मुझे किसी की नौकरी करने की आवश्यकता नहीं रही, अब मैं स्वयं अनेक व्यक्तियों को नौकरी देने में समर्थ हूं। मैं आगे इस महत्वपूर्ण साधना के रहस्य को स्पष्ट कर रहा हूं, जो केवल अमावस्या की रात्रि में सम्पन्न की जा सकती है। इस साधना को सम्पन्न करने के लिए साधक को दो महत्वपूर्ण साधना सामग्रियों की आवश्यकता होती है-‘‘षोड्ष पद्म चरण’’ एवं ‘सफेद हकीक माला’।
साधक अमावस्या की मध्य रात्रि में लगभग बारह बजे स्नान कर अपने साधना कक्ष में प्रवेश करे। साधना कक्ष में पूर्ण एकांत होना चाहिए। वह स्वयं पीले वस्त्र धारण करे तथा पीले आसन पर उत्तर मुखी बैठें, अपने समक्ष किसी ताम्र पात्र में कुंकुम से निम्न यंत्र को अंकित करें।
यदि ताम्रपात्र छोटा हो, तो इसे किसी पीले वस्त्र अथवा भोजपत्र पर भी बनाया जा सकता है।
भोजपत्र पर बना यंत्र आजीवन प्रयुक्त कर सकते हैं, जबकि कपड़े पर बना यंत्र प्रति अमावस्या को बनाना पड़ता है। इसके उपरांत षोड्ष पद्म चरण लेकर निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए यंत्र के ऊपर एक पद्म चरण रखें तथा मंत्र-जप का उच्चारण ‘सफेद हकीक माला’ के माध्यम से ही करें। षोड्ष मंत्रोंचारण के उपरांत शेष मंत्र-जप उसी हकीक की माला से एक माला मंत्र-जप सम्पूर्ण होने तक करें। कहने का तात्पर्य यह है, कि मंत्र-जप की कुल संख्या 108 होनी चाहिए, जो हकीक की माला से ही हो। प्रथम सोलह बार के मंत्रोंच्चारण के साथ-साथ एक-एक पद्म चरण भी यंत्र पर अर्पित करते रहना है। इस साधना हेतु दुर्लभ मंत्र इस प्रकार है-
यह साबर मंत्र है तथा इसी को नाथ योगी ‘ नखुनिया साधना’ भी कहते हैं। अमावस्या की रात्रि में सम्पन्न किए जाने वाले साबर साधनाओं में यह विशिष्ट स्थान रखता है। यदि इसे सर्वांगीण उन्नति की साधना कहें, तो उपयुक्त होगा। साधना के पश्चात साधक दूसरे दिन प्रातः सभी पद्म चरण एवं हकीक माला घर के बाहर किसी गुप्त स्थान पर गड्ढा कर मिट्टी में दबा दें। अगले वर्ष यही साधना साधक नई साधना सामग्रियों के साथ करें और कम-से-कम तीन वर्ष तक अवश्य ही करें। रात्रि में साधना चाहे जब समाप्त हो, यथा सम्भव उसके बाद निद्रा न लें।
मंत्र जप के काल में दीपक लगा लेना उचित माना गया है। साबर साधनाओं में तंत्र का स्थान रखने वाली यह एक महत्वपूर्ण साधना है।
(किसी भी प्रकार के तांत्रिक प्रयोग आदि को दूर करने की सफल सिद्ध साधना)
शत्रु और ईर्ष्यालु दूसरों की उन्नति नहीं देख सकते। जब वे परिश्रम कर उस प्रकार से सफलता प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाते तब वे किसी अन्य उपाय से नुकसान पहुंचाने की चेष्टा करते हैं। इसमें वे मैली विधियों का सहारा लेते हैं और इसके माध्यम से व्यक्ति को बीमार बना देना, परिवार में सदस्यों की अकाल मृत्यु, व्यापार में हानि होना, समय पर कार्य सम्पन्न न होना, भाग्योदय में बाधाएं आदि प्रयोगों से व्यक्ति का जीवन छिन्न भिन्न हो जाता है।
