व्यक्ति की मानसिकता में जो संदेह उसे घेरे रहते हैं और इन संदेह और अविश्वास के कारण वह अपनी आत्म स्थिति को अनुभव नहीं कर पाता। गुरु वह ऊर्जा की रचना का प्रवाह करते हैं जिसे शिष्य आंतरिक रूप से ग्रहण करता है और उसके संदेह धीरे-धीरे दूर होते रहते हैं। इस आंतरिक ऊर्जा का प्रवाह केवल गुरु के माध्यम से ही हो सकता है। इसके अलावा दूसरे सब माध्यम में व्यक्ति की ‘इगो’ बीच में अवश्य आ जाती हैं। इस शक्ति प्रवाह के कारण ही गुरु शिष्य परंपरा सदैव जीवन्त रहेगी। किसी भी स्थिति में समाप्त नहीं हो सकती।
व्यस्त जीवन, कार्य भार एवं कर्त्तव्यों के बोझ से व्यक्ति का जीवन एक मजदूर सा हो जाता है और वह तनावों से, चिंताओं से ग्रस्त हो जाता है और कई बार तो वह मानसिक रोगी तक भी हो जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से आप अपने अन्दर की गहराईयों में उतरना प्रारंभ करेंगे। जिस प्रकार भगवान शिव शांत चित्त रहते हैं, उनकी कृपा से आप व्यस्त रहते हुए भी प्रफुलित रह सकेंगे, क्योंकि गुरु ही शिव हैं और शिव ही गुरु हैं, इनमें कोई भेद नहीं है। यह चिन्तामुक्ति व आनन्द सिद्धि साधना है। साधक अपने जीवन में इस दीक्षा को प्राप्त करने के उपरान्त स्वतः ही अनुभव करता है कि उसके जीवन के अभाव, परेशानियां दूर होती जा रही हैं।
साधक को कई बार प्रयत्न करने पर भी साधनाओं में सफलता नहीं मिल पाती और बार बार उसको असफलताओं का ही सामना करना पड़ता है। इसके कई कारणों में से एक कारण यह भी होता है कि उस साधक के पिछले जीवन के या इस जीवन के दोष या पाप इतने अधिक होते हैं, कि प्रयत्न करने पर भी वह सफल नहीं हो पाता। नित्य मंत्र जाप और साधनाओं में रत रहने से उसके सभी पाप दोष स्वतः ही समाप्त होने लगते है। यदि साधक ने दीक्षा नहीं ली हुई हो तब भी साधना में सफलता संदिग्ध रहती है, दीक्षा के उपरान्त भी यदि गुरु के प्रति आलोचना, उनके प्रति भ्रम और संशय रहता है, तो भी सफलता नहीं मिल पाती है।
जो साधना काल में अपने इष्ट और गुरु में अन्तर समझता है, या पूर्ण हृदय से गुरु-चिंतन नहीं कर पाता है, तब भी साधना में सफलता नहीं मिल पाती। गुरु के बताये हुए कार्यों में शिथिलता बरतना या आज्ञा पालन में न्यूनता रखने से भी साधना में सफलता संदिग्ध हो जाती है। पिछले जीवन के अथवा इस जीवन के पाप, दोष अधिक हो, तब भी प्रयत्न करने पर सफलता नहीं मिल पाती।
यह दीक्षा तो अनिवार्य हैं, क्योंकि ब्रह्माण्ड सद्गुरु गृहस्थ संन्यास दीक्षा के माध्यम से गुरु शिष्य के पूरे शरीर में जब पूर्ण ब्रह्माण्ड स्थापित करते हैं तो ही दीक्षा का क्रम पूरा होता है—-यह पूर्णतः सत्य प्रक्रिया है कि फिर साधक ब्रह्माण्ड सद्गुरु गृहस्थ संन्यास दीक्षा प्राप्त कर पूर्णता और निश्चिंतता प्राप्त करता ही है।
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