यद्यपि साधना जगत में उच्चकोटि अथवा निम्न कोटि जैसा कोई भेद नहीं है, प्रत्येक साधना ही अपने स्थान पर श्रेष्ठ है, वंदनीय है, फिर भी कुछ साधनाएं ‘शक्ति प्राप्ति’ की होती है, और कुछ ‘शक्ति-सिद्धि’ की। प्रारम्भ में शक्ति प्राप्ति की ही साधनाएं करनी पड़ती है, जिस प्रकार एक डायनेमो पहले बाह्य रूप से शक्ति प्राप्त कर गतिशील होता है एवं उसके बाद तो वह स्वयं असीमित ऊर्जा का उत्पादन करने में समर्थ हो जाता है। इसी कारणवश केवल प्रारम्भिक साधक ही नहीं अपितु साधना पर काफी आगे बढ़े चुके साधक भी आत्मविवेचन कर इस प्रकार की प्रारम्भिक साधनाएं, प्राप्त करने की चेष्टा में रत रहते ही हैं।
प्रस्तुत लेख में इसी श्रेणी की एक ‘प्रारम्भिक साधना’ वर्णित की जा रही है, जो साधना के किसी भी आयाम पर स्थित साधक के लिये फलप्रद सिद्ध होगी ही। यह भगवती दुर्गा की विशेष फलप्रदा ‘जया साधना’ है। भगवती दुर्गा की साधना अपने आप में पूर्ण शक्ति की साधना है मूलतः यही जगत की समस्त क्रियाओं की संचालिका है, किन्तु प्रारम्भ में सीधे भगवती दुर्गा की साधना करने से साधक को कोई भी लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी साधक प्रथम दिन से ही उस भावभूमि और चैतन्यता पर आसीन नहीं होता, कि वह सहज ही भगवती दुर्गा की साधना को सिद्ध कर ले।
यह भगवती दुर्गा की साधना में प्रवेश हेतु एक प्रकार से प्रवेश द्वार ही है और यही सिद्धेश्वरी साधना का भी रहस्य है, क्योंकि जब तक साधक उस मूलभूत शक्ति को अपने अनुकूल नहीं बना लेता, जो साधना हेतु आवश्यक बल एवं तदनुकूल प्रखरता प्रदान करे, तब तक शक्ति की कोई भी साधना सफल हो ही नहीं सकती, चाहे वह कोई भी महाविद्या साधना हो अथवा भगवती दुर्गा की साधना।
भगवती जया की साधना एकान्तर से भगवती दुर्गा की ही साधना है जैसा कि ‘दुर्गा सप्तशती’ से स्पष्ट होता है-
अर्थात् ‘जिनके अंगो की आभा श्यामवर्णीय मेघ के समान है, जो अपने कटाक्षों से शत्रुसमूह को भय प्रदान करती है तथा अपने मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की रेखा से शोभा पाती है, हाथ में शंख, चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करने वाली, तीन नेत्रों से युक्त, सिंह के कंधो पर आसीन, अपने तेज से तीनों लोकों को आपूरित करने वाली उन ‘जया‘ नाम की दुर्गा का ध्यान करें, जिनकी सेवा सिद्धि की इच्छा रखने वाले पुरूष करते है तथा देवता जिन्हें सब ओर से घेरे रहते है।’
उपरोक्त ध्यान से यह पूर्णतयः प्रकट होता है, कि भगवती दुर्गा का ही वरदायक स्वरूप ‘जया’ है। यह भगवती दुर्गा की कृपा है, कि जहां एक ओर वे साधना के माध्यम से दुःसाध्य कहीं गयी है, वहीं वे अपने एक अन्य कल्याणदायक स्वरूप ‘जया’ के माध्यम से अपने भक्तों की आशा को पूर्ण करने के लिये तत्पर भी हैं। देवी एवं देवता भय की स्थिति नहीं है वरन वे तो स्वयं आतुर रहते है, कि कब उन्हें उचित आधार मिले और वे अपने कल्याणकारी स्वरूप के माध्यम से जगत का कल्याण करें, क्योंकि किसी भी देवी या देवता की मूल चेतना तो केवल करूणामय और कल्याणमय ही होती है। साधक उचित साधना से अपने अन्दर वह पात्रता उत्पन्न करता है, जिससे फिर सम्बन्धित देवी या देवता उसके अन्दर समाहित हो सके।
स्वयं को प्रत्येक ढंग से परिपूर्ण बना लेना और जीवन की दुर्गतियों का समापन कर सकना, ये दुर्गा की साधना के सहस्त्र फल होते है, और यदि साधक इसे और भी सरल रूप में सिद्ध करना चाहे तो, प्रस्तुत साधना के माध्यम से सिद्ध कर सकता है।
नवरात्री के प्रारम्भ दिन में की जाने वाली इस साधना का मूल प्रभाव तो दुर्गा साधना का है, किन्तु अपेक्षाकृत सरल और सहज ढंग का है। इस साधना के माध्यम से ही साधक महाविद्या साधनाओं में प्रवेश का केवल अधिकारी ही नहीं वरन सुपात्र भी हो जाता है तथा भगवती जया की विशिष्ट ‘जयाप्रद’ शक्ति के कारण सहज ही उन बाधाओं से मुक्त रहता है, जिनका सामना प्रत्येक महाविद्या साधक को करना ही पड़ता है।
इस साधना को सम्पन्न करने हेतु साधक के पास ताम्रपात्र पर अंकित नवार्ण यंत्र होना अति आवश्यक होता है, क्योंकि यही उनकी शक्तियों का वास्तविक एवं कल्याणकारी अंकन जो है। इस महत्त्वपूर्ण यंत्र के अतिरिक्त एवं ‘तांत्रोक्त फल’ तथा ‘हकीक माला’ भी आवश्यक है।
साधक लाल वस्त्र धारण कर पश्चिम मुख होकर लाल रंग के आसन पर बैठे। यंत्र तथा तांत्रोक्त फल को स्थापित कर दोनों का पूजन कुंकुम और अक्षत से करें।
तदुपरान्त ‘हकीक माला’ से निम्न मंत्र की 7 माला मंत्र जप करें-
यदि साधक किसी महाविद्या साधना में प्रवृत होने की भावना रखता है, तो उसे इस मंत्र की 27 माला मंत्र जप करना आवश्यक होता है। केवल जया दुर्गा की सिद्धि की कामना रखने वाले साधकों के लिये 7 माला ही पर्याप्त है। मंत्र जप के उपरांत सभी साधना सामग्रियों को किसी देवी मन्दिर में कुछ दक्षिणा के साथ विसर्जित कर दें।
इस अद्भूत चेतन्य, शक्तिदायी एवं सिद्धिप्रद साधना को सम्पन्न कर साधकगण स्वयं अनुभव कर सकते है, कि देवी की साधना अपने आप में कितना अधिक प्रवाह, तृप्ति एवं मधुरता लिये हुये है, साथ ही मातृस्वरूपा होने के कारण वे अपने साधकों के उन दुःखों को भी समाप्त करने में समर्थ है ही, जिनको साधक प्रकट करें अथवा न प्रकट करें।
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