ऐसी स्थिति में यह साधना राम बाण की तरह कार्य करती है। इस साधना को करने से यदि उस पर या उसके सदस्यों पर अथवा व्यापार पर किसी प्रकार का कोई भी प्रयोग किया हुआ होता है, जो वह दूर हो जाता है और उसकी वापिस उन्नति होने लगती है। मेरी राय में तो यह साधना प्रति माह साधकों को कर लेनी ही चाहिए, जिससे कि किसी प्रकार की कोई विपत्ति या बाधा न रहे, यह साधना मात्र तीन दिन की है। किसी भी शनिवार से इस साधना को प्रारम्भ करना चाहिए, प्रातःकाल उठकर नित्य क्रिया से निवृत होकर सामने मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त ‘हत्था जोड़ी’ रख दें और उस पर कुंकुम से तिलक करें और फिर हाथ में जल लेकर कहें कि मैं यह साधना सम्पन्न कर रहा हूं, मुझ पर, मेरे घर पर या मेरे परिवार अथवा व्यापार पर किसी प्रकार का दोष, तांत्रिक प्रयोग या पितृ दोष आदि हो तो वह समाप्त हो जाये और मेरी पुनः उन्नति प्रारम्भ हो।
फिर ‘मूंगे की माला’ से निम्न मंत्र की 11 मालाएं फेरे-
इस प्रकार तीन दिन तक मंत्र प्रयोग करें और उसके बाद वह माला और हत्था जोड़ी घर के बाहर किसी स्थान पर गड्ढा खोदकर जमीन में गाड़ दे। ऐसा करने पर वह दोष दूर हो जाता है और उसके जीवन में पुनः उन्नति होने लग जाती है। यह साधना अपने आप में अत्यधिक महत्वपूर्ण है, इससे साधक को और उसके परिवार को सफलता मिलने लगती है।
पूर्ण गृहस्थ सुख बहुत कम व्यक्तियों के भाग्य में होता है। यदि पति पत्नी के विचारों में मतभेद, घर में नित्य कलह, निरन्तर व्यय चलते ही रहते हैं तो फिर जीवन का आनन्द कहां? इस साधना हेतु दो मंत्र प्रयोग विशेष रूप से प्रस्तुत हैं, पहले प्रयोग से घर की बाधाओं, विपत्तियों का नाश होता है और किसी की नजर का प्रभाव भी नहीं पड़ता। इस हेतु किसी भी शनिवार को अपने सामने ‘गृह बाधा हरण यंत्र’ रात्रि को स्थापित करें, सामने गुग्गल का धूप जलाएं तथा मिठाई, फल, पुष्प तथा तेल रखें और दूसरी ओर घी का दीपक जलाएं।
यंत्र के चारों ओर काजल से एक गोल घेरा लगा दें और 21 दिन तक एक माला मंत्र जप अवश्य करें, इसमें मंत्र सिद्ध ‘पलान्जा काष्ट’ का प्रयोग विशेष है, इसे घेरे के बाहर रखें, और साधना पूर्ण होने पर अपने घर के बाहर गाड़ दें।
साधक मंत्र का जप कर दो पुडि़या बनाएं एक पुडि़या में एक मुट्ठी सरसों डाल कर अपना नाम लिखें। दूसरी पुडि़या में ‘गोमती चक्र’ रखें और अपनी पत्नी का नाम लिखें। दोनों पुडि़याओं पर मंत्र जप के समय सिन्दूर लगाएं। एक-एक माला मंत्र जप दोनों पुडि़याओं के सामने करें। मंत्र जप के पश्चात् दोनों पुडि़याओं को साथ-साथ बांध कर भूमि में गाड़ दें। ऐसा करने पर अत्यन्त प्रेम बना रहता है।
साबर साधनाएं आज के वर्तमान युग में तीव्र और तुरन्त फ़लप्रद होती हैं, इनका प्रभाव कभी खाली नहीं जाता। साबर साधनाएं अत्यन्त सरल और सामान्य जन के लिए हैं, इस कारण इसमें किसी प्रकार की त्रुटि रह भी जाती है तो कोई हानि नहीं पहुंचती। ये साधनाएं अपने दैनिक क्रियाकलाप के साथ सम्पन्न की जा सकती हैं, पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तभी ये साधनाएं करनी चाहिए।
